सेना के बड़े तबके के अधिकारी छोटे देशों में जब अपने पद की महत्ता अपने अधिकार और अपनी ताकत का जायजा ले लेते हैं तो उनमें भी देश का राज-काज संभालने का जज़्बा उफान मारता है। देश जितना छोटा होगा उतने ही आसार होंगे सैनिक क्रांति के। यह बात एशिया, अफ्रीका में प्रमाणित भी है। बड़े देश मेें यह संभावना लगभग असंभव है क्योंकि सेना की परस्पर विरोधी इकाइयां साथ नहीं दे पातीं।
भारतीय उप महाद्वीप में पाकिस्तान में सेना तीन बार देश की बागडोर अपने हाथ में ले चुकी है लेकिन कुछ समय बाद देश और विदेश में जब लोकतंत्र की मांग बढ़ती है तो सेना की देखरेख में चुनाव होते हैं। अमूमन सैनिक समर्थक राजनेता ही सरकार चलाने का मौका पाते हैं। इस बार भी सेना की मर्जी से ही इमरान गद्दीनशीं हुए हैं। देश में आंतरिक सुरक्षा और विदेश नीति तो रहेगी सैनिक अधिकारियों के भरोसे। प्रधानमंत्री की जिम्मेदारी होनी कि वह देश में बिजली, पानी, स्वास्थ्य, सड़क, शिक्षा आदि से संबंधित विकास योजनाएं अमल मेें लाए। इससे जनता का आक्रोश सेना के जिम्मे नहीं आएगा और सेना अपनी जिम्मेदारी निभाती रहेगी। जाहिर है कि जब जनता की आकांक्षाएं पूरी नहीं होगी तो नए प्रधानमंत्री को लोकतंत्र के नाम पर लाने का सिलसिला चलता रहेगा।
पाकिस्तान की आज़ादी के भी लगभग 70 साल हो चुके हैं। इसमें सेना ने खुले तौर पर देश में राज किया। भारत में हुए मुंबई हमलों के बाद 2008 मेे जनरल कयानी ने चुनाव की घोषणा थी। सेना अपनी वह छवि सुधारेगी जो जनरल मुशर्रफ की सत्ता के दौरान पाकिस्तान की बनी। सेना ने फौरन यह दिखाया कि भारत हमलावर की हैसियत में हमेशा रहता है। इससे बचे रहना ज़रूरी है। पाकिस्तान में सेना ने 1990 के दशक में चुनी हुई सरकारों को किस तरह पदों से मुक्त किया। यह सभी जानते हैं।
पाकिस्तान में पीपुल्स पार्टी की सरकार थी। इसने एक कोशिश की आईएसआई को लोकतांत्रिक सरकार के सामने जवाबदेह बनाने की। सेना ने इसका खासा प्रतिवाद किया। इसके बाद ही अमेरिकी नेवी एसईएएल के जवानों ने 2011 में एबोटाबाद में ओसामा बिन लादेन को मार डाला। सेना की खासी बदनामी ‘मेमोगेट’ कांड से भी हुई जिसमें पाकिस्तान के तब के वाशिटंगन राजदूत हुसैन हक्कानी पर पाक सेना के खिलाफ अमेरिकी सेना के साथ सहयोग करने का आरोप लगा था।
पाकिस्तान की सेना के लिए भारत हमेशा एक चुनौती रहा है। नवाज शरीफ, जिया उल हक के जमाने मेें बने राजनीतिक थे। उनका और सेना के बीच विवाद 1997 से शुरू हुआ। तब वे बतौर प्रधानमंत्री दूसरी बार चुने गए थे। उन्होंने खुद जनरल परवेज मुशर्रफ को सेना का प्रमुख चुना। भारत के प्रति सेना उनके उदार रुख को पसंद नहीं कर पाती थीं। साथ ही लाहौर डिक्लैरेशन और कारगिल के मुद्दे यों भी नासूर ही थे।
जब 2013 में तीसरी बार नवाज शरीफ प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने मुशर्रफ पर मुकदमा चला कर सेना को एक झटका दिया। साथ ही सेना की अनुमति बगैर वे नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री होने के मौके पर नई दिल्ली पहुंच गए। उन्होंने बाद में सेना में जनरल अशफाक परवेज कयानी के उत्तराधिकारी जनरल रहील शरीफ को चुना। जनरल शरीफ ने इमरान की नुक्कड़ रैलियों का इस्तेमाल किया और राजनीतिक समाधान की बात की। दिसंबर 2014 में पेशावर आर्मी स्कूल पर हमला हुआ जिसमें एक सौ से ज्य़ादा बच्चे मारे गए। इस पर जनरल के हाथ बंध गए और उन्होंने वजीरिस्तान में आतंकवादियों पर कार्रवाई की। लेकिन 2016 में जनरल और शरीफ के बीच तलखी और बढ़ी। यह तभी से साफ हो गया कि सेना कतई इस पक्ष में नहीं है कि पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज) (पीएमएल (एन)) चुनाव जीते। डॉन दैनिक ने अक्तूबर 2016 में यह खबर दी थी कि नवाज शरीफ के भाई शहबाज शरीफ के साथ सिविल सरकार के सेना के बड़े अफसरों की बैठक हुई। इसमें शहबाज के जिहादियों के साथ सेना के संबंधों पर बातचीत हुई। यह दौर है जब उड़ी हमला हुआ था और भारत ने सर्जिकल स्ट्राइक की थी।
जब सुप्रीम कोर्ट ने पनामा पेपर्स के मामले में नवाज को अपराधी घोषित किया तो उन्होंने कहा कि न्यायिक क्रांति के जरिए सेना ने उनसे पीछा छुड़ा लिया है।
डॉन मीडिया समूह के सीईओ हमीद हारून ने बीबीसी को एक साक्षात्कार में कहा था कि सेना ने मीडिया समूहों पर व अदालतों पर भी दबाव बना रखा है। सोशल मीडिया के ब्लॉगर और कार्यकर्ता रहस्यमय तरीके से अचानक गुम हो रहे हैं। अभी हाल इस्लामाबाद हाईकार्ट के जज ने आरोप लगाया था कि आईएसआई ने मुख्य न्यायाधीश से कहा था कि नवाज और उनकी बेटी मरियम को चुनाव होने तक जेल में रखने का फैसला सुनाए। इंटरसर्विसज पब्लिक रिलेशंस के मेजर जनरल आसिफ गफूर ने जज के आरोप को निराधार बताया और सुप्रीम कोर्ट से छानबीन को कहा। उन्होंने कहा कि सेना सिर्फ कानून और व्यवस्था का पालन कर रही है। चुनाव में इसकी कोई भूमिका नहीं है।