काबुल में रह रही हफ़ीज़ा जान कहती हैं- ‘16 अगस्त की सुबह जब मैंने सुना कि दश्त-ए-बारची (जहाँ से तालिबान पश्चिम काबुल में दाख़िल हुए) पर तालिबानों का क़ब्ज़ा हो गया है, तो मेरा शरीर काँप गया। आँखों के सामने वह दृश्य तैर गया, जब सन् 2013 में बंदूकधारी तालिबानों ने मेरी इतनी पिटाई की थी और मैं मरते-मरते बमुश्किल बची। उसके बाद काबुल में हम औरतों के लिए काम कर रहे हिन्दुस्तानी सेवा संगठन के साथ मैं जुड़ी। कपड़े सिलने का काम सीखा और पैसा कमाकर अपना व परिवार का पेट पालने लगी। अब फिर मुझे अपनी और माँ की सुरक्षा की चिन्ता सताने लगी है। मेरी अल्लाह से दुआ है कि वह किसी ऐसी जगह पर जाने में मेरी मदद करे, जहाँ मैं आज़ादी से रह सकूँ। ‘सेवा’ नामक इस की मदद से मैंने जो काम सीखा है, उसे करते हुए अपनी ज़िन्दगी चला सकूँ।’
वह आगे कहती हैं-‘अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबानों के शासन का मतलब है कि काम के लिए अब मुझे अपने केंद्र पर नहीं जाने दिया जाएगा। काम नहीं करूँगी, तो परिवार को न तो खिला सकूँगी, न माँ के लिए दवा ला सकूँगी। यह सिर्फ़ मेरे साथ ही नहीं होगा। मेरे जैसी लाखों महिलाओं को अब तालिबानों के नियंत्रण में रहकर उनके दमन का सामना करना होगा।’
काबुल में ही रह रहीं सोसन ने बताया- ‘मैं अपने बच्चों को लेकर अपने माता-पिता के साथ रहती हूँ। मेरी कमायी से ही घर का ख़र्च चलता है। अभी यहाँ जो कुछ हो रहा है, उससे घबराकर मैं अपना सारा पैसा निकलवाने के लिए बैंक गयी। लेकिन वहाँ बैंक वालों ने कह दिया कि उनके पास देने के लिए पैसे नहीं हैं। बैंक ख़ाली हो चुका है। सुनते ही मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। यहाँ भविष्य बेहद असुरक्षित है। मैं अफ़ग़ानिस्तान छोडक़र किसी सुरक्षित जगह पर चली जाना चाहती हँू। सेवा ने मुझे आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा होना सिखाया है। मुझे भरोसा है कि मैं किसी भी दूसरी जगह जाकर इतना कमा लँूगी कि अपने परिवार को दो जून की रोटी खिला सकूँ। यहाँ मुझे और मेरे परिवार को ख़तरा है। हमें मदद चाहिए।’
हफ़ीज़ा और सोसन अफ़ग़ानिस्तान की ग़रीबी रेखा से नीचे के परिवारों की ऐसी महिलाएँ हैं, जो अकेले ही अपने-अपने परिजनों की देखभाल कर रही हैं। पिछले 40 साल से तालिबानों और विदेशी फ़ौजों के शिकंजे में फँसे इस देश का पुरुष वर्ग बड़ी संख्या में या तो गोलीबारी में मारा जा चुका है, या देश से बाहर चला गया है, या फिर उसने भी तालिबानी होकर हाथ में बंदूक थाम ली है। ऐसे में बड़ी संख्या में परिवार चलाने का ज़िम्मा औरतों पर आ चुका है। सन् 1995 में सत्ता में आये तालिबानों के पहले शासन के दौर के बाद सन् 2004 में जब हामिद करजई की सरकार बनी, तो औरतें बेहद बदतर हालत में थीं। वे न तो घर से बाहर निकल सकती थीं; न पढ़ सकती थीं और न रोज़गार के लिए कोई हुनर उनके पास था। लम्बे समय के बाद देश में निर्वाचित सरकार बनी और देश के पुनर्निर्माण का काम शुरू हुआ।
पुनर्निर्माण के इस काम में भारत भी आगे आया। आज हर तरफ़ भारत की ओर से वहाँ बनाये गये पुलों, अस्पतालों और स्कूलों की चर्चा तो हो रही है; लेकिन पर उस केंद्र की बात कोई नहीं कर रहा, जिस पर अब नहीं जा सकने की बात हफ़ीज़ा कर रही हैं। जिसका नाम है- सबाह बाग़-ए-ख़ज़ाना सोशल एसोसिएशन। काबुल स्थित यह केंद्र वहाँ की ऐसी बेबस, विधवा और असहाय महिलाओं का अपना केंद्र है, जहाँ वे एक साथ जमा होकर अलग-अलग तरह के हुनर सीखती और सिखाती हैं। अपने उत्पाद तैयार करती हैं और फिर उन्हें बाज़ार में बेचकर पैसे कमाकर अपने परिवार का पेट पालती हैं। इस केंद्र को बनाने का काम इन बहनों ने ख़ुद ही किया और आज उसे चला भी ख़ूद ही रही थीं। इसे बनाने और चलाने की हिम्मत और सलाहियत उन्हें सेवा से ही मिली। अहमदाबाद की स्वाश्रयिन (अपने भरोसे रहने वाली) महिलाओं के लिए संघ सेवा की स्थापना सन् 1972 में इला भट्ट ने स्वरोज़गार में लगी असंगठित क्षेत्र की कामगार महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए की थी। आज देश के 18 से अधिक राज्यों में इसके केंद्र 10 लाख से अधिक महिलाओं के परिवारों को ग़रीबी से बाहर निकालकर आत्मनिर्भर बनाने का काम कर रहे हैं।
इस संस्था की मौज़ूदा निदेशक रीमा नानावटी के अनुसार, सन् 2006 में प्रधानमंत्री कार्यालय से सेवा के पास एक पत्र आया। इसमें कहा गया था कि अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण कार्य के तहत भारत क़रीब 1,000 ग़रीब ग्रामीण महिलाओं को प्रशिक्षित करना चाहता है, ताकि वे अपनी आजीविका ख़ूद कमा सकें। क्या ‘सेवा’ इस काम से जुड़ सकता है? प्रस्ताव को स्वीकार करने से पहले सेवा ने काबुल में जाकर हालात का जायज़ा लिया। उसने पता लगाया कि वहाँ के स्थानीय संसाधन क्या हैं? और उनके आधार पर वहाँ की महिलाओं को किस-किस प्रकार के रोज़गार का प्रशिक्षण दिया जा सकता है? जिससे वे अपने ही स्थानीय संसाधनों को आधार बनाकर आर्थिक क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो सकें। हमें ऐसे तीन क्षेत्र समझ में आये- पहला, कपड़ों की सिलाई और कढ़ाई; क्योंकि वे कढ़ाई बहुत सुन्दर करती थीं। दूसरा, खाद्य प्रसंस्करण; क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान में फलों और मेवों का भण्डार है। और तीसरा, पौधों की नर्सरी; क्योंकि उत्सवों में वहाँ फूलों का जमकर उपयोग होता है। इन तीनों क्षेत्रों की बाज़ारी सम्भावनाओं का भी पता लगाया गया और यह भी कि क्या वहाँ कोई ऐसा संगठन है, जिसके साथ मिलकर यह काम किया जा सके? वहाँ से लौटकर रिपोर्ट सरकार को दे दी। उसके बाद काम शुरू हुआ। इसमें भारत सरकार, अफ़ग़ानिस्तान सरकार के महिला मंत्रालयों और सेवा संगठन, तीनों ने मिलकर काम किया और अभी तक कर रहे हैं।
ग़रीब अफ़ग़ानिस्तानी महिलाओं को रोज़गार प्रशिक्षण देने की इस साझा परियोजना के साथ शुरू से ही जुड़ी सेवा की तीन बहनों- मनीषा पंड्या, प्रतिभा पंड्या और मेघा देसाई के अनुसार, शुरू में वे काबुल में प्रशिक्षण देने गयीं। लेकिन जब बार-बार तालिबानों के हमले होने लगे, तो योग्य बहनों का चयन कर उन्हें अहमदाबाद के सेवा दफ़्तर में प्रशिक्षण दिया जाने लगा। तालिबानी हमलों ने उनके आत्मविश्वास को बुरी तरह तोड़ दिया था। वे बोल नहीं पाती थीं; लेकिन कुछ करना चाहती थीं। हमने सबसे पहले तो उनके आत्मविश्वास को लौटाया। फिर वस्त्र निर्माण, खाद्य प्रसंस्करण और पौधों की नर्सरी के क्षेत्र में मास्टर ट्रेनर्स तैयार किये। महिलाओं को सिखाया कि कैसे वे अपने शहर में जाकर प्रशिक्षण की इच्छुक महिलाओं को प्रशिक्षित कर उनका कौशल्य संवर्धन कर सकती हैं। काम के हुनर के साथ-साथ हमने इन तीनों बहनों को बाज़ार प्रबन्धन और अपने आसपास की स्थितियों को देखकर काम तथा बाज़ार की सम्भावनाओं का पता लगाने की क्षमता बढ़ाने का प्रशिक्षण भी दिया। शुरू के तीन साल तो तीन-तीन महीने के लिए सेवा दल (टीमें) एक के बाद एक लगातार वहाँ जाते रहे। वहाँ काम करना आसान नहीं था; लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। एक बार तो जहाँ हम ठहरी हुई थीं, वहीं पर बमों से हमला किया गया। प्रशिक्षण ले रही बहनों को भी धमकियाँ मिलती रहती थीं। ख़ुद महिलाओं की अपनी पारिवारिक और सामाजिक दिक़्क़तें थीं। तब हमने उनके पुरुषों को भी बैठकों में बुलाना शुरू किया। महिलाओं को समूहों में संगठित किया। फैक्ट्रियों में उन्हें काम नहीं मिलता था, तो उनके मालिकों से बात की। इन सब प्रयासों से उनकी आर्थिक, सामाजिक और मानसिक ताक़त काफ़ी बढ़ गयी। अब वे अपना रोज़गार भी करने लगीं। उन्होंने सबाह बाग़-ए-ख़ज़ाना सोशल एसोसिएशन को अपना केंद्र बना लिया। उनका सामान बाज़ार में ब्रांड के नाम से बिकने लगा। वे भारत में सेवा की व्यापार प्रदर्शनियों में भाग लेने लगीं। कमाने लगीं, तो घर के लोगों का विरोध बन्द हो गया। वे पढऩा-लिखना सीखने लगीं। बच्चों को स्कूल भेजने लगीं। ये सभी महिलाएँ ऐसी थीं, जिन पर उनके परिवार हर प्रकार से निर्भर थे। इनको आत्मनिर्भर होते देख वहाँ के महिला विकास मंत्रालय ने दूर-दराज़ के प्रान्तों में भी महिलाओं को प्रशिक्षण दिलवाने का फ़ैसला किया। सन् 2008 से लेकर इस साल 2021 तक सेवा काबुल शहर और पाँच प्रान्तों- मज़ार-ए-शरीफ़, हेरात, कंधार, बग़लान और परवान में 10,000 से ज़्यादा महिलाओं को आत्मनिर्भर बना चुकी है। 15 अगस्त तक सबाह केंद्र चल रहा था।
सेवा के अनुसार- ‘अभी अफ़ग़ानिस्तान के हालात के बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। महिलाएँ एक बार फिर अपने को उसी हालत में पा रही हैं, जिसमें वे सन् 2008 में थीं। उन्हें अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा है। फिर भी हम यही कह सकते हैं कि अपने को देश में असुरक्षित महसूस कर रही ये महिलाएँ जहाँ कहीं भी रहेंगी, अपना रोज़गार कर ही लेंगी। वे अन्दर से जागरूक हैं और हुनर का हौसला उनके पास है।’