मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ही आजाद भारत ने पहली बार सरकार और सेना के टकराव को इस स्तर पर देखा. हालांकि, इससे पहले भी कुछ मौकों पर सेना और सरकार आमने-सामने दिखे हैं, लेकिन ये टकराव कुछ व्यक्तिगत किस्म के और बहुत छोटे स्तर के थे. पहला मामला 50 के दशक के आखिरी दिनों का है. उस वक्त के सेनाध्यक्ष केएस थिमैया और रक्षा मंत्री वीके कृष्ण मेनन के बीच 1959 में टकराव इस कदर बढ़ा था कि सेनाध्यक्ष ने प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को अपना इस्तीफा सौंप दिया था. सरकार और नौ सेना 1998 में उस वक्त आमने-सामने दिखे जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी. नौसेना प्रमुख विष्णु भागवत ने सरकार के उस फैसले के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था जिसमें हरिंदर सिंह को नौ सेना का नंबर दो बनाने का फैसला किया गया था.
लेकिन हाल ही में सेवानिवृत्त हुए सेनाध्यक्ष वीके सिंह के मामले में जो कुछ हुआ वह न केवल सेना और सरकार के बीच का टकराव था बल्कि सरकार के अक्षम और गैरपेशेवराना रवैये से यह सेना के भीतर का भी टकराव बन गया. ऊपर से यह सब एक-दो दिन नहीं चला बल्कि कई महीनों तक इसकी चर्चा मीडिया और आम जनता के बीच होती रही. इस दौरान आज कैबिनेट में नंबर दो की हैसियत रखने वाले केंद्रीय रक्षा मंत्री इस मसले को निपटाने में बिलकुल अक्षम नजर आए.
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेना बेहद अहम होती है. जब भी कोई मुश्किल परिस्थिति आती है तो सेना को याद किया जाता है. यहां तक कि आपातकाल में भी सेना को विशेष अधिकार मिलता है. ऐसे में सरकार और सेना के बीच टकराव की नौबत क्या लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक नहीं है? सेना और सरकार के बीच टकराव के नतीजे क्या हो सकते हैं, इसे जानने के लिए हमें सिर्फ अपने पड़ोसी मुल्क को देखने भर की जरूरत है.