जब बोफोर्स का जिन्न 25 साल बाद और ऑपरेशन वेस्टएंड (तहलका कांड) का 11 साल बाद बड़े धूम-धमाके के साथ बोतल से बाहर आ गया हो, संसद की कार्यवाही जोर-शोर से ज्यादा सिर्फ शोर से चल रही हो, माओवादियों ने कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों का अपहरण कर लिया हो और तहलका के संवाददाता हमेशा की तरह नई-नई स्टोरी करने के प्रस्ताव रख रहे हों तो ऐसे में सिनेमा पर विशेषांक के औचित्य को कैसे ठहराया जाए? कैसे खुद और पाठकों को यह समझाया जाए कि बॉलीवुड पर एक पूरा अंक निकालना तहलका जैसी एक खांटी समाचार पत्रिका के लिए जरूरी न भी हो तो कोई अजीब बात भी नहीं है.
मगर शायद ऐसा करना उतना मुश्किल भी नहीं. इस विशेषांक के औचित्य को एक ही मगर जरा से लंबे वाक्य में भी समझाया जा सकता है: जिस सिनेमा ने, जब भी हम इससे जुड़े, हमारे उस समय को एक उत्सव में बदल दिया क्या उसके सौंवें साल में प्रवेश करने का उत्सव मनाना किसी भी लिहाज से अनुपयुक्त माना जा सकता है? क्या ऐसा करना तहलका की हमेशा की राजनीतिक और कई तरह के गड़बड़झालों को उजागर करने वाली पत्रकारिता के मध्य उसी तरह की ठंडी बयार जैसा नहीं होगा जिस तरह की बयार बीच-बीच में फिल्में हमारे जीवन में लाती रही हैं? वैसे भी हमने अक्सर फिल्मों, फिल्मी सितारों और इस तरह की अन्य कहानियों के साथ अन्याय ही किया है: इस बार यह इतना महत्वपूर्ण घट गया इसलिए फिल्म वाली स्टोरी ड्रॉप कर दो; कोई अपनी फलाना कांड वाली स्टोरी पांच पेज में नहीं कर पा रहा तो दो पन्नों वाली फीचर स्टोरी को एक पेज का कर दो, फिर चाहे वह कितने ही सुंदर तरीके से लिखी और सहेजी क्यों न गई हो. इस तरह तो तहलका साहित्य, कला आदि से जुड़ा कोई भी विशेषांक निकालने की स्थिति में कभी भी नहीं होगा.
एक बार जब इस विशेषांक को लाने का फैसला हो गया तो इसे करना भी कुछ हटकर ही होगा. तो इस विशेषांक में कहीं-कहीं से भी इकट्ठा करके कुछ बेहद अद्भुत और दुर्लभ चीजों का संकलन किया गया है और उन्हें एक फिल्म के महत्वपूर्ण हिस्सों के छोटे-छोटे खंडों के रूप में सजाया गया है.
कहने का मतलब यह कि हमने इस अंक को एक फिल्म का स्वरूप देने जैसी एक अजीबोगरीब कोशिश की है और इसमें मौजूद सारी सामग्री को कुछ इस प्रकार से संयोजित किया है मानो वे किसी भारतीय फिल्म का हिस्सा हों. मसलन पत्रिका का कवर, कवर न होकर एक मसाला फिल्म के पोस्टर जैसा है और पत्रिका की शुरुआत (जो आप अभी पढ़ रहे हैं) एक सेंसर बोर्ड के प्रमाण पत्र सरीखी है. फिल्म रूपी इस पत्रिका में एक मध्यांतर भी है जो इसे दो भागों में विभाजित करता है. इसके अलावा इस फिल्म में कास्टिंग, क्लाइमैक्स और ट्रेलर भी आपको कमोबेश अपने सही स्थानों पर नजर आएंगे.
मगर इस ‘फिल्मी’ विशेषांक का असली नायक इसकी सामग्री ही है. इसमें कुछ बहुत बढि़या लेख, साक्षात्कार और ऐतिहासिक दस्तावेज हैं. इस अंक में अनुपम जी जैसे पर्यावरणविद, गांधीवादी और लेखक ने फिल्मों पर लिखा है. इसमें फिल्म संसार से जुड़े छत्तीसगढ़ के दो ऐसे महानुभावों के संस्मरण हैं जो सिनेमा के शुरुआती दिनों में बैलगाड़ी पर इसे गांव-गांव पहुंचाने का काम करते रहे. अंक में भारतीय सिनेमा के पितृ पुरुष दादा साहब फालके और राजकपूर, संजीव कुमार, किशोर कुमार जैसे महानायकों के विभिन्न फिल्मी पत्रिकाओं में समय-समय पर छपे लेख तो हैं ही साथ ही आमिर और शाहरुख, दो खान भी हैं.
हिंदी के वरिष्ठ फिल्म पत्रकार अजय ब्रह्मात्मज ने अपने संस्थान दैनिक जागरण से विशेष अनुमति लेकर इस आयोजन को अपना सहयोग दिया, उनका और उनके संस्थान का धन्यवाद.
पाठकों के पत्रों का इंतजार रहेगा, यह जानने के लिए कि हम अपने इस प्रयास में कितना असफल रहे.