दिल्ली में स्लटवॉक की तैयारी की जितनी हलचल रही, वास्तविक स्लटवॉक की उतनी नहीं. क्या इसलिए कि यह स्लटवॉक उतना भड़कीला या उत्तेजक साबित नहीं हुआ जितनी मीडिया ने कल्पना की थी? इस वॉक में लड़कियां `स्लट’ की तरह नहीं आईं जैसा कई उत्साही लोग सोच रहे थे. वे बिल्कुल आम घरों की लड़कियों की तरह सड़क पर उतरीं- हाथों में तख्तियां और बैनर लिए- आग्रह करती हुईं कि उन्हें अपने ढंग के कपड़े पहनने का हक है और सिर्फ इस वजह से उन्हें प्रताड़ित न किया जाए. अखबारों की रिपोर्ट बताती है कि इस स्लटवॉक की तैयारी के सिलसिले में होने वाली बैठकों में बार-बार यह सवाल उठता रहा कि इसे क्या नाम दिया जाए और इसमें कपड़े कैसे पहने जाएं. शायद ऐसी ही उलझनों की वजह से दिल्ली के मोर्चे की तारीख आगे बढ़ती रही और वह भोपाल में पहले निकाल लिया गया.
टोरंटो में जिन महिलाओं ने स्लटवॉक किया, शायद उन्होंने यही कोशिश की कि स्ल्ट शब्द से उसके अर्थ को निचोड़ कर फेंक दिया जाएजाहिर है, मामला कपड़ों का नहीं, अवधारणा का है, उस मेल शॉवेनिस्ट- पुरुष-मदांध- नजरिये का है जो किसी लड़की को सिर्फ उसके कपड़ों के आधार पर `स्लट’ करार देने को तैयार रहता है और उसके साथ होने वाले अत्याचार के लिए उसके अपने हाव-भाव को जिम्मेदार ठहराता है. टोरंटो में एक पुलिस अफसर ने यही काम किया और वहां लड़कियां बिल्कुल उन्मुक्त कपड़े पहन कर सड़कों पर उतर आईं- बताती हुई कि यह तय करने का हक सिर्फ उन्हें है कि वे क्या पहनें और क्या न पहनें. टोरंटो से चला अभियान दूसरे शहरों से होता हुआ अगर दिल्ली तक चला आया तो किसी फैशन के तहत नहीं, उस दबाव के तहत जो नये जमाने की लड़की भारत में इन दिनों कुछ ज्यादा महसूस करने लगी है. लेकिन दिल्ली ने टोरंटो की नकल नहीं की, इस स्लटवॉक को अपने ढंग से अपनाया. सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि अगर इस वॉक के उत्साही आयोजकों ने वाकई यह जिद पकड़ ली होती कि वे वैसे ही कपड़े पहनेंगी जैसे टोरंटो की प्रदर्शनकारियों ने पहन रखे थे तो उनके मार्च को शायद यह कामयाबी या स्वीकृति नहीं मिलती.
दरअसल इस मोड़ पर वह दुविधा झांकती है जो औरत की आजादी के सवाल पर आज की भारतीय लड़की के सामने उठ रही है. वह पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने घर से बाहर निकली है, लेकिन पुरुष उसका काम नहीं, उसके कंधे देख रहा है. वह घर में जिस गुलामी और उत्पीड़न की शिकार थी उसका तो उसे फिर भी अभ्यास था, लेकिन अब एक नया सवाल उसके सामने है कि आज़ादी के इस नये जोखिम से वह कैसे निबटे, रास्तों और दफ्तरों में घूरने वाली जानी-पहचानी और अजनबी निगाहों का क्या करे, वह कैसे साबित करे कि घर से बाहर निकल कर वह बेहयाई या बेशर्मी का परिचय नहीं दे रही, सिर्फ अपने लिए नौकरी या रोजगार-तरक्की के वैसे ही अवसर खोज रही है जैसे पुरुषों को चाहिए.
इन सवालों का या इनसे जुड़ी दुविधा का वास्ता नारीवाद की किसी सैद्धांतिकी से नहीं, भारतीय लड़की के रोजमर्रा के अनुभव से है
यह सवाल उसे अचानक स्लटवॉक जैसे किसी खयाल से जोड़ देता है. वह स्लट का मतलब खोजने निकलती है तो उसके सामने बेशर्म, बेहया, बदचलन और कुलटा से लेकर वेश्या तक के विकल्प सामने आते हैं. दिल्ली में स्लटवॉक के आयोजकों ने इसे बेशर्मी मोर्चा का नाम दिया- कहीं यह सफाई देते हुए कि यह पुरुषों की बेशर्मी के खिलाफ मोर्चा है. लेकिन सच तो यह है कि इससे बात बनती नहीं. सीधे-सीधे यह समझने की जरूरत है कि ‘स्लट’ या ‘कुलटा शब्द एक खास मर्दवादी मानसिकता का शब्द है जो स्त्री को पुरुष की संपत्ति मानता है. शादी या प्रेम या किसी और संबंध के जरिए यह स्त्री जब तक उसकी है, उसके कहे मुताबिक चल रही है, उसके दिए हुए आदर्शों को जी रही है, तब तक वह अच्छी लड़की है, लेकिन जहां वह अपनी लकीर बनाना शुरू करती है, अपनी मर्जी से नौकरी से लेकर साथी तक चुनने की कोशिश करती है, वहां वह अपने दुस्साहस के प्रकार के हिसाब से बेशर्म, बेहया, कुलटा, वेश्या कुछ भी कही जा सकती है.
तो बेशर्मी मोर्चे की पहली चुनौती तो यही है कि वह शब्द के इस अर्थ को, और इसके पीछे छिपी मानसिकता को खारिज कर दे. टोरंटो में जिन महिलाओं ने स्लटवॉक किया, शायद उन्होंने यही कोशिश की कि स्लट शब्द से उसके अर्थ को निचोड़ कर फेंक दिया जाए, यह बता दिया जाए कि पुरुष उसे स्लट या जो कुछ भी समझे, वह अपने ढंग से सड़क पर चलेगी. किसी शब्द को नकारने या खारिज करने की पहली प्रक्रिया शायद यही होती है.
इस लिहाज से देखें तो बेशर्मी मोर्चे ने बस अभी लड़की के हक की वकालत की है. निश्चय ही यह छोटा काम नहीं है, लेकिन इससे बड़ा काम यह समझाना है कि समाज ने अच्छी लड़की की जो एक छवि बना रखी है- चुप रहने वाली, सब कुछ सहने वाली, किसी का विरोध न करने वाली, शालीनता से मुस्कुराने वाली, प्रशंसा पर शर्मा जाने वाली, साथ चलने के आग्रह से सहम जाने वाली, अपने आंचल और दुपट्टों का खास खयाल रखने वाली- वह छवि लड़की के साथ न्याय नहीं करती. निश्चय ही आज की लड़की इस छवि से आगे निकल आई है और समाज लड़कियों को पहले से कहीं ज्यादा बराबरी के मौके दे रहा है. अब वह भाइयों के साथ पढ़ सकती है, सहेलियों के साथ घूम सकती है, डॉक्टर और लेक्चरर छोड़कर पत्रकार और मैनेजर भी बन सकती है, नौ से पांच की दफ्तर में बैठने वाली सुरक्षित नौकरी की जगह रात-बिरात का काम भी कर सकती है और फील्ड में भी जा सकती है.
लेकिन जब वह यह सब करती है तो समाज की अच्छी लड़की नहीं रह जाती, वह एक तेज-तर्रार कामकाजी महिला की तरह देखी जाती है, जो सीमाएं तोड़ने को तैयार है. इस बिंदु पर पहले उससे उम्मीद की जाती है, फिर जोर-जबरदस्ती और आखिरकार उसे स्लट- यानी बेशर्म, बेहया या कुलटा कुछ भी ठहरा दिया जाता है. शब्द शायद बदल जाते हों, मानसिकता नहीं बदलती. तो बेशर्मी मोर्चे को इस मानसिकता को बदलने के लिए कहीं ज्यादा सख्त शब्द ढंूढ़ने होंगे, कहीं ज्यादा तीखी लड़ाई लड़नी होगी. इसमें शक नहीं कि यह लड़ाई वह लड़ और जीत लेगा, क्योंकि ऐसे ही मोर्चों की मार्फत हासिल जीत ने उसे इस मोड़ तक पहुंचाया है.
लेकिन जो दूसरी चुनौती उसके सामने है वह कहीं ज्यादा बड़ी और कड़ी है. स्त्री को लेकर चला आ रहा पुराना नजरिया उस पर सामने से वार कर रहा है जिसकी चोट, जिसके चाबुक के निशान वह अपनी आत्मा और अपने बदन पर पहचानती है, लेकिन स्त्री के नाम पर आया तथाकथित नया नजरिया उस पर पीछे से हमला कर रहा है जिससे वह अगर बेखबर नहीं तो पूरी तरह बाखबर भी दिखाई नहीं पड़ती. जिस दौर में यह लड़की अपने छोटे-छोटे प्रयत्नों से, अपनी छोटी-छोटी कोशिशों से, अपने छोटे-छोटे मोर्चों से, अपने लिए बराबरी और सम्मान हासिल करने की सफल लड़ाई लड़ रही है, उसी दौर में बाजार उसे लगातार सिर्फ देह में बदल रहा है. दिलचस्प यह है कि यह बाजार अक्सर उसके हमदर्द और वकील की तरह उसके साथ खड़ा होता है, उसकी आजादी की लड़ाई में शामिल भी दिखता है. उसे नौकरियां देता है और आत्मनिर्भरता का एहसास भी, लेकिन इसी के साथ-साथ वह चुपचाप उसका इस्तेमाल करता चलता है. वह उसे साबुन से लेकर समंदर तक बेचने में लगा देता है और उसके बिना जाने उसे भी खरीद-फरोख्त की एक वस्तु में बदल डालता है. उपभोक्ता सामग्री का अनवरत विज्ञापन करते-करते वह खुद उपभोग की सामग्री में बदल दी जाती है. यह बाजार ही उसके कपड़े भी तय करता है और जिन्हें ये कपड़े मंजूर नहीं, उन्हें दकियानूस या परंपरावादी बताकर उनका मजाक भी बनाता है.
सूचना और मनोरंजन के तमाम माध्यमों में- अखबार के चमकीले पन्नों से लेकर फिल्मों के सुनहरे परदों और टीवी, इंटरनेट से लेकर मोबाइल तक- बाजार का अपना एक स्लटवॉक है, जो लगातार 24 घंटे चलता रहता है- इस मायने में कहीं ज्यादा खौफनाक कि वह ‘स्लट’ शब्द के अर्थ की स्मृति को बचाता और बेचता है और अंततः स्त्री की देह को एक ऐसे सामान में बदलता है, जिसका कारोबार और आयात-निर्यात हमारी इक्कीसवीं सदी के सबसे बड़े और मुनाफादेह धंधों में है.
दरअसल टोरंटो से दिल्ली तक लाया गया स्लटवॉक बाजार के कंधों पर भी होकर आया था- इस उम्मीद में कि यहां भी वह औरत की आजादी को उन्मुक्तता के रैपर में लपेट कर बेच लेगा. लेकिन शायद स्लट या बेहया या कुलटा शब्द की एक वाजिब सिहरन और स्मृति बाजार के फैशनेबल आग्रह से कहीं ज्यादा ताकतवर साबित हुई और दिल्ली के मोर्चे ने सनसनी की जगह सरोकार के प्रदर्शन को तरजीह दी. लेकिन यह मोर्चा यहां कायदे से खत्म नहीं, शुरू होना चाहिए, क्योंकि अभी स्त्री की आजादी और बराबरी के बहुत सारे सवाल बचे हुए हैं- यह दुविधा भी कि भारत में अगर स्त्री की आजादी का कोई आंदोलन चले तो वह पश्चिम से कितना अलग हो, कितना कुछ उससे ग्रहण करे और कैसे वह दोहरी लड़ाई लड़े जो उसे अपने परंपरावादियों से भी लड़नी है और बाजारवादियों से भी. निश्चय ही इन सवालों का या इनसे जुड़ी दुविधा का वास्ता नारीवाद की किसी सैद्धांतिकी से नहीं, भारतीय लड़की के रोजमर्रा के अनुभव से है जो यह पा रही है कि वह तो बदल रही है, उसके साथ चलने वाला मर्द नहीं बदल रहा है.
अच्छी बात यह है कि यह लड़की अब अपने समय और समाज को कहीं ज्यादा बेहतर ढंग से पहचान रही है, वह इस सड़क पर कहीं ज्यादा आत्मविश्वास से चल रही है और अपनी मर्जी से स्लटवॉक के जोखिम मोल ले रही है. इसी से उम्मीद बंधती है कि वह अपने स्त्रीत्व से जुड़ी सामंती अपेक्षाओं को भी ठोकर मारने में कामयाब होगी और बाजार के प्रलोभनों को भी अंगूठा दिखाने में.