देश के सर्वोच्च अदालत ने केंद्र की कोविड टीकाकरण नीति को लेकर सख्त टिप्पणी की है। सर्वोच्च न्यायालय की वेबसाइट पर अपलोड आदेश में नीति को प्रथम दृष्टया मनमानापूर्ण और अतार्किक करार दिया गया है जिसके पहले दो चरणों में वैक्सीन मुफ्त में दी गयी और अब राज्यों और निजी अस्पतालों को 18-44 साल आयु वर्ग के लोगों से इसका शुल्क वसूलने की मंजूरी दे दी गयी है।
सर्वोच्च अदालत ने केंद्र को आदेश दिया है कि इसकी समीक्षा करे। अदालत ने कहा कि जब कार्यपालिका की नीतियां नागरिकों के अधिकारों का अतिक्रमण करती हैं तो अदालतें खामोश नहीं रह सकतीं। कोविड टीकाकरण नीति का विस्तार से मूल्यांकन करने का प्रयास करते हुए सर्वोच्च अदालत ने केंद्र से कई जानकारियां तलब की हैं और यह भी जानना चाहा कि टीकाकरण के लिए निर्धारित 35,000 करोड़ रुपये अब तक कैसे खर्च किए गए हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से इस नीति से संबंधित तमाम दस्तावेज और फाइल नोटिंग उपलब्ध कराने को कहा है। अदालत ने पूछा कि वैक्सीनेशन के लिए आवंटित रकम से 18-44 वर्ष के लोगों को मुफ्त डोज क्यों नहीं दी जा सकती हैं। शीर्ष अदालत की वेबसाइट पर पिछले कल अपलोड 31 मई के इस आदेश में उदारीकृत टीकाकरण नीति, केंद्र-राज्यों और निजी अस्पतालों के लिए टीके के अलग-अलग दाम, उनके आधार, ग्रामीण और शहरी भारत के बीच विशाल डिजिटल अंतर के बाद भी टीके के स्लॉट बुक कराने के लिए कोविन ऐप पर अनिवार्य पंजीकरण आदि को लेकर केंद्र के फैसले पर सख्त टिप्पणी की गयी है।
अदालत ने सरकार से सवालों पर दो सप्ताह में जवाब मांगा है। न्यायालय ने कहा कि वह नागरिकों के जीवन के अधिकार की रक्षा के लिए अपने अधिकारों का इस्तेमाल करना जारी रखेगा और यह देखेगा कि जो नीतियां हैं, वे तार्किकता के अनुरूप हैं या नहीं। जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस एलएन राव और जस्टिस एस रवींद्र भट्ट की एक विशेष पीठ ने कहा कि यह कहना सही नहीं होगा कि शक्तियों का पृथककरण संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा है और नीति-निर्माण कार्यपालिका के एकमात्र अधिकार क्षेत्र में है।