सन् 2008 में दुनिया में आयी आर्थिक मंदी के केंद्र में थीं चंद वित्तीय बैंक कम्पनियाँ। इनमें से ही एक बड़ी कम्पनी थी मेरिल लिंच। जब एक तरफ भीषण मंदी जारी ही थी, तो दूसरी तरफ मेरिल लिंच के सीईओ जॉन थेन अपने ऑफिस की सजावट पर लाखों डॉलर खर्च कर रहे थे। मंदी में भी विलास करने वालों में जॉन कोई अकेले नहीं थे। उसी साल सबसे बड़े डिफॉल्टर्स जैसे कि गोल्डमैन सैक्स आदि के सीईओ और शीर्ष प्रबन्धन ने खुद को न केवल शानदार वेतन दिया, बल्कि परफॉरमेंस बोनस यानी बढिय़ा काम करने के एवज़ में भारी-भरकम रकम भी अपनी जेब में डाली। दुनिया में आर्थिक मंदी लाने के लिए सीधे तौर पर ज़िम्मेदार ये लोग अपनी आय और खर्चों में तो ऐसे बर्ताव कर रहे थे, मानो कोई आर्थिक संकट आया ही न हो।
अब सीधे बीते साल 2020 के भारत में आ जाइए। यहाँ मोदी सरकार ने नोटबन्दी, जीएसटी, कॉर्पोरेट को ऋण माफी और बुलेट ट्रेन और ऊँची मूर्तियाँ आदि बनाने में फिज़ूल के निवेश करके गलत फैसलों की एक झड़ी लगा रखी थी, जिसके चलते अर्थ-व्यवस्था खस्ताहाल थी। बाकी कसर इस महामारी ने पूरी कर दी। और अब हालत ये है कि अर्थ-व्यवस्था आज़ादी के बाद से सबसे नाज़ुक स्थिति में पहुँच गयी है। ये संकट अभी जारी है और इसके लिए किसे ठहराया जाए? सन् 2008 के वित्तीय संकट की जो बात पहले कही गयी, उससे सिर्फ आज के हालात ही नहीं मिलते हैं, बल्कि इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों की प्रतिक्रिया भी काफी मिलती-जुलती है। अपना काम ठीक से करने में बुरी तरह विफल रहे वित्तीय बैंकों के उन शरारती अधिकारियों की तरह ही प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार ने अपने फैसलों और फैसले लेने के तरीकों से आर्थिक संकट को बढ़ाया ही है। और देखिये कि अब वे इसके एवज़ में खुद को क्या फिट कर रहे हैं- बिल्कुल नया, आलीशान कार्यालय…; ठीक उसी तरह, जैसे जॉन थेन ने किया था।
अब भारत के सम्माननीय लोग एकदम नयी और आधुनिक राजधानी का आनन्द लेने के लिए तैयार हैं; जिसका शाही स्वरूप ऐसा होगा कि इतिहास के सबसे अमीर महाराजा को भी ईष्र्या हो जाए। इस मायने में हमें इस बात से चौंकना नहीं चाहिए था कि जबकि सुप्रीम कोर्ट में इस प्रोजेक्ट की वैधता पर सुनवाई चल ही रही थी, तब प्रधानमंत्री, जो कि भारत के आधिकारिक मुखिया भी नहीं हैं; बल्कि नये संसद भवन के भूमि पूजन (एक पारम्परिक हिन्दू अनुष्ठान) में यजमान बनकर बैठे थे। इस अकेली घटना को ध्यान में रखकर, भारतीय लोकतंत्र के भविष्य को लेकर सबसे खराब दु:स्वप्न सोचे जा सकते हैं।
करीब एक साल पहले इस योजना के सार्वजनिक होने के बाद से यह भारत की ऐतिहासिक धरोहर को मिटाने और सार्वजनिक संसाधनों की फिज़ूलखर्ची के आरोप से घिरी रही थी और शिक्षाविदों, वास्तुकारों, नागरिक संगठनों ने इस प्रोजेक्ट की मंशा पर पैने सवाल उठाये थे। कई याचिकाकर्ताओं द्वारा आलोचना और चुनौती पेश किये जाने के बाद परियोजना को सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगित कर दिया था; लेकिन अब 2:1 के फैसले द्वारा काम शुरू करने की मंज़ूरी दे दी गयी है। सरकार की योजना साल 2022 में 75वें स्वतंत्रता दिवस पर नये संसद भवन का उद्घाटन करने की है। तब मौज़ूदा संसद भवन एक संग्रहालय में बदल जाएगा और राजपथ के आसपास की कई अन्य इमारतें, जिनमें से अधिकांश अभी 100 साल से भी कम पुरानी हैं, पूरी तरह से ध्वस्त कर दी जाएँगी। अच्छी-खासी इमारतों को गिराने और उन पर नयी इमारतें खड़ी करने की इस परियोजना की कुल लागत 20 हज़ार करोड़ रुपये आँकी जा रही है।
सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के लिए दिल्ली के मास्टर प्लान-2021 में भू-उपयोग बदलने में कथित तौर पर किसी तय प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। इस परियोजना को जल्दबाज़ी में प्रधानमंत्री द्वारा अनुमोदित किया गया है, और इसका डिजाइन वास्तुकार बिमल पटेल ने तैयार किया है, जिन्होंने पहले भी नरेंद्र मोदी की पसन्दीदा परियोजनाओं पर काम किया है, जैसे कि जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब अहमदाबाद में साबरमती रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के भी अगुआ बिमल पटेल ही थे। सर्वोच्च अदालत में याचिकाकर्ताओं ने भू-उपयोग को मनमाने तरीके से बदलने और प्रक्रिया का पालन न किये जाने की दलील दी थी, जिसमें खासतौर से डिजाइन को मंज़ूरी, बजट आवंटन को मंज़ूरी और पर्यावरणीय और स्थानीय निकायों फौरन अनुमति मिलना शामिल था। लेकिन इसे मानने से अदालत ने सीधे इन्कार कर दिया और डीडीए तथा केंद्र सरकार के कदम को कानून-संगत करार दिया।
तीन न्यायाधीशों की पीठ में से न्यायमूर्ति खन्ना ने असहमति में अपना अलग फैसला सुनाया, जिसे बारीकी से पढ़ा जाना चाहिए। न्यायमूर्ति संजीव खन्ना ने उचित परामर्श और पारदर्शिता की कमी पर प्रक्रियात्मक मुद्दों पर चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा- ‘योजना के बारे में पूरी जानकारी को ठीक से जनता के सामने पेश नहीं की गयी थी और अपनी आपत्ति दर्ज करने के लिए पर्याप्त मौका नहीं दिया गया था। चूँकि सेंट्रल विस्टा समिति (सीवीसी) का फैसला पहले ही तय था, तो इस तरह ये पूरी प्रक्रिया ही फिज़ूल रही।’ ‘बार एंड बेंच’ पर प्रकाशित सूचना के मुताबिक, जस्टिस खन्ना ने कहा- ‘मुझे… वैधानिक प्रावधानों की व्याख्या पर, सार्वजनिक भागीदारी के पहलुओं पर, विरासत संरक्षण समिति की पूर्व स्वीकृति लेने में विफलता और विशेषज्ञ द्वारा पारित आदेश मूल्यांकन समिति के फैसलों पर आपत्ति है।’
(स्रोत : विकिमीडिया कॉमस)