जटिलताओं की जमीन उत्तर प्रदेश का चुनाव अपने आखिरी पड़ाव की ओर है, लेकिन सियासी पंडित अभी भी किसी स्पष्ट नतीजे की घोषणा नहीं कर पा रहे हैं. इस असमंजस के वातावरण में छह मार्च को उभरने वाले संभावित समीकरणों की पड़ताल कर रहे हैं वरिष्ठ पत्रकार हेमंत तिवारी
उत्तर प्रदेश में अगली विधानसभा की सूरत क्या होगी, सियासत के इस लाख टके के सवाल का फिलहाल कोई मुफीद जवाब नहीं है. अरसे बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है जब चुनाव के पहले या चुनाव के दौरान सियासत का कोई भी पंडित दावे के साथ यह नहीं कह पा रहा कि लखनऊ की गद्दी फलां पार्टी संभालेगी. पांच साल पहले जब विधानसभा चुनाव पहले चरण में था तभी इस बात का इल्म होने लगा था कि मुलायम सिंह की विदाई हो रही है और मायावती आ रही हैं. लेकिन इस मर्तबा सियासी फिजा में सिर्फ कयास ही कयास हैं. पांच चरणों के चुनाव के बाद एक बात जरूर यकीन से कही जा सकती है कि नई विधानसभा की किस्मत में खंडित जनादेश है और कोई भी पार्टी अकेले दम पर सरकार बनाने की स्थिति में नहीं होगी. इस सूरत में चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार की सूरत क्या होगी? यह गठबंधन की होगी, किसी एक पार्टी की होगी या फिर सूबे में राष्ट्रपति शासन लगेगा? पांच चरण का चुनाव संपन्न हो जाने के बाद सूबे की जनता में इसी को लेकर सबसे ज्यादा चर्चा है.
देश की दो दिग्गज राजनीतिक पार्टियों के लिए यह चुनाव सत्ता की दौड़ में शामिल होने से कहीं ज्यादा दो साल बाद होने वाली दिल्ली की लड़ाई के लिए अपने कील-कांटे मजबूत करने का पूर्वाभ्यास है. केंद्र सरकार में शामिल सहयोगियों के चलते रोज-रोज की जिल्लत से निजात पाने के लिए कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में अपनी जमीन मजबूत करना नितांत जरूरी है तो दिल्ली की गद्दी पाने के लिए भारतीय जनता पार्टी के लिए भी हिंदी हृदय प्रदेश में अपनी स्थिति बेहतर करना जरूरी है. सपा और बसपा के लिए उत्तर प्रदेश में सत्ता पर कब्जा उनके अस्तित्व से जुड़ा प्रश्न है. इन दीर्घकालिक लक्ष्यों के साथ ही बड़े राष्ट्रीय दलों के लिए निकट भविष्य के तकाजे भी सूबे में सत्ता के नए समीकरण गढ़ने में अपनी भूमिका निभाएंगे.
सीन 1: सपा + (कांग्रेस+रालोद)
वस्तुतः 2014 के लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल कहे जा रहे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के पार्श्व में कई स्तरों पर लड़ाई चल रही है. मायावती किसी भी सूरत में सत्ता में बने रहना चाहती हैं तो पांच साल से सत्ता से बाहर रहे मुलायम सिंह यादव के सामने सियासी रसूख बचाए रखने का सवाल है. फिलहाल चुनाव के बाद के जिन राजनीतिक परिदृश्यों का आकलन आम-ओ-खास में चल रहा है उसके मुताबिक समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और राष्ट्रीय लोकदल के गठबंधन की सरकार बनने के ज्यादा आसार हैं. ऐसी सूरत में मुख्यमंत्री कौन होगा? यह प्रश्न सबसे महत्वपूर्ण है. पहले चरण के मतदान के एक हफ्ता पहले तक समूचे पूर्वांचल (पहले दो चरणों में इसी इलाके के चुनाव संपन्न हुए) में यह चर्चा जोरों पर थी कि अगली सरकार मुलायम सिंह की होगी, कांग्रेस और लोकदल उनका समर्थन करेंगे. मतदान के कुछ दिन पहले जब कांग्रेस नेतृत्व को इस बात का आभास होने लगा कि इस चर्चा से उसके कार्यकर्ताओं में हताशा फैल रही है और इसका सीधा मुनाफा समाजवादी पार्टी को हो रहा है तो पहले राहुल गांधी और बाद में दिग्विजय सिंह ने चुनावी सभाओं में कहना शुरू किया कि अगर हमें बहुमत नहीं मिला तो हम विपक्ष में बैठना पसंद करेंगे, किसी की सरकार नहीं बनवाएंगे. हालांकि दिग्विजय सिंह का हालिया रिकॉर्ड बयान देने और फिर मुकर जाने का रहा है.
कांग्रेस को भी अहसास है कि उसके पास सूबे की शीर्ष कुर्सी के लिए संख्याबल नहीं होगा फिर भी पार्टी की स्थिति ‘सूत न कपास, जुलाहों में लठ्ठम लठ्ठ’ जैसी है
दूसरी ओर पूर्वी व मध्य उत्तर प्रदेश के पांच चरणों के चुनाव देखने के बाद सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने भी अपना सुर बदला है. अब तक कांग्रेस के प्रति चुप्पी साधे रहे सपा प्रमुख ने कहना शुरू कर दिया है, ‘प्रदेश में कांग्रेस से न तो समर्थन लिया जाएगा और न ही दिया जाएगा. हम अपनी खुद की सरकार बनाएंगे.’ यहां यह बात गौर करने वाली है कि शुरुआती चार चरणों के मतदान में मुसलिम मतदाताओं का सपा के प्रति स्पष्ट रुझान दिखा है और इसका अहसास कहीं न कहीं कांग्रेस को भी है. स्पष्ट है कि जिस मुसलिम वोट बैंक को लेकर कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच लगातार तलवारें तनी हैं उसकी सपा के प्रति बढ़ती दिलचस्पी एक ऐसा सामान्य समीकरण है जो इन दोनों पार्टियों के हितों से जुड़ा हुआ है. ऐसी हालत में मिशन 2014 के तहत काम कर रहे राहुल औरर कांग्रेस के लिए कतई मुफीद नहीं होगा कि वे उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का मुख्यमंत्री बनाएं. चाहे वह मुलायम हों या फिर अखिलेश यादव, अखिलेश तो कतई नहीं. इसका एक कारण उनकी युवा छवि भी है जो राहुल से सीधे टकराती है ठीक उसी तरह जैसे मुसलिम वोटों के लिए कांग्रेस और सपा के हित टकरा रहे हैं. इन दोनों नेताओं की चुनावी सभाओं को देखने के बाद साफ तौर पर कहा जा सकता है कि एक खास वर्ग के मतदाताओं पर पकड़ के मामले में कोई किसी से कम नहीं है. इसका मतलब साफ है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस किसी भी सूरत में नहीं चाहेगी कि अखिलेश यादव का राजनीतिक कद एक हद से ऊपर जाए. जहां तक इस संभावित गठबंधन में कांग्रेसी मुख्यमंत्री की दावेदारी का प्रश्न है, सपा नेतृत्व संख्याबल के आधार पर इसे पहली ही निगाह में खारिज कर देगा. कांग्रेस नेतृत्व को भी इस बात का कायदे से अहसास है कि उसकी संख्या इस लायक नहीं होगी कि वह सूबे की शीर्ष कुर्सी के लिए दावा पेश कर सके. बावजूद इसके कांग्रेस की स्थिति ‘सूत न कपास, जुलाहों में लठ्ठम लठ्ठ’ जैसी है. बेनी प्रसाद वर्मा से लेकर श्रीप्रकाश जायसवाल तक आधा दर्जन ऐसे नेता हैं जो मुख्यमंत्री बनने का सपना संजोए हुए हैं. इस हालत में देखना दिलचस्प होगा कि दोनों पार्टियां कैसे तालमेल बैठाती हैं.
सीन 2: सपा + (कांग्रेस+रालोद) जयंत चौधरी मुख्यमंत्री
अगर उपर्युक्त स्थिति पैदा होती है तो प्रदेश में सबसे अविश्वसनीय समीकरण देखने को मिल सकता है. एक-दूसरे का मुख्यमंत्री स्वीकार्य न होने की हालत में कांग्रेस एक सुरक्षित राजनीतिक चाल चल सकती है. इसके तहत रालोद के युवा नेता और अजित सिंह के पुत्र जयंत चौधरी का नाम मुख्यमंत्री के लिए आगे कर सकती है. संसद सदस्य होने के बावजूद जयंत से विधानसभा का चुनाव लड़वाना कुछ हद तक इसी रणनीति का नतीजा है. कांग्रेस के राष्ट्रीय सचिव परवेज हाशमी यह बात जाने-अनजाने कह भी चुके हैं. दूसरी तरफ रालोद प्रमुख अजीत सिंह, जो कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार में नागरिक उड्डयन मंत्री हैं, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लगातार कह रहे हैं कि जयंत को लखनऊ पहुंचाना है. इस समीकरण के तहत कांग्रेस समाजवादी पार्टी को केंद्र सरकार में सम्मान के साथ शामिल करने और प्रदेश सरकार में संख्या बल के अनुरूप अधिक प्रतिनिधित्व देने का प्रस्ताव दे सकती है. कांग्रेस के इस प्रस्ताव को मुलायम सिंह यदि अस्वीकार करते हैं तो कांग्रेस नेतृत्व के पास राष्ट्रपति शासन लगाने का तार्किक बहाना होगा और जनता के सामने सफाई देने में भी आसानी रहेगी.
सीन 3: बसपा + भाजपा
तीसरा परिदृश्य जो चुनाव के बाद संभव है वह बसपा और भाजपा गठबंधन की सरकार का है. कांग्रेस और समाजवादी पार्टी चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान जिस तरह एक-दूसरे के साथ मिल कर सरकार बनाने की बात सिरे से खारिज कर रहे हैं ठीक उसी तरह बसपा और भाजपा भी सार्वजनिक रूप से एक-दूसरे के प्रति नापसंदगी जाहिर कर रहे हैं. भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री पद की दावेदार बताई जा रही उमा भारती तो ऐसी स्थिति में सरयू नदी में डूबने तक की बात कह रही हैं. मगर उत्तर प्रदेश का इतिहास ऐसे तमाम झूठों का गवाह रहा है. भाजपा और बसपा की पुरानी दोस्ती प्रदेश की जनता को कायदे से याद है. बसपा ने इस चुनाव में 85 मुसलिम उम्मीदवार उतारे हैं और पार्टी मुखिया को अच्छी तरह याद है कि भाजपा के साथ कथित भावी गठजोड़ की हवा फैला कर 2009 के लोकसभा चुनाव में उनका काफी नुकसान किया गया था. कल्याण सिंह के साथ से नाराज मुसलिम मतदाताओं ने इस चुनाव में न सिर्फ मायावती बल्कि मुलायम सिंह को भी झटका दिया था. लेकिन उत्तर प्रदेश की चाबी अपने हाथ में बचाए रखने के लिए बसपा भाजपा का साथ ले सकती है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है. यहां बसपा नेतृत्व यह भी देखेगा कि इस चुनाव में उसके कितने मुसलिम उम्मीदवार विधानसभा पहुंचते हैं.
उमा भारती भले ही बसपा से समझौता करने की बजाय सरयू में डूबने की बात कह रही हों मगर भाजपा और बसपा की पुरानी दोस्ती प्रदेश की जनता को याद है
सीन 4 : राष्ट्रपति शासन
राष्ट्रपति शासन वह विकल्प है जिसकी संभावना मौजूदा रुझान के मद्देनजर सबसे ज्यादा है. दिग्विजय सिंह अपने बयानों में इस विकल्प को बार-बार याद करते हैं. केंद्र में काबीना मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल दो बार यह कह कर पार्टी की फजीहत करवा चुके हैं कि पूर्ण बहुमत न मिलने की सूरत में उत्तर प्रदेश का रिमोट कंट्रोल कांग्रेस के हाथ में रहेगा. हालांकि उनके बयान से पूरी पार्टी ने खुद को अलग कर लिया है, लेकिन चुनाव के आखिरी चरण में कांग्रेसी नेताओं के ये बयान अनायास नहीं माने जा सकते. यह संकेत है कि पार्टी के अंदरखाने में राष्ट्रपति शासन को लेकर गंभीर विमर्श की स्थिति है और साथ ही कहीं न कहीं इस बात का अहसास भी कि वे उत्तर प्रदेश को जीतने नहीं जा रहे. सूबे का सियासी गणित बताता है कि बसपा और सपा के बीच ज्यादातर सीटों पर सीधी लड़ाई है और विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बनने की होड़ भी इन्हीं दोनों में है. देखना दिलचस्प होगा कि नंबर गेम में कौन-से संभावित गठबंधन के आंकड़े फिट बैठते हैं. यदि सपा, कांग्रेस और रालोद का पूरा आंकड़ा 200 पार नहीं करता या फिर यही स्थिति बसपा और भाजपा को मिला कर बनती है तो स्पष्ट तौर पर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन ही एकमात्र विकल्प होगा. इतना ही नहीं, यदि भाजपा और बसपा की कुल विधायक संख्या 200 पार हो जाती है तब भी तुरंत सरकार बनने की स्थिति तय नहीं है. इस सूरत में भी एक बार फिर से विकल्प राष्ट्रपति शासन ही होगा, थोड़े समय के लिए ही सही.
महत्वपूर्ण कारक
कुछ और भी सामयिक राजनीतिक कारण उपज रहे हैं जो उत्तर प्रदेश में चुनाव बाद की स्थितियों को सीधे तौर पर प्रभावित करने वाले हैं. उत्तर प्रदेश में राज्यसभा की 10 सीटों पर चुनाव आने वाले अप्रैल में होने हैं. इसके तुरंत बाद देश के सबसे बड़े संवैधानिक पद राष्ट्रपति का चुनाव भी होना है. राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल का कार्यकाल इसी वर्ष जुलाई में समाप्त हो रहा है और ये दोनों ही चुनाव सूबे के राजनीतिक वातावरण को प्रभावित करेंगे. राष्ट्रपति के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा को उत्तर प्रदेश में दोनों प्रमुख पार्टियों यानी सपा और बसपा के सहयोग की जरूरत पड़ेगी. ऐसे में प्रदेश में सरकार बनाने की दृष्टि से भी एक के साथ एक का पाला खिंचना स्वाभाविक है. यहां भी भाजपा के साथ बसपा की नजदीकी ज्यादा स्वाभाविक है, जबकि कांग्रेस इन दोनों स्थितियों से पार पाने के लिए राष्ट्रपति शासन को सबसे ऊपर तरजीह देगी. वैसे यह सारी कवायद और गुणा-गणित तब तक कोई मायने नहीं रखते जब तक चुनाव के साफ नतीजे नहीं आ जाते हैं.
उत्तराखंड विधानसभा चुनाव के नतीजे भी कुछ नए समीकरण बना सकते हैं. जब से उत्तराखंड राज्य बना है, पांच साल बाद वहां सरकारें बदली हैं. लेकिन इस बार वहां भी खंडित जनादेश के आसार नजर आते हैं. भाजपा और कांग्रेस की सीटों में यदि ज्यादा फर्क नहीं होता है तो वहां भी बसपा की भूमिका बन सकती है. उत्तराखंड के मैदानी हिस्सों में बसपा का असर है और यहां उसे पहले सीटें मिलती रही हैं. बड़ी पार्टियों की सीटों की कमी की स्थिति में बसपा वहां महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है. लखनऊ में भाजपा-बसपा के गठजोड़ पर उत्तराखंड के नतीजों की भी छाया पड़ेगी. वैसे भी राजनीतिक सौदेबाजी में मायावती का रिकॉर्ड पुराना है और यदि परिस्थितियां बनीं तो उत्तराखंड में वे भाजपा की सरकार बनवा कर उत्तर प्रदेश में उसकी कीमत वसूलने से नहीं चूकेंगी.