सीमा पार से भूखमरी के शिकार लोगों का भारत में घुसने का अंदेशा

पाकिस्तान में राजनीतिक और प्रशासनिक उथल-पुथल के कारण वहां की अर्थव्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो गई है। इस वजह से वहां कभी मानव समस्या पैदा हो सकती है। देश में लगातार बढ़ रही मंहगाई और बेरोज़गारी न केवल भारतीय नेताओं के लिए एक चेतावनी है बल्कि कि पूरी दूनिया को इसकी चिंता है। यह शंका है कि कहीं भारतीय उपमहाद्वीप में भी तुर्की-सीरिया जैसा संघर्ष न हो जाए। इस तरह से फैली हिंसा के कारण हो सकता है कई शरणार्थी भारत में घुस आएं। पाकिस्तान के साथ भारत की 3000 किलोमीटर की सीमा है जो चार राज्यों को छूती है। ये राज्य है – पंजाब, राजस्थान, गुजरात और जम्मू-कश्मीर।

जमाते-उलेमा-ई-इस्लाम (जेयूआई) के नेता मौलाना फजलुर रहमान ने इमरान खान सरकार का त्यागपत्र मांगते हुए 27 अक्तूबर को आज़ादी मार्च निकालने की बात कही है। इससे पाकिस्तान की राजनीतिक स्थिति बिस्फोटक हो गई है। मौलाना को पीपल्स पार्टी ऑफ पाकिस्तान (पीपीपी) और पाकिस्तान मुस्लिम लीग (पीएमएल) का समर्थन भी प्राप्त है।

पाकिस्तान के हर सेक्टर में चाहे वह कपड़ा, खाद्य पदार्थ या दवाएं हों विकास पूरी तरह से ठप्प हो गया है। इस कारण वहां भारी बेरोज़गारी हो गई है। पाकिस्तानी सरकार इसे स्वीकार करती है। 2018-19 के वित्त वर्ष के दौरान पांच लाख स्नातक और 2.60 लाख इंजीनियर स्नातक नौकरी की तलाश कर रहे हैं। वड़ी अखबारों में काम कर रहे पत्रकारों को या तो निकाला जा रहा है या उनके वेतन घटाए जा रहे हैं। एक्सप्रेस ट्रिब्यून से पहले ही 12 रिर्पोटरों को हटाया जा चुका है और ‘डॉन’ अखबार ने अपने पन्ने कम कर दिए हैं। कारपोरेट घरानों से मिलने वाले विज्ञापन बंद हो गए हैं। वहां प्रधानमंत्री के वित्तीय सलाहकार डाक्टर अबदुल हफी$ग शेख के इस दावे के बावजूद कि देश में औद्यागिक उत्पादन 1.40 फीसद बड़ा है, मौजूदा आर्थिक स्थिति अत्यंत निराशाजनक है। शेख के आर्थिक सर्वे के अनुसार प्राकृतिक गैस के उत्पादन में कमी के कारण यह उत्पादन गिरा है। असल में राजनीतिक और आर्थिक हालत के कारण देश का भविष्य अस्थिरता की ओर जा रहा है।

भारत की शंका

भारत को डर है कि कहीं उसके और पाकिस्तान के बीच 1970-71 जैसे हालात न बन जाए जब पूर्वी पाकिस्तान से लाखों शरणार्थी भारत में घुस आए थे। इसके बाद ही बांग्लादेश अस्तित्व में आया था। वहां स्थिति उस समय ज्य़ादा खराब हुई भी जब पाकिस्तानी सेना ने अपने ही देश के नागरिकों की मारकाट शुरू कर दी थी। उस समय अमेरिका की पूरी सहायता के बावजूद पाकिस्तान के हज़ारों सैनिकों को अत्मसमर्पण करना पड़ा था। लोकतंत्र का मुखौटा ओढ़े आज भी सेना ही पाकिस्तान पर राज कर रही है। लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई इस सरकार का चेहरा पुराने क्रिकेट खिलाड़ी इमरान खान के बनाया गया है। सेना के जनरलों के चहेते रहे इमरान खान को उनकी राजनीतिक भूमिका जिया-उल-हक के समय देने की पेशकश की गई थी। इसके बाद उन्हें पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की पार्टी पीएमएल (नून) में आने की दावत भी मिली। लेकिन इमरान खान ने इन दोनों ही को इनकार कर दिया। इसके बाद उन्होंने अपनी ही एक पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ (पीटीआई) का गठन किया।

पीटीआई का मुख्य मुद्दा था भ्रष्ठाचार में लिप्त पाकिस्तान को पूरी तरह स्वच्छ बनाना उन्होंने शरीफ सरकार के खिलाफ पूरी मुहिम खड़ी कर दी। नवाज़ शरीफ को सेना का समर्थन नहीं था। 2018 में इमरान खान को चुनावी धांधलियों की शिकायतों के बीच देश का प्रधानमंत्री बना दिया गया। उन्हें सेना का सबसे चेहता नेता माना जाता है। बड़े-बड़े दावों के बावजूद इमरान खान देश के सामने मौजूद आर्थिक चुनौतियों का सामना नहीं कर पाए। इसके अलावा उसकी सरकार वहां चल रहे आतंकवादियों के शिविरों को भी तबाह नहीं कर की क्योंकि ये सीधे वहां की सेना के तहत चल रहे थे। इन चुनौतियों के बीच अब देखना है कि उन्होंने सेना प्रमुख कंवर जावेद बाजवा की एक बड़ी भूमिका थी। अब इमरान उस अहसान का बदला चुका रहे हैं।

मौलाना फज़लर रहमान का मार्च यह भी दर्शाता है कि पाकिस्तानी सत्ता का एक हिस्सा के साथ है। यह सभी जानते हैं कि पाकिस्तान में कोई भी आंदोलन वहां की सत्ता के सहयोग के बिना नहीं चल सकता। 2018 के चुनावों में भी आतंकवादियों और आईएमआई के एजेंटों ने भुट्टो की पीपल्स पार्टी और शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन)के कई प्रांतीय नेताओं को पीटीआई में शामिल करवाया था।

पाकिस्तान की राजनीतिक गतिविधियां यह संकेत कर रही है कि इन हालात में इमरान खान के लिए वहां सत्ता में बने रहना कठिन होगा। हो सकता जनरल बाजवा सत्ता सीधे अपने हाथ में ले ले और इंतजार करें किसी नए चेहरे की। यह भी सूचना है कि बाजवा का कार्यकाल बढ़ाने को लेकर सत्ता पक्ष में कभी मनमुटाव है। यदि सत्ता पक्ष में कोई संघर्ष जारी रहता है तो हो सकता इसका नतीजा भयंकर हिंसा के रूप में सामने आए। मौजूदा पाकिस्तानी सरकार हो सकता है फरवरी 2020 तक रहे पर इसका भविष्य अनिश्चित ही है। कुछ लोगों को विश्वास है कि इमरान खान आतंकवादियों पर अंकुश लगा कर पाकिस्तान को काली सूची में जाने से रोक सकते हैं।

आरोप-प्रत्यारोप

पाकिस्तानी सरकार भारत पर हमेश उनका देश तोडऩे का आरोप लगाती रहती है। पाकिस्तान के कई बुद्धिजीवियों ने इसके लिए बार-बार पश्चिम पाकिस्तान के अदूरदर्शी नेताओं और सेना के तानाशाहों को जिम्मेदार ठहराया है। पाकिस्तान की आज की स्थिति भी उतनी खराब है जितनी 1970-71 में थी। आज से कोई 50 साल पहले यह झगड़ा पंजाबी और बंगालियों के बीच माना जाता था। इस्लाम भी इन्हें आपस में जोड़ नहीं रख सका। बंगाली मुस्लमानों ने अपनी भाषा और अपनी संस्कृति को छोडऩे से मना कर दिया। हालांकि अंग्रेजों के राज में उन्होंने एक मुस्लिम लीग नेता एसएच सुरहावर्दी के नेतृत्व अलग मुस्लिम होम लैंड की मांग का समर्थन किया था। बंगालियों पर उर्दू थोपे जाने के अलावा बंगाली खुद को बड़े नेताओं से कटा मानते थे और यह भी कि जो पैसा पूर्व के निर्यात से आता था वह पश्चिम के विकास पर खर्च किया जाता। इसके साथ ही उस समय देश के तानाशाह जनरल मोहम्मद याहया खान के अवामी लीग के नेता शेख मुनीबुर रहमान को चुनाव जीतने के वाबजूद प्रधानमंत्री की शपथ लेने से इनकार कर दिया। याहया खान 25 मार्च 1969 से दिसंबर 1971 तक संयुक्त पाकिस्तान के राष्ट्रपति रहे।

लगता है कि अब इतिहास खुद को दोहरा रहा है। 1970-71 का संघर्ष बंगाली और पंजाबी मुस्लमानों के बीच था लेकिन अब झगड़ा विभिन्नि प्रांतों के बीच है चाहे वह बलोच हों, सिंधु, यख्नून या पंजाबी हो। ब्लोचिस्तान के लोग गुस्से मे हैं क्योंकि उनकी ज़मीन विकास के नाम पर चीनियों को देदी गई है। इससे मिले अरबों रुपये पाकिस्तानी जनरलों की अय्याशी पर खर्च किए। उधर अर्थव्यवस्था के धराशाती होने से सांप्रदायिक बंटवारा अधिक हो गया।

पिछले अनुभव से नहीं सीखा

यदि सेना के शासकों और पीपल्स पार्टी के नेता ज़ुलफिकार अली भुट्टो ने लोगों की भावनाओं का सम्मान करते हुए अवामी लीग के नेता शेख मुजीबउर रहमान को सत्ता सौंप दी होती तो पाकिस्तान की एकता बरकरार रहती। विभाजन के बाद पाकिस्तान पर अधिकतर सेना के जनरलों ने ही शासन किया है। भुट्टो एक युवा थे जिन्हें अयुब खान के समय सेना तैयार कर रही थी।

मुजीब उर रहमान को पाकिस्तानी सेना पसंद नहीं करती थी। उन्हें रोकने के लिए सेना ने भुट्टों का इस्तेमान किया। पश्चिम पाकिस्तान में सेना का पूरा नियंत्तण रहा। सेना ने किसी को भी इस नियंत्रण को कमजोर नहीं करने दिया। बाद में भुृट्टो को फांसी लगा दी गई और उकी बेटी बेनज़ीर की हत्या हो गई। पूर्व प्रधानमंत्री मियां मोहम्मद नवाज़ शरीफ और उनकी बेटी माहिरा जेल में हैं। इन सब दवाबो के बावजूद पाकिस्तान के पत्रकार इमरान खान सरकार में आ रही गिरावट और सत्ता पक्ष और सेना के बीच बढ़ रहे मतभेदों को लगातार उजागर कर रहे हैं।

इमरान खान से मोहभंग

पाकिस्तानी तानाशाहों की पसंद से सत्तर में आने वाले इमरान खान 2018 में देश के प्रधानमंत्री बन गए। लेकिन वे किसी भी तरह पाकिस्तान के सेना के चंगुल में नहीं निकाल पवाए इस कारण वे देश में विदेशी निवेश नहीं ला पाए। इन्होंने चीन, साऊदी अरब और अमेरिका की कई बार यात्रा की पर विदेशी निवेश नहीं हुआ और देश की अर्थव्यवस्था डूबने लगी।

उनकी इस बात पर कि वे पाकिस्तान को मदीना की तर्र्ज पर कल्याणकारी राज्य बना देंगे, कोई विश्वास नहीं कर रहा। एक अंतरराष्ट्रीय न्यूज एजेंसी ने एक टैक्सी चालक के हवाले से लिखा है कि टैक्सी चालक का कहना था – मैं अपनी टैक्सी को आग लगा दूंगा। तेल के दामों में 50 फीसद की वृद्धि हो गई है और कोई टैक्सी में बैठता नहीं।

हर दिन खाने की और ज़रूरी वस्तुए महंगी होती जा रही है। अपनी राजनीतिक अवसरवादिता के लिए इमरान खान किसी और को दोषी नहीं ठहर सकते। सत्ता लेने के लालच में उन्होंने खुद को शरीफ के खिलाफ इस्तेमाल होने दिया। उनकी पार्टी को सेना और आईएसआई का पूरा समर्थन मिला। इमरान खान विश्व स्तर पर भारत के खिलाफ कोई बड़ा दोस्त नहीं तलाश पाए, इस कारण सत्ता में उनके समर्थकों की गिनती घटती जा रही है। इससे कई पत्रकार हैरान हैं। इनमें नाजम सेठी और हसननिसार भी शामिल हैं। वे समझ नहीं पा रहे कि सत्ता के लोगों के समर्थन के बिना यह मार्च कैसे हो पाएगा। कोशिश करके भी इमरान खान पाकिस्तन के लिए समर्थन नहीं तलाश कर पा रहे। उधर बाजवा ने देश की आर्थिक स्थिति को बचाने के लिए वहां के व्यापारियों और उद्योगपतियों के साथ पाकिस्तान की बिखर रही अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए अभी कोई पैसा नहीं आ रहा। यह स्थिति बेहतर हो सकती थी यदि इमरान ने आतंकवाद का समर्थन न किया होता तो भारत, अमेरिका और यूरोप और तरह से पेश आते।