उत्तराखंड की यमुना घाटी में सुपिन नदी पर प्रस्तावित जखोल-साकरी जलविद्युत परियोजना (44 मेगावाट) की जनसुनवाई 12 जून, 2018 को घोषित होने के बाद लोगो को जानकारी न होने के कारण से रद्द करनी पड़ी थी। इसकी पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, पर्यावरण प्रबंधन योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट 650 पन्नों की हैं।
उत्तराखंड के कुमाउं क्षेत्र में प्रस्तावित पंचेश्वर बहुउद्देश्यी परियोजना के लिये 9 अगस्त 2017 को चम्पवात, 11 अगस्त 2017 को पिथौरागढ़ और 17 अगस्त 2017 को अल्मोड़ा जिले में साल के सर्वाधिक 277.7 मिलीमीटर बारिश वाले अगस्त महीने 2017 में जनसुनवाइयों का आयोजन किया गया। जबकि संबधित जिलों में बारिश के कारण विद्यालयों को बंद करने का जिलाधीश का कठोर आदेश था। किन्तु फिर भी वहंा भारी सुरक्षा बलों, सत्ताधारी दल के नेताओं व प्रशासनिक अमले के दवाब में तनावपूर्ण व असुरक्षित माहौल में, बंद सभागारों में प्रभावित गांवों से 30 से 45 किलोमीटर से दूर जनसुनवाइयां करवा ली गई। इसे प्रशासन ने जीत के रूप में दर्ज किया था।
ऐसी परिस्थिति सभी बांध परियोजनाओं की जनसुनवाइयों में रही है। तीन सितंबर 2005 में पाला मनेरी बांध भागीरथी नदी पर प्रस्तावित था जनसुनवाई आयोजित की गई थी। लोगों ने जनसुनवाई में जाकर अपना विरोध जताया कि उनको सभी कागजात हिंदी में मिलने चाहिए। तब से लगातार माटू जनसंगठन व अन्य स्थानीय संगठन व लोग उत्तराखंड में विभिन्न जनसुनवाइयों में इस मुद्दे को उठाते रहे हैं।
हिमाचल में भी सतलुज नदी, पार्वती नदी सैंज नदी पर बने बांधों की जनसुनवाइयों के उदाहरण भी सामने हैं। जनसुनवाइयों में लोगो ने यह मांग रखी कि उनको सब कागजात उनकी भाषा में देकर समझाये जायें।
बड़े बांध सहित सभी परियोजनाओं के लिये पर्यावरण स्वीकृति और वन स्वीकृति लेनी आवश्यक होती है। वन स्वीकृति के लिये लोगों से नही पूछा जाता है। पर्यावरण स्वीकृति के लिये ही जनसुनवाई का आयोजन होता है। सुनवाई एकमात्र वो खुला मंच होता है जहंा बांध प्रभावित अपनी बात कह सकते हैं। परियोजना का कोई भी स्थायी कार्य पर्यावरण स्वीकृति से पहले नही हो सकता हैं इसलिए सरकार व परियोजना प्रयोक्ता की किसी भी तरह से जनसुनवाई कि कागजी कार्यवाही पूरी करने की कोशिश होती है। प्रभावितों को कोरे लाभों के सपने दिखाकर किसी तरह पर्यावरण स्वीकृति प्राप्त कर लें और काम चालू कर लें फिर बाकी सब देखा जायेगा।
किसी भी परियोजना के बारे में प्रभावितों को संपूर्ण जानकारी मिलना बहुत आवश्यक है। ऐसा न होने से परियोजना के निर्माण में भी समस्या आती है और परियोजना निर्माण के बाद भी समस्याएं आती हैं। संभवत इसी कारण से 1994 में पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया चालू की गई। उसमें खास करके जनसुनवाई की प्रक्रिया को जोड़ा गया। पर्यावरण प्रभाव आकलन (ईआईए) 15 सितम्बर, नोटिफिकेशन 2006 में निकला जिसमें पर्यावरण प्रभाव आकलन व उसके प्रबंधन की योजना बनाने की प्रक्रिया की विस्तृत विवेचना की गई। इसमें भी कई बदलाव किए गये। इस प्रक्रिया को बनाने के कारण महत्वपूर्ण थे। आज टिहरी बांध की समस्याएं अभी तक नहीं सुलझी हैं क्योंकि लोगों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि बांध बनेगा तो क्या होगा देशभर में ऐसे हजारों बांध और अन्य विकास परियोजनाएं बनी है। जिनके बारे में स्थानीय लोगों को जानकारी पहले नहीं दी गई और नतीजे हुए पर्यावरण की बर्बादी और इससे प्रभावित लोगों को अनसुलझी समस्याएं सामने है। ऐसा सभी बांधों में है इसीलिये अनेको आंदोलनों के बाद पर्यावरण प्रभाव आकलन की प्रक्रिया चालू की गई थी।
पर्यावरण प्रभाव आकलन नोटिफिकेशन बनाने के पीछे शाब्दिक और आत्मिक उद्देश्य रहा है कि परियोजना के बाद आने वाली समस्याओं को पहले ही सुलझा लिया जाए। परियोजना के निर्माण में और परियोजना बनने के बाद पर्यावरण व प्रभावितों को समस्याओं का सामना न करना पड़े। ईआईए नोटिफिकेशन में जनसुनवाई का प्रावधान इसीलिए रखा गया था ताकि प्रभावित परियोजना को पूरी तरह समझ पाए।
मगर पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, पर्यावरण प्रबंधन योजना व सामाजिक आकलन रिपोर्ट सब कुछ अंग्रेजी में ही होता है। भारत सरकार बनाम विमल भाई व अन्य के केस में 7 फरवरी 2007 में राष्ट्रीय पर्यावरण अपीलीय प्राधिकरण के आदेश के बाद ग्राम स्तर पर पर्यावरण पर्यावरण प्रभाव आकलन रिपोर्ट, पर्यावरण प्रबंधन योजना आदि का जो संक्षिप्त रूप, स्थानीय भाषा में लोगों को दिया जाता है। किन्तु वह भी बहुत कमजोर होता है कि उसमें मात्र बांध के लाभ ही बताए जाते हैं, पूरी प्रक्रिया में बांधों के पूरे प्रभावों को छुपाया जाता है, बांध बनाने की आवश्यकता, देश को ज़रूरत, राज्य को मुफ्त बिजली, लोगों को बहुत सा रोज़गार, क्षेत्र में खुशहाली जैसी तथ्यहीन बातों को प्रचारित किया जाता है।
स्थानीय प्रभावितों को पूरी तरह विश्वास में तभी लिया जा सकता है जब उनको उनकी भाषा में इन कागजातों की पूरी जानकारी दी जाये और समझाई जाये। तभी वे अपनी सही राय जनसुनवाइयों में रख सकेंगे।
प्राय: बांध सहित बड़ी परियोजनाएं दूरस्थ इलाको में बनती है जहां आने जाने के लिए साधन नहीं होते, अखबारों के पहुंचने की तो बात ही नहीं होती। जनसुनवाई की सूचना मात्र औपचारिक रूप से किसी अखबार में एक छोटे से विज्ञापन के द्वारा दी जाती हैं। जो उस इलाके में पहुंचता भी नहीं है। सभी कागजात अंग्रेजी में होते हैं कागजातों का संक्षिप्त रूप ग्राम प्रधानों को दिया जाता है वह इस भाषा में होता है कि लोग उसको भी नहीं समझ पाते। पर्यावरणीय जन सुनवाई होती क्या है ? उसके असर क्या है? उसमें लोगों के अधिकार क्या हैं? यह बात प्रभावितों तक कभी नहीं बताई जाती है। मात्र नोटिफिकेशन 2006 के शब्दों का पालन कागजी रूप में किया जाता है। जिस कारण से लोग न तो परियोजना के बारे में जान पाते हैं न उसके अवसरों को समझ पाते हैं जिसका परिणाम वह आने वाले समय में लगातार झेलते हैं।
लोगों को उनकी भाषा में जानकारी उपलब्ध कराने से हुये लाभों का एक सकारात्मक उदाहरण हिमाचल के कुल्लू जिले में 2003 में अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पैसे से बनी एलाइन दुहंगन परियोजना है। जहां लोगो ने विरोध किया तो सभी कागजात लोगो को हिन्दी दिये गये तथा प्रभावितों को स्वतंत्र विशेषज्ञों द्वारा समझाये भी गये। इसके कारण प्रभावितों के अधिकार भी मजबूत हुये और पर्यावरण संरक्षण पर भी कई काम हो सके।
इस कारण आवश्यकता है पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना 2006 में इन बातों को शामिल किया जाये-
- पर्यावरण प्रभाव आकलन, समाजिक प्रभाव आकलन व प्रबंध योजना रिपोर्ट सरल स्थानीय भाषा में प्रभावितों को समझायी जाए जिसके लिए पर्यावरण सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाली निष्पक्ष संस्था को जिम्मेदारी दी जाए।
- पर्यावरण प्रभाव आकलन, समाजिक प्रभाव आकलन व प्रबंध योजना रिपोर्टे का संक्षिप्त रूप भी सरल स्थानीय भाषा में होना चाहिये।
- जन सुनवाइयों का समय स्थानीय मानसून को देखते हुये ही रखा जाये।
विकास की भाषा यदि भारत में आज भी अगर ऐसी रखी गई हो जिसे लोग समझ ही न पायें। तो ये हमारे लोकतंत्र को चलाने वालों पर बड़ा प्रश्न है। जब वोट हर भाषा में मंागे जाते है। तो फिर देश के विकास की भाषा भी लोगों की समझ वाली भाषा ही हो। जिससे वो
विकास की तस्वीर गढ़ सके, अपनी सही भागीदारी कर सकें।