भारत के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था- ‘तीसरा विश्व युद्ध पानी को लेकर होने की सम्भावना है। पर हम प्रयास करें कि वह भारत में न हो।’ अनेक विद्वान भी पानी को लेकर तीसरे विश्व युद्ध की भविष्यवाणी कर चुके हैं। इसलिए बेवजह अनाप-शनाप पानी बहाने वाले लोगों को यह ज़रूर समझना और जानना चाहिए कि यह भविष्यवाणी लोगों ने यूँ ही अकारण नहीं कर दी, बल्कि इसके पीछे वो आँकड़े हैं; जो न केवल हमें चौंकाते हैं, बल्कि चिन्ता में भी डालते हैं। हममें से अधिकतर लोग नहीं जानते कि नदियों को हमारे पूर्वज कितने तप से धरा पर लाये और उन्हें कितनी कुर्बानियाँ देकर भी ज़िन्दा रखा, उनके अस्तित्व को बचाने के लिए बहुत-से नुकसान उठाये। हमारी संस्कृति में नदियाँ, तालाब, कुएँ, बावडिय़ाँ और जल श्रोत पूजनीय, जन-समाज की आस्था का केंद्र थे और इसीलिए इन्हें जीवंत रखने में सभी की सहभागिता थी। लेकिन ओछे ज्ञान, जीने की अकड़, जागरूकता के अभाव, अन्धी-आस्था, आधुनिकता की होड़ और सरकारों की उदासीनता के कारण आज हमारा जनमानस जल-श्रोतों से दूर है; इनके प्रति उदासीन है और उन्हें प्रदूषित कर रहा है। जीवनदायी जल को व्यर्थ में बहाता लापरवाह मनुष्य पीने वाले जल की समाप्ति की भयावहता से अनभिज्ञ है। हमारे ही देश में अब भी सैकड़ों ऐसे गाँव हैं, जहाँ पानी की बूँद-बूँद की कीमत वहाँ के लोग अच्छी तरह जानते हैं। कुल मिलाकर अगर हम सब आज जल संरक्षण के प्रति सचेत नहीं हुए, तो निश्चित ही आने वाले समय में मनुष्य जाति बूँद-बूँद पानी के लिए तरसेगी, आपस में लड़ेगी-मरेगी।
सनातन वैदिक भारतीय संस्कृति के अनेक ग्रन्थों में जल की विभीषिका का वर्णन मिलता है। सतयुग, त्रेता, द्वापर की अनेक घटनाएँ तो प्रमाण ही हैं; परन्तु वर्तमान कलियुग में प्रत्यक्ष सुनने और देखने के बाद प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। दुनिया भर के अलावा भारत के अनेक इलाकों में हर साल पीने योग्य पानी के बिना अकाल-दुर्भिक्ष से तो लोग अभिशप्त हैं और मौत के डर से अपनी जन्मभूमि से पलायन करने के लिए भी मजबूर हो रहे हैं। दुनिया के कई देश पानी की कमी से जूझ रहे हैं और कई शहर खाली हो रहे हैं। जल के बिना सामाजिक और आर्थिक ताना-बाना भी तब टूटता नज़र आ रहा है। जल ही जीवन है। जल में अमृत है, ऊर्जा है, सिद्धि है, गति है, बीमारियों से लडऩे की क्षमता है, वायु को शुद्ध करने की क्षमता है। मानवता के हित में नि:शुल्क पानी पिलाने वाले भारत में नदियाँ बेचना, जल का बाज़ारीकरण समस्या का समाधान नहीं है। बोतल बन्द पानी 15 रुपये से 150 रुपये लीटर तक बिक रहा है। आने वाले समय में इसका कारोबार 160 बिलियन को छू जाने वाला है। गरीब पानी कहाँ से पीयेगा, किसान कहाँ से खेत को पानी देगा? ये बड़े ज्वलंत प्रश्न हैं। बाँधों में नदियों को बाँधकर जल को अपने अधीन करने का कार्य हो रहा है, तो किसान को खेती के लिए पानी कहाँ से मिलेगा? भू-जल कहाँ से रिचार्ज होगा और कृषि प्रधान भारत का किसान पानी के बिना खेत छोड़ देगा, गाँव छोड़ देगा या फिर पानी को गहरे बोर करके प्राप्त करेगा, जिससे खेती-किसानी महँगी तो होगी ही, साथ ही लगातार गिरता भू-जल का स्तर निरंतर और गिरता चला जाएगा। इससे बोर का खर्च और बढ़ेगा, जो कि लम्बे समय तक चल भी नहीं पाएगा। यही नहीं, कम भूमि का छोटा किसान पानी की कमी और महँगी, खर्चीली खेती के कारण स्वत: ही समाप्त हो जाएगा और अन्न देने वाला खुद ही दाने-दाने का मोहताज हो जाएगा।
विकट जलस्रोत, लेकिन लोग प्यासे
वर्तमान में मध्य भारत का सूखाग्रस्त बुंदेलखण्ड ऐसा क्षेत्र है, जहाँ सूखे के दौरान सरकारों ने मालगाड़ी के ज़रिये पीने का पानी भिजवाया। यह ऐसा स्थान जहाँ, जल संसाधनों की प्रचुरता है और कभी यहाँ पानी की मात्रा प्रचुर थी। करीब 35 छोटी-बड़ी नदियाँ यहाँ हैं, जिनमें पाँच बड़ी और 30 प्रदेश स्तर की हैं। इतना ही नहीं, यहाँ करीब 125 छोटे-बड़े बाँध हैं, 27,000 तालाब हैं, 52,000 कुएँ, 300 नाले, 150 बावडिय़ाँ और चंदेल, बुंदेल राजाओं द्वारा स्थापित लगभग 51 परम्परागत और प्राकृतिक जल संसाधन और अनुसंधान केंद्र हैं। एशिया की सबसे बड़ी ग्रामीण पेयजल योजना पाठा चित्रकूट बुंदेलखण्ड में ही है। केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जल की तमाम योजनाओं में अरबों रुपये खर्च करने के बावजूद भी बुंदेलखण्ड आज प्यासा क्यों है? आखिर यहाँ मालगाड़ी से पानी भेजने की नौबत क्यों आयी? क्या कारण रहा है कि सरकारों के अनेक प्रयासों के बावजूद भी समस्या ज्यों-की-त्यों बनी रही। सरकारों ने अपना काम किया, लेकिन जिनके लिए काम किया, उस समाज ने उन कामों के प्रति क्या ज़िम्मेदारी दिखायी? भू-जल संरक्षण करना सरकार का नहीं, समाज का काम है। लेकिन सरकार के कार्यों में उन्होंने क्या सहयोग किया? क्या केवल भोगी बनकर उपभोग किया और उपलब्ध कराये गये संसाधनों का दोहन करके सरकारों के भरोसे छोड़ दिया? सवाल यह है कि हम दिये गये संसाधनों से समस्या का स्थायी समाधान निकालकर गाँव, शहर प्रदेश और देश की उन्नति में सहायक बने अथवा नहीं? शायद नहीं। वहीं सरकारों ने भी इस बारे में बेहतर तरीके से नहीं सोचा। क्योंकि यदि ऐसा पुरानी सरकारें सोचतीं, तो सरकार को बुंदेलखण्ड में पीने का पानी मालगाड़ी से नहीं भेजना पड़ता। पानीदार बुंदेलखण्ड फिर से पानी के लिए आत्मनिर्भर होता, स्वावलंबी होता। इन तमाम घटनाओं के बावजूद इनका उपाय अँधेरा-अँधेरा कह देने की बजाय एक छोटा-सा दीपक लेकर उजाला करने में छुपा है।
उमाशंकर ने कर दिखाया कमाल
दृढ़ संकल्पित उमाशंकर पांडे के नेतृत्व में बुंदेलखण्ड के बांदा ज़िले के जखनी गाँव के लोगों ने अपना भरोसा जगाया। अपनी परम्परागत खेती-किसानी का सहारा लिया और बिना किसी सरकारी सहायता, संसाधन के गाँव के बच्चे, बुजुर्ग, जवान स्त्री-पुरुष सभी ने गाँव के जल देव को जगाया। इन लोगों ने अपने गाँव के लिए, अपनी आने वाली पीढयि़ों के लिए सामुदायिक आधार पर फावड़े, कस्सी, डलिया, टोकरा लेकर परम्परागत तरीके से बिना किसी आधुनिक मशीनी-तकनीकी के पानी रोकने का बंदोबस्त किया। सब समझ चुके थे कि पानी बनाया नहीं जा सकता, न ही बादलों को लाकर अपनी इच्छा से बरसाया जा सकता है, लेकिन प्रकृति द्वारा दिए पानी को रोककर पानी की फसल को बोया जा सकता है, संरक्षण से पानी बचाया जा सकता है।
किस तरह किया काम
उमाशंकर ने ग्रामीणों के साथ मिलकर पूरे गाँव ने खेतों की मेड़बन्दी की और पानी की फसल बोने का पुरखों का मन्त्र सिद्ध किया। मेडबन्दी के बाद अब बारी थी कि जल की निरंतर प्राप्ति के लिए पानी की फसल कैसे बोयी जाए, कैसे पानी की खेती की जाए। जिसके लिए उमाशंकर ने समुदाय के साथ गाँव के पानी का मैनेजमेंट किया, गाँव के तालाबों को पुनर्जीवित करवाया राज समाज सरकार को साथ लिया और खेतों की मेड़ से निकलने वाले अतिरिक्त पानी और गाँव के बचे पानी का रुख तालाबों की ओर मोड़ दिया। यानी खेत का पानी खेत में, गाँव का पानी, गाँव में…। गज़ब की सोच! पहली बारिश होते ही वर्षा की बूँदें जहाँ गिरीं, वही उन्हें रोककर संचित किया। ऊँची मेड़ों के कारण ज़मीन ने जी भरकर पानी पीया। खेतों का पेट भरने के बाद बाहर निकलते पानी ने तालाबों का रुख किया। तालाब पानी से भरने लगे। गाँव के सभी छ:-के-छ: तालाब पानी से लबालब भर गये। यही नहीं, तालाबों के भरने से गाँव के 30 कुएँ भी अपना यौवन दिखाने लगे और कुओं का जलस्तर भी 15 से 20 फीट पर पहुँच गया।
मेड़-मेड़ पर पेड़
गाँव वालों का हौसला बढ़ा, तो काम यहीं नहीं रुका। उन्होंने मेड़-मेड़ पर पोधरोपड़ का काम शुरू कर दिया। लहलहाती फसलों के बीच धीरे-धीरे पेड़ झूमने लगे। मानों कह रहे हों कि अब बादलों से पानी लाने का काम हमारा और उसे रोकने का काम तुम्हारा।
संघर्ष की लम्बी दास्ताँ
इस गाँव को खुशहाल बनाने के लिए उमाशंकर पांडे को पूरे गाँव के साथ लम्बा संघर्ष करना पड़ा। और आखिरकार सूखे बुंदेलखण्ड में लगातार 21 वर्षों की मेहनत रंग लायी। इस जखनी गाँव में कभी खेती नहीं हो पाती थी; लेकिन आज इस गाँव में रिकॉर्ड फसल उत्पादन होता है। पिछले वर्ष ही जखनी के किसानों ने 21,000 कुंतल बासमती धान और 13,000 कुंतल गेहूँ का उत्पादन किया।
इस तरह गेहूँ, धान, चना, तिलहन, दलहन के साथ-साथ सब्ज़ी, दूध और मछली पालन से जखनी के किसान अब समृद्ध और साधन-सम्पन्न होने लगे हैं। यहाँ तक कि चार बीघे के छोटे-से-छोटे किसान के पास भी आज अपना ट्रैक्टर है, वह भी बिना किसी कर्ज़ के।
खेती से जुड़ गये उच्च डिग्रीधारी युवा
20 साल पहले जखनी गाँव बांदा ज़िले का सबसे गरीब गाँव था। यहाँ का एक भी नौजवान गाँव में नहीं था। वर्तमान में 99 फीसदी नौजवान, जो कभी पलायन कर गये थे; वापस आ गये हैं और अपनी परम्परागत खेती करने लगे हैं। इन किसानों में अधिकांश युवा हैं। कोई एम.काम., कोई एम.एससी., कोई पी.एचडी. कोई वी.टेक., कोई एम.एड, कोई बी.एड, तो कोई एल.एल.बी. है। उच्च शिक्षा की डिग्री लेकर शहरों की नौकरी छोड़कर गाँव में खेती कर रहे हैं। आज जखनी गाँव प्रदेश का सबसे सम्पन्न गाँव माना जाता है।
मंडियों में जखनी के खाद्यान्न की बढ़ी माँग
सामुदायिक आधार पर चला यह सिलसिला यहीं नहीं रुका, गल्ला मंडियों में जखनी के किसानों के धान को अधिक मूल्य और सम्मान मिला, तो सब्ज़ी मंडी में भिंडी, बेंगन, प्याज, टमाटर की सर्वाधिक माँग होने लगी। इससे प्रभावित होकर आसपास के लगभग 50 गाँवों के सैकड़ों किसानों ने भी जखनी की तरह खेती करने का संकल्प लिया और उन्होंने हज़ारों बीघा ज़मीन की अपने संसाधनों से मेड़बन्दी कर दी और यहीं से जलग्राम जखनी की जलक्रान्ति सूखे बुंदेलखण्ड में फैलने लगी। गाँव से पलायन कर गये नौजवान अपने खेतों में बिना मज़दूरों के स्वयं काम करने लगे। तालाबों में मछली पालन, दुग्ध उत्पादन और कृषि आधारित रोज़गारों से गाँव खुशहाल होने के साथ-साथ स्वावलंबी बनने लगा। पिछले पाँच वर्षों एक मीटर 34 सेंटीमीटर ज़िले का भू-जलस्तर बढ़ा है। ऐसी रिपोर्ट माइनर एजुकेशन डिपार्टमेंट, उत्तर प्रदेश ने दी है। आज सरकार सूखे बुंदेलखण्ड के चित्रकूट, महोबा, हमीरपुर, जालौन, झाँसी, छतरपुर में सरकारी धान खरीद सेंटर बनाकर धान खरीद रही है। अब यहाँ पानी की वजह से लाखों कुंतल धान पैदा होता है। कृषि विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 वर्षों में किसानों ने फसल बोने का रकबा बुंदेलखण्ड में मेड़बन्दी करके तीन लाख हेक्टेयर से अधिक बढ़ाया है। आज बुंदेलखण्ड आत्मनिर्भर हो रहा है। यहाँ के किसानों की अपनी मेहनत की वजह से केंद्र सरकार और राज्य सरकारें उनके साथ खड़ी हैं।
जखनी को मिली जलग्राम की मान्यता
बिना किसी सरकारी सहयोग के सामुदायिक आधार पर आस-पास के गाँवों में फैलती इस जलक्रान्ति की बोछार जब सरकार तक पहुँची, तो किसानों के लिए चिन्तित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चिन्तन को जखनी की जलक्रान्ति ने गति दी। उन्होंने तुरन्त देश भर के सरपंचों को मेड़बन्दी सहित परम्परागत तरीके से जल संरक्षण के लिए पत्र लिखा इस पर पहल की। जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के निर्देशन पर जलशक्ति मंत्रालय के अधिकारियों ने जखनी का रुख किया। जल सचिव यू.पी. सिंह खुद जखनी के खेतों में आकर किसानों से मिले, उनके कार्य और परिणाम को देखा और तमाम भागदौड़ के बाद सरकार के जलक्रान्ति अभियान के अंतर्गत ग्राम जखनी को सम्पूर्ण भारत के लिए जलग्राम की मान्यता मिली। प्रत्येक ज़िले में जखनी मॉडल पर जलग्राम के लिए दो गाँव चुने गये। वर्तमान में जलक्रान्ति अभियान के अंतर्गत जलशक्ति मंत्रालय ने जखनी मॉडल पर जलग्राम बनाने के लिए देश के 1050 गाँवों की सूची तैयार की है, जो मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध है।
तकनीक को समझने के लिए आने लगे देश-विदेश से विशेषज्ञ
बिना किसी सरकारी सहायता, बिना किसी आधुनिक मशीनी प्रशिक्षण व नवीन ज्ञान तकनीकी के ऋषि-मुनि प्रदत्त खेती-किसानी के परम्परागत तरीकों से केवल सामुदायिक आधार पर उमाशंकर के गाँव जखनी ने सिद्ध कर दिया कि वातानुकूलित कमरों में बैठने से जल की समस्या का समाधान नहीं हो सकता। इसके लिए जनमानस को स्वयं ही जागना होगा। अपने जलाश्य की सुध लेनी होगी और जलाश्य पर बैठकर ही जल का हल निकालना होगा। जखनी से निकली छोटी-सी जल मशाल आज सम्पूर्ण भारत में सामुदायिक प्रयास से जल संरक्षण की चर्चा विश्व स्तर पर होने लगी है। जल संरक्षण की इस तकनीक को जानने, समझने के लिए देश विदेश के जल विशेषज्ञ, सरकार की विशेषज्ञ समिति, 2030 वल्र्ड वाटर रिसोर्स ग्रुप, कृषि प्राद्योगिक विश्वविद्यालय, केंद्रीय भूजल बोर्ड, जल जीवन मिशन (उत्तर प्रदेश), जल संसाधन विभाग के वरिष्ठ अधिकारी, जल वैज्ञानिक, छात्र लगातार जखनी पहुँच रहे हैं; शोध कर रहे हैं। उन किसानों के कार्य पर, जिनके पास कोई डिग्री नहीं, कोई सर्टिफिकेट नहीं; यहाँ तक की शिक्षा का कोई आधारभूत ज्ञान नहीं।
पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से मिली थी प्रेरणा
15 साल पहले पूर्व राष्ट्रपति स्व. अब्दुल कलाम आज़ाद की प्रेरणा और आह्वान से उमाशंकर पांडे ने अपने गाँव को जलग्राम बनाने का संकल्प लिया था। तब साधारण-से दिखने वाले उमाशंकर के संकल्प से लोग अचम्भित थे और सशंकित भी, कि बिना किसी संसाधन और सरकारी सहायता के गाँव का सीधा-सादा किसान कैसे सूखाग्रस्त गाँव को पानीदार बनाएगा? कैसे राष्ट्रपति जी के जलग्राम स्वप्न को पूरा करेगा? कैसे अपने गाँव को पानी की समस्या से उबारेगा? कैसे उमाशंकर की परम्परागत भूजल संरक्षण तकनीक पूरे देश को पानीदार बनाने की दिशा देगी? लेकिन भूजल विशेषज्ञ अविनाश मिश्र की परम्परागत सामुदायिक तकनीक और आचार्य विनोबा भावे के भूदान यज्ञ से मेड़बन्दी यज्ञ की शुरुआत से स्वावलंबन का मंत्र लेकर उमाशंकर पांडे ने जखनी गाँव को जलग्राम बनाकर वह संकल्प पूरा किया। किसी ने नहीं सोचा था कि आने वाले समय में देश के अनेक गाँव जखनी की तर्ज पर जल संरक्षण के परम्परागत तरीके प्रयोग में ला रहे होंगे। लेकिन आज ऐसा हो रहा है।
भले ही कोई डिग्री धारक पढ़ा-लिखा अनुसंधानकर्ता जल संरक्षण के मामले में अधिक शिक्षित हो; लेकिन भारत के अनपढ़ किसानों ने सिद्ध कर दिया कि जल हमारे अपने पुरुषार्थ से ही बच पाएगा। बिना किसी सरकारी सहायता के सामुदायिक आधार पर समाज को फिर से आगे आकर आस्था और संकल्प के साथ अपनी ऋषि आधारित परम्परागत खेती-किसानी से ही जल को बचाना होगा और गाँव-गाँव को जल-स्वावलंबी बनाना होगा। वर्षा बूँदे जहाँ गिरें, वही रोकना होगा। बड़ी बात है कि जलग्राम जखनी के इन योद्धाओं ने न तो कोई सरकार से पुरस्कार के लिए आवेदन किया, न ही सरकारी अनुदान के लिए आवेदन किया और न ही अपमान से डरे। और जीत का नतीजा यह हुआ कि नीति आयोग ने देश की सबसे महत्त्वपूर्ण वाटर मैनेजमेंट रिपोर्ट-2019 में जखनी गाँव को देश का आदर्श गाँव माना है। तत्कालीन ज़िलाधिकारी (बांदा) ने 470 ग्राम पंचायतों में जखनी मॉडल भू-जल संरक्षण के लिए लागू किया। जल मंत्रालय, भारत सरकार ने सन् 2015 में जलग्राम विधि को उपयुक्त माना। सन् 2016 में 1050 जल ग्राम देश में चिह्नित किये। कुल मिलाकर जब ग्रामीण समाज खड़ा हुआ, तब सरकार खड़ी हुई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के निर्देशन पर ग्रामीण विकास मंत्रालय, भारत सरकार ने कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर की देखरेख में कोरोना-काल के दौरान सर्वाधिक धनराशि मनरेगा योजना के अंतर्गत ग्राम पंचायतों के माध्यम से जखनी के भूजल संरक्षण मंत्र मेड़बन्दी के आधार पर सूखा प्रभावित राज्यों की तीन लाख से अधिक ग्राम पंचायतों में खर्च की। उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर की ज़िलाधिकारी ने 14 गाँवों को जलग्राम बनाया। कह सकते हैं कि सरकार सुनती है; लेकिन इसके लिए धैर्य चाहिए।
धैर्य और सच्चे संकल्प ने ही जखनी को सिद्धि, प्रसिद्धि, समृद्धि दिलायी। हमें बगैर सरकार की सहायता के सामुदायिक आधार पर परम्परागत तरीके से भू-जल संरक्षण करके जखनी ने जो उदाहरण दिया। जखनी की इस जलग्राम क्रान्ति ‘खेत पर मेड़, मेड़-मेड़ पर पेड़’ को पूरे भारत के गाँवों को स्वीकारना होगा; जो जल के लिए होने वाले किसी भी सम्भावित विश्वयुद्ध को टालने का सहज, परम्परागत और स्थायी उपाय है।