सुशासन बाबू!

नीतीश कुमार

उम्र-62,

मुख्यमंत्री, बिहार

वे सात जनवरी को बौद्ध धर्मगुरु दलाईलामा के साथ अंतरराष्ट्रीय बौद्ध समागम में घंटों बैठे रहते हैं तो दूसरे दिन मॉरीशस के राष्ट्रपति राजकेश्वर परयाग के साथ पटना से 25 किलोमीटर दूर पुनपुन के पास बाजितपुर गांव में भी उसी शिद्दत से कई घंटे गुजारते हैं. और फिर अगले दिन इन नामचीन लोगों की दुनिया से निकलकर अपने सरकारी आवास एक अणे मार्ग के पिछवाड़े कड़कड़ाती ठंड में जनता दरबार में भी घंटों हाजिर रहते हैं. लॉर्ड मेघनाथ देसाई, अमर्त्य सेन जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर के बौद्धिक लोग उनके बुलावे पर बार-बार बिहार आना चाहते हैं. उनके राज में भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की उपस्थिति बिहार में ऐसी रही है जैसे वे बिहार के ही बाशिंदे रहे हों. आंकड़ों का गुणा-गणित चाहे जितना भ्रम पैदा करे, विरोधी उसकी काट भी निकाल लें लेकिन वे इस बात को नहीं झुठला पाते कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खूंखारपन, अराजकता और रंगदारी के पर्याय बने बिहार को उस अंधेरे से निकालकर कम से कम उस मुकाम पर जरूर पहुंचा दिया है जहां राजनीति विकास के इर्द-गिर्द घूमने लगी है. और असंतोष दिखता है तो इसके लिए नहीं कि कुछ नहीं हुआ बल्कि इस बात पर कि ‘इतना ही क्यों’, ‘ऐसा क्यों’, ‘और क्यों नहीं’!

आने वाले एक मार्च को नीतीश कुमार उम्र के 63वें साल में प्रवेश कर जाएंगे. अगर वे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद कहीं नौकरी कर रहे होते तो दो साल पहले ही रिटायर हो जाते, लेकिन राजनीति में उनकी चुस्ती, चाल और चतुराई उन्हें उन नेताओं की कतार में खड़ा करती है जो इस उम्र में एक और पारी खेलने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं. 1985 में पहली बार विधायक और 2000 में पहली बार सात दिन के लिए मुख्यमंत्री बनने के बाद केंद्र की राजनीति में पांच सालों तक रहने वाले नीतीश पिछले सात साल से अधिक समय से बिहार की कमान संभाल रहे हैं. बेशक उनके इस कार्यकाल के दौरान कई अनियमितताओं और घपलों की भी खबरें आती रहीं लेकिन इन सात साल में ही बिहार में कुछ ऐसा भी हुआ जिससे बिहार देश भर में किसी न किसी बहाने सकारात्मक रूप से चर्चा में बना रहा और नीतीश उसके केंद्रबिंदु . चाहे वह पंचायत चुनावों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात हो या भ्रष्टाचारी अधिकारियों की संपत्ति जब्त करने की कार्रवाई, उनके कई कदमों को एक आदर्श की तरह देखा गया. 

वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश कहते हैं, ‘आलोचक नीतीश की लाख आलोचना कर लें लेकिन यह तो सब देख रहे हैं कि हालिया वर्षों में बिहार में वे इकलौते नेता हुए जिन्होंने राजनीति को परिवार की सुख-समृद्धि का साधन नहीं बनाया और उसे गैंग-गिरोह की परिधि से बाहर निकाला.’ यह सही भी है. नीतीश कुमार के बड़े भाई सतीश कुमार और नीतीश के बेटे निशांत राजनीति से दूर ही रहते हैं. उनके गांव कल्याण बिगहा, बख्तियारपुर में भी जाने पर यह गर्व का भाव तो जरूर दिखता है कि उनके गांव से ही बिहार के मुखिया हैं लेकिन इस बिना पर वहां दलालों-नेताओं की फौज तैयार नहीं होती.

राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘हर राजनेता अपने हिसाब से राजनीति तो करता ही है, लेकिन नीतीश को इसलिए अलग पंक्ति का नेता माना जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति वाली पाठशाला से प्रशिक्षण लेने के बाद उसमें विकास और गवर्नेंस को जोड़ा और सिर्फ बिहार नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के साथ विकास का एक नया राजनीतिक जुमला दिया. इस लिहाज से वे लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, मायावती जैसे दिग्गज नेताओं से भी आगे खड़े नजर आते हैं.’ एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के सदस्य सचिव शैबाल गुप्ता कहते हैं, ‘बिहार में शासनतंत्र स्थापित करना, बिहारी अस्मिता को जगाना महज बिहार का मामला हो सकता है लेकिन बिहार समेत तमाम पिछड़े और अविकसित राज्यों के मसले को राष्ट्रीय एजेंडा बनाना उन्हें देश का एक महत्वपूर्ण नेता बनाता है.’

हालांकि आलोचकों के पास इन सभी बातों के जवाब हैं, लेकिन जब सभी सवालों के बाद उनसे पूछा जाता है कि नीतीश नहीं तो फिलहाल कौन है विकल्प, तो वे तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाते. शायद यह भी एक बड़ी बात है कि उनके व्यक्तित्व और नेतृत्व के सामने बिहार को तुरंत कोई विकल्प नहीं दिखता.

-निराला