सेवानिवृत्ति के पहले हुए फैसलों में एक यह इच्छा होती है कि सेवानिवृत्ति के बाद नौकरी हो… मेरी सलाह है कि सेवानिवृत्ति के दो साल बाद (नियुक्ति के पूर्व तक) दो साल का अंतर होना चाहिए क्योंकि सरकार सीधे या अपरोक्ष तौर पर अदालतों को प्रभावित कर सकती है और एक निष्पक्ष न्याय व्यवस्था का देश में सपना कभी पूरा नहीं हो पाता। अरूण जेटली 2012 में जब विपक्ष के नेता थे तो उन्होंने यह बात कही।
हालांकि उनकी अपनी सरकार के दौरान दो साल तक के अंतर रखने की बात उनकी ही सरकार के लोगों ने नहीं मानी। इस संबंध में पूरी छानबीन कर रहे हैं। चरणजीत आहुजा और वाई के कालिया-
इन दिनों बहस छिड़ी हुई है बार कौंसिल ऑफ इंडिया के अध्यक्ष मनन कुमार मिश्र की ओर से जारी एक प्रेस विज्ञप्ति पर सितंबर, 29, 2018 को बार कौंसिल ऑफ इंडिया, स्टेट बार कौंसिल हाईकोर्ट बार एसोसिएशन और बार एसोसिएशन की समन्वय समितियों की बैठक हुई थी। इस बैठक के बाद जारी प्रेस रिलीज पर अब अच्छा खासा हंगामा मचा है।
यह सब अकस्मात भी हो सकता है और सोच-समझ कर हुआ थी। कुछ दिन बाद ही भारत के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र अपने पद से सेवामुक्त होते हैं और नए न्यायाधीश रंजन गोगोई पदभार संभाल लेते हैं। लेकिन प्रस्ताव चंूकि देश की तमाम बार कौंसिल से आया है तो उसे नज़रअंदाज भी नहीं किया जा सकता।
यह विवाद अब खासा वजनदार है कि न्यायाधीशों ने संवेदनशील मामलों का निपटारा उन दिनों किया जब वे उम्र के दवाइलाइट दौर में थे। यह कहने या सलाह के नोट के पीछे रत्ती भर भी इरादा यह बताने का नहंी है कि उनके लिए फैसले गलत है या पक्षपातपूर्ण हैं। इसके पीछे सिर्फ यह तथ्य रखना है कि सेनानिवृत्ति के फौरन बाद हुए न्यायाधीशों की नियुक्ति से उन फैसलों की तटस्थत पर अंदेशा ज़रूर उठता है। भले ही वे कितने ही तटस्थ क्यों न रहे हों। कहा भी जाता है कि न्याय हुआ नहीं, बल्कि होता हुआ नज़र आना चाहिए।
बार कौंसिल ऑफ इंडिया के प्रस्ताव में है कि हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों को अपनी सेनानिवृत्ति के अगले दो साल तक कोई पद नहीं लेना चाहिए।
यह कहा जाता है कि हमारे लोकतंत्र मेें तटस्थ न्याय व्यवस्था की बात है। कोई भी किसी स्वस्थ और वाईबै्रंट लोकतंत्र की उम्मीद नहीं कर सकते यदि निष्पक्ष न्याय व्यवस्था न हो।
एक मज़बूत और तटस्थ न्याय व्यवस्था के बल पर ही एक निडर और मज़बूत बार भी टिक पाता है हालांकि जनता भी यह सोचने लगी है कि जज अपनी सेनानिवृत्ति के आखिरी दौर में सरकार से सेनानिवृत्ति के बाद के दौर मेेंं एसाइनमेंट जज अपनी सेनानिवृत्ति के बाद कोई ऐसा दायित्व है तो उस पर फिर उंगलियां उठने लगती हैं।
हितों का टकराव
ऐसे जज जो एयक्यूटिव के तहत चाकरी पाते हैं तब हितों का टकराव ज्य़ादा होता है। इससे हितों में टकराव की वजहें बढ़ती हैं। जनता का भरोसा भी फिर निष्पक्ष न्याय व्यवस्था से उठ जाता है। अभी हाल में जो मास्टर ऑफ दा पोस्टर केस का मामला उठा उसमें सुप्रीमकोर्ट ने यही दुहराया था कि न्याय की सबसे बड़ी पंूजी जनता की इससे आस्था हैं। यदि अदालत की साख ही जनता के दिमाग में खत्म हो जाएगी तो न्याय भी आजा़दी के लिए वह खासा खतरनाक होगा।
जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर जो सुप्रीमकोर्ट के पूर्व जज थे, उन्होंने सेनानिवृत्ति से पहले ही एक बयान जारी किया था कि सेनानिवृत्ति के बाद वे कोई सरकारी प्रस्ताव स्वीकार नहीं करेंगे। उनके बाद जस्टिस जे कूरियन जोसेफ ने भी वैसा ही एक बयान जारी किया।
बार कौंसिल ऑफ इंडिया ने कहा है कि देश का आज जो राजनीतिक परिदृश्य है उसमें जस्टिस जस्ती चेलमेश्वर और जस्टि कूरियन जोसेफ का रवैया काफी स्वास्थ्यपूर्ण और स्वागत लायक है। देश मेें अच्छे लोकतंत्र के लिए यह ज़रूरी है।
बार कौंसिल में प्रस्ताव मेें कहा गया है कि चीफ जस्टिस दीपक मिश्र लंबे अर्से से लोकतंत्रिक मूल्यों और न्यायिक आजा़दी के लिए संघर्षरत रहे हैं। हमें उम्मीद है कि वे न्याय में निष्पक्ष के लिए न्यायिक तरीकों और अपने तौर तरीकों से आगे भी लड़ते रहें। हमेें उम्मीद है कि दीपक मिश्र भी उसी तरह उस पहल में जान फंूकेंगे जिसकी पहल जस्टिस चेलमेश्वर ने ली थी। वे लोकतंत्र और न्यायव्यवस्था का भला ऐसा करके ही कर सकेंगे।
बार कौंसिल ऑफ इंडिया के अनुसार जस्टिस पी सत्यसिवम, पूर्व मुख्य न्यायाधीश पद से ही केरल के राज्यपाल बना दिए गए। इस पर काफी हंगामा भी रहा। सेनानिवृत्ति के बाद हुई ऐसी तमाम नियुक्तियों से न्यायाधीश पिछले फैसलों की निष्पक्षता पर सवालिया निशान उठते हैं। यह बहुत गंभीर मामला है। बार उम्मीद करती है कि सेवानिवृत्ति जज भी अपनी सेनानिवृत्ति के दो साल बाद ही किसी नए पद को स्वीकार करें।
प्रोप्रइटी फैक्टर
अभी हाल मेें तीन नियुक्तियां हुई जिनसे जज की प्रोपराइटी पर बहस छिडी। जुलाई में छह तारीख को जस्टिस एके गोयल को तो जज पद से सेवानिवृत्ति के दिन ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। जस्टिस आरके अग्रवाल ने नेशनल कन्ज्यूम रिड्रेसल कमीशन (एनसीडीआरसी) का अध्यक्ष मई महीने के आखिरी सप्ताह में बनाया गया। उन्हें सेनानिवृत्ति के कुछ ही दिनों बाद यह मौका मिला। सेवानिवृत्ति कुछ ही दिनों बाद जस्टिस ऐटनी डोमिनिक को केरल सरकार के मानवाधिकार आयोग में अध्यक्ष पद पर बिठा दिया गया। सेनानिवृत्ति के कुछ ही दिनों के अंतराल पर तीनों जजों को नियुक्ति दे दी गई। इन घटनाओं पर कुछ लोगों ने ज़रूर आपत्ति जताई। लेकिन इससे जाहिर है कि नियुक्ति के संबंध में काफी पहले ही फैसले ले लिए गए होंगे।
जस्टिस बी कमाल पाशा केरल हाईकोर्ट से इस साल के शुरू में सेवानिवृत्ति हुए थे। अपने विदाई भाषण में उन्होंने जो टिप्पणियां की उन्हें भुलना नहीं चाहिए। उन्होंने कहा जब एक जज रिटायर होते ही सरकार में नियुक्ति चाहता है तो वह इस स्थिति में नहीं होता कि सरकार से कोई नाराज़गी मोल ले। कोई नाराज़गी मोल ले। वह भी सेवानिवृत्ति के साल में। एक शिकायत जो सभी करते ही हैं कि ऐसे जज सरकार की निराश नहीं लेना चाहते। जस्टिस एसएच कपाडिया और जस्टिस टीएस ठाकुर ने कहा था कि किसी भी जज को सेनानिवृत्ति के तीन साल बाद तक किसी सरकार से नियुक्ति का प्रस्ताव नहीं लेना चाहिए।
‘कूलिंग ऑफÓ पीरियड किसी भी सेवानिवृत्ति जज के लिए ज़रूरी होना चाहिए। सेवानिवृत्ति जज लोधा ने यह तक कह दिया था कि वे खुद किसी सरकार से सेवा मुक्ति के दो साल की अवधि होने तक कोई लाभ सरकार से नहीं लेंगे। आज़ाद भारत में पहले लॉक कमीशन की अध्यक्षता एमसी सीतलबाड़ ने की थी। उनकी सिफारिशें थी कि ऊँची अदालत के किसी भी जज को सेवानिवृत्ति के बाद कोई सरकारी नौकरी नहीं लेनी चाहिए। इन जज को यह याद रखना चाहिए कि सेवानिवृत्ति के बाद भी उनका व्यवहार न्यायालय में भरोसा बनाए रखने के लिए आवश्यक है। इसके लिए संविधान में धारा 148 या 319 की ही तरह एक संशोधन करना चाहिए। एक विशेष कानून संसद में पास किए जाना चाहिए कि कोई सेवानिवृत्ति जज सेवानिवृत्ति के दो साल बाद तक नियुक्ति नहीं ले सकता।
दंग कर देने वाली संख्याएं
कानूनी संस्थान विधि सेंटर फार लीगल पालिसी के कराए एक अध्ययन के अनुसार सुप्रीमकोर्ट के सेवानिवृत्ति 100 जज में से 70 की नौकरी विभिन्न संगठनों मसलन नेशनल हय्मन राइटस कमीशन, नेशनल कंज्य़ूमर डिस्प्यूट रिड्रेसल कमीशन, आम्र्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल, लॉ कमीशन ऑफ इंडिया आदि हैं। यह रपट बताती है कि सभी नियुक्तियों में 56 फीसद नियुक्तियों का अध्ययन इसलिए ज़रूरी था क्योंकि ढांचागत समस्या थी।
देश के 44 मुख्य नयायाधीशों ने 1950 के बाद से सेनानिवृत्ति के बाद नौकरीयां हासिल कर ली। कुछ मामले तो ऐसे भी हैं कि सेनानिवृत्ति के चार महीने पहले ही नियुक्तियों दे दी गई।