अखिलेश यादव की तफसील में जाने से पहले दो छोटी-छोटी कहानियों पर गौर करना ठीक रहेगा. उत्तर प्रदेश में चौथे चरण का मतदान खत्म हो चुका था. चुनावी मारामारी से उबरकर थोड़ा सुकून की तलाश में राहुल गांधी दिल्ली आए हुए थे. मौके का फायदा उठाने के लिए उन्होंने शहर के तमाम बड़े पत्रकारों को नाश्ते पर आमंत्रित किया. इनमें एनडीटीवी के बड़े पत्रकार थे, टाइम्स नाउ के थे, सीएनएन आईबीएन के थे और लगभग सभी बड़े अंग्रेजी अखबारों के संपादक भी मौजूद थे. इन सभी पत्रकारों के सामने राहुल ने अपना विजन उत्तर प्रदेश पेश किया. लेकिन इनमें करोड़ों की प्रसार संख्या वाले हिंदी अखबारों का एक भी पत्रकार आमंत्रित नहीं था. लाखों घरों में धमकने वाले हिंदी न्यूज चैनलों के भी किसी संपादक को बुलाने की जरूरत नहीं समझी गई. सवाल है कि उत्तर प्रदेश जैसे भदेस हिंदीभाषी प्रदेश के लिए भी राहुल को इनकी जरूरत क्यों नहीं महसूस हुई.
दूसरी कहानी सुनिए, तीसरे चरण के मतदान से ठीक पहले एक चर्चित अंग्रेजी न्यूज चैनल की विख्यात और तेज-तर्रार महिला पत्रकार दिल्ली से लखनऊ पहुंची थी. अखिलेश यादव चुनावी सभाओं में व्यस्त थे. पत्रकार महोदया ने अखिलेश से उसी दिन उनके हेलिकॉप्टर में चुनावी यात्रा करने की मांग रखी. अखिलेश ने पूरी विनम्रता के साथ उनका आवेदन यह कहते हुए ठुकरा दिया कि वे पहले से ही किन्हीं हिंदीभाषी पत्रकार को समय दे चुके हैं. महिला पत्रकार नाराज हो गईं. यह उनकी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं था. हालांकि उन्होंने दो दिन बाद अखिलेश के साथ यात्रा की और सड़क किनारे पूरी पंचायत भी लगाई जो कि उनकी ट्रेडमार्क शैली है.
ये दो कहानियां देश में युवा राजनीति का परचम लहरा रहे दो नेताओं के बीच का फर्क दिखाती हैं. ये कहानियां उत्तर प्रदेश चुनाव के नतीजों में सीटों का फर्क भी तय करती हैं. इन किस्सों को सुनाने वाले वरिष्ठ अंग्रेजी पत्रकार अपना नाम नहीं छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘आप हिंदीवालों को साथ लेकर नहीं चलेंगे और उत्तर प्रदेश, बिहार को जीतने का सपना देखेंगे तो बात कैसे बनेगी? कांग्रेस ने अपने अभियान के दौरान भीड़ भले ही जुटा ली हो पर भीड़ का मन उसके साथ कभी नहीं जुड़ा. हर सपाई के पास एक पता होता है पांच विक्रमादित्य मार्ग. वह आसानी से वहां नेताजी से लेकर अखिलेश तक से मुलाकात और बातचीत कर सकता है. पर एक कांग्रेसी के पास कोई पता नहीं है पूरे सूबे में. जहां कार्यालय है वहां कोई नेता बैठना पसंद नहीं करता. राहुल जी से मिलना तो दूर की कौड़ी है. कहने का मतलब है मतदाता राहुल को दिल्लीवाला ही मानता रहा. जबकि अखिलेश बातचीत से लेकर व्यवहार के स्तर तक लोगों को अपने करीब लगे, अपने वादों और प्रयासों में ईमानदार नजर आए.’
सपा को मिला जनादेश जितना अप्रत्याशित था उतना आश्चर्य लोगों को तब नहीं हुआ जब अखिलेश को विधानमंडल दल का नेता चुना गया. हालांकि पार्टी के कुछ पुराने दिग्गजों और परिवार के कुछ लोगों की असहजता अखिलेश की राह में बाधा बन रही थी, मगर सात मार्च को मुलायम के नाम की घोषणा न होने से ही इस बात के संकेत मिल गए थे. उस दिन अखिलेश के नाम को लेकर कोई सहमति नहीं बन सकी तो इसकी एक वजह यह भी थी कि वरिष्ठ सपा नेता और पार्टी का मुसलिम चेहरा रहे आजम खान उस दिन संसदीय बोर्ड की मीटिंग में पहुंचे ही नहीं.
पहली बार पुराने नेताओं ने युवाओं के साथ बैठकर एक ही सीट के लिए दावा पेश किया. इस प्रक्रिया में कई पुरानों का टिकट कटा; परिवार के कई सहयोगी भी टिकट से वंचित हुए
अब मामला दस मार्च को होने वाली नवनिर्वाचित विधायकों की मीटिंग पर टल गया था. इस दौरान होली पड़ गई और अखिलेश के अलावा पूरा परिवार सैफई में इकट्ठा हुआ. यहां पर अखिलेश की राह का दूसरा सबसे बड़ा रोड़ा बन रहे उनके चाचा शिवपाल को समझाने का काम मुलायम ने रामगोपाल यादव (अखिलेश के प्रिय चाचा) को सौंपा. शिवपाल को यह अहसास था कि मुलायम सिंह और सपा के इतर उनकी अपनी कोई हैसियत नहीं है. इसलिए उन्हें पार्टी लाइन के आगे झुकना पड़ा. शिवपाल के खिलाफ एक और बात गई जिसे एक नवनिर्वाचित विधायक इस तरह बताते हैं, ‘403 उम्मीदवारों में से एक ने भी शिवपाल को अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं मांगा. इससे उनकी उम्मीदवारी को बड़ा झटका लगा.’
शिवपाल को साधने के बावजूद आजम खान के रूप में सबसे बड़ी चिंता कायम थी. इससे पार पाने के लिए नौ तारीख की रात को मुलायम सिंह ने अपने आवास पर मैराथन मीटिंग आयोजित की. आजम खान लखनऊ में मौजूद होने के बावजूद तब तक नेताजी (मुलायम सिंह) से मिले नहीं थे. मुलायम सिंह ने उन्हें बुलवाया और अपने खराब स्वास्थ्य और अखिलेश की वजह से मिले प्रचंड बहुमत का हवाला देते हुए साफ कर दिया कि वे केवल अखिलेश को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं. इसके बाद आजम खान के पास भी कोई और विकल्प नहीं रह गया था. इसी बैठक में आजम खान को स्पीकर बनाने का प्रस्ताव भी दिया गया जिसे उन्होंने यह कहते हुए निरस्त कर दिया, ‘मंत्री बनूंगा स्पीकर नहीं.’ बैठक में अगले दिन की कार्यवाही पर भी विचार हुआ जिसका निष्कर्ष यह निकला कि आजम अखिलेश के नाम का प्रस्ताव रखेंगे और शिवपाल उसका अनुमोदन करेंगे ताकि सभी तरह की नकारात्मक चर्चाओं पर विराम लग सके.
अगले दिन यानी दस मार्च को 224 विधायकों से खचाखच भरे सपा कार्यालय में इसे अमलीजामा पहना दिया गया. इसके दो नतीजे निकले. एक उत्तर प्रदेश के इतिहास का सबसे युवा मुख्यमंत्री बनने का रिकॉर्ड अखिलेश यादव के नाम दर्ज हो गया. दूसरा समाजवादी पार्टी में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को सत्ता सौंपने का काम भी पूरा हो गया.
1999 में राजनीति शुरू करने वाले अखिलेश को 2012 में हासिल हुई ऊंचाई किसी परीकथा सरीखी है. सिडनी यूनिवर्सिटी से पर्यावरण विज्ञान में इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर जब वे भारत लौटे थे तब उनका सपना अपना अलग व्यवसाय शुरू करने और अपनी अलग पहचान बनाने का था. कहीं किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता की तर्ज पर अखिलेश का भी आधा ही सपना पूरा हुआ. मुलायम सिंह यादव ने उनके लिए कुछ अलग ही योजना बना रखी थी. उन्हें राजनीति में आना पड़ा और अपना धंधा शुरू करने का कभी वक्त ही नहीं मिला. पर हां, अपनी अलग नजीर बनाने की उनकी दूसरी इच्छा इन चुनावों के बाद जरूर पूरी हो गई है.
अखिलेश ने अपना पहला चुनाव 2000 में कन्नौज लोकसभा से लड़ा और जीता. इसके बाद 2004 और 2009 में भी वे यहां से सासंद बने. मगर तब तक किसी ने उन्हें गंभीरता से नहीं लिया था. शायद तब तक वे भी राजनीति को इतनी संजीदगी से नहीं लेते थे.
मुलायम सिंह यादव ने उनके लिए कुछ अलग ही योजना बना रखी थी. उन्हें राजनीति में आना पड़ा और अपना धंधा शुरू करने का कभी वक्त ही नहीं मिला
2009 अखिलेश के जीवन का निर्णायक बिंदु है. इस साल उन्होंने कन्नौज के साथ फिरोजाबाद से भी लोकसभा का चुनाव लड़ा था. बाद में उन्होंने फिरोजाबाद की सीट खाली कर दी. उपचुनाव में उनकी पत्नी डिंपल यादव को यहां से सपा का उम्मीदवार बनाया गया जिनके खिलाफ कांग्रेस ने कुछ समय पहले तक समाजवादी रहे राजबब्बर को उतारा. इस चुनाव में डिंपल बुरी तरह हार गईं. पार्टी के एक कार्यकर्ता बताते हैं कि इस हार से अखिलेश बहुत निराश और नाराज थे. उन्होंने पार्टी की कार्यशैली पर गुस्सा जताया और इसे बदलने का प्रण किया. इस प्रण के साथ ही एक छिपा हुआ प्रण उन्होंने और किया – कांग्रेस को मजा चखाने का. 2012 में उनकी सारी इच्छाएं पूरी हो चुकी हैं. पार्टी भी बदल चुकी है और कांग्रेस की आंखों (अमेठी, रायबरेली और सुलतानपुर) से काजल चुरा लाने का कारनामा भी सपा ने कर दिखाया है.
2009 के उपचुनाव में हार ने अखिलेश को जमीन पर ला दिया था. शायद 2012 के परिणाम राहुल गांधी को भी जमीन पर लाने में सफल रहें. सपा सिर्फ उपचुनाव ही नहीं हारी थी बल्कि आम चुनावों में भी उसे करारी शिकस्त खानी पड़ी थी. 39 सीटों का आंकड़ा 23 पर सिमट गया था. मंडल की पोटली से उपजी सियासत के नायक मुलायम सिंह यादव का किला दो दशकों में पहली बार ध्वस्त होता हुआ दिखा था और कांग्रेस ने हैरतअंगेज कारनामा करते हुए अपना आंकड़ा 21 लोकसभा सीटों तक पहुंचा दिया था.
पार्टी के लिए यह आपात स्थिति थी. इस घड़ी में मुलायम सिंह ने सपा की ध्वजा अखिलेश को पकड़ाने का निश्चय किया. वे उत्तर प्रदेश सपा के अध्यक्ष बना दिए गए. यहां से अखिलेश ने सपा का चाल-चरित्र-चेहरा बदलने के अभियान की शुरुआत कर दी. वे एक साथ कई मोर्चों पर बदलाव की मुहिम चला रहे थे और संगठन में जोश भरने और उसे मजबूत करने का काम खुद गांव-बाजार में साइकिल पर घूमते हुए कर रहे थे.
इस दरम्यान मुलायम सिंह यादव अपनी कुछ पुरानी भूलों को दुरुस्त करने में लगे हुए थे. सबसे पहले उन्होंने 2009 के लोकसभा चुनावों से पहले साथी बने कल्याण सिंह को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया. मुसलमानों ने लोकसभा चुनावों के दौरान उन्हें इसकी सजा दे दी थी. सपा की सीटें घटने के साथ ही मुसलिम-यादव समीकरण वाली पार्टी का एक भी मुसलिम प्रत्याशी चुनाव नहीं जीत सका था. यह शुरुआत थी. अब मुलायम सिंह के सबसे खासुल खास अमर सिंह की बारी थी. यह वह दौर था जब अमर सिंह नेताजी के आंख-कान हुआ करते थे.
अमरकाल में सपा ने तमाम पुराने समाजवादियों को किनारे लगाकर पार्टी में फिल्मी और पूंजीवादी संस्कृति का सूत्रपात किया था. इसी दौरान आजम खान, रामआसरे विश्वकर्मा जैसे नेताओं को बाहर कर दिया गया और वरिष्ठ नेता बलराम यादव हाशिये पर चले गए. पर 2009 के आखिर तक अमर की मौजूदगी सपा को भारी पड़ने लगी थी. पार्टी उनसे मुक्ति पाने का रास्ता तलाश रही थी और रास्ता खुद अमर सिंह ने ही उसे मुहैया करवाया. वे पार्टी के निर्णयों में की जा रही अपनी अनदेखी से नाराज चल रहे थे. हालांकि उनसे पार पाने का फैसला पार्टी में पहले ही हो चुका था पर उन्हें अपनी खिसकती जमीन का अहसास ही नहीं था. मुलायम सिंह पर दबाव बनाने के लिए उन्होंने ब्लैकमेलिंग की अपनी चिरपरिचित शैली का इस्तेमाल किया और अपने इस्तीफे का दांव चला. यह दांव उल्टा पड़ गया. अमर सिंह का इस्तीफा थोड़ी ना-नुकुर के बाद कबूल हो गया. अमर सिंह को इसकी उम्मीद नहीं थी. जनवरी 2010 में सिंह सपा से बाहर हो गए या कर दिए गए. व्यक्तिगत बातचीत में सपा कार्यकर्ता इस घटना का विवरण बड़े चाव से देते हैं. पार्टी के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता के शब्दों में, ‘अखिलेश भैया के इशारे पर नेताजी ने अमर सिंह का इस्तीफा कबूल किया था. भैया किसी भी हाल में पार्टी को उनके चंगुल से बाहर निकालना चाहते थे.’
इन दो बोझों से मुक्ति पाने के बाद अब मुलायम सिंह और अखिलेश के सामने अपनों को मनाने का वक्त था. उन्होंने इस काम में देरी नहीं की. उन्हें इस बात का इल्म था कि 2012 ज्यादा दूर नहीं है. तो मुलायम सिंह ने अपनी गलतियों के लिए प्रदेश के मुसलिम समाज से सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी. इसके बाद पार्टी के मुसलिम चेहरे आजम खान को तमाम मनुहारों के बाद दिसंबर, 2010 में पार्टी में वापस ले आया गया. आजम खान की दो बड़ी दिक्कतें – कल्याण सिंह, अमर सिंह – पहले ही दूर हो चुकी थीं. इसी दौरान पार्टी ने अपने पिछड़े वोटबैंक का दायरा और विस्तृत करने की प्रक्रिया में विशंभर प्रसाद निषाद और रामआसरे कुशवाहा को अपने साथ जोड़ लिया. इस तरह से सपा ने 2011 के मध्य तक अपने सभी कील-कांटे पूरी तरह से दुरुस्त कर लिए थे.
अखिलेश के सामने एक बड़ी चुनौती थी योग्य उम्मीदवारों के चयन की. सपा में पहली बार उम्मीदवारों के चयन के लिए आवेदन और साक्षात्कार की परंपरा शुरू की गई. इसका मकसद नए नेताओं को सामने लाने के साथ केवल वरिष्ठता के आधार पर मठाधीशी करने वाले नेताओं से मुक्ति पाना भी था. पहली बार तमाम पुराने नेताओं ने युवाओं के साथ बैठकर एक ही सीट के लिए दावा पेश किया. 3000 से ज्यादा आवेदन आए. इस प्रक्रिया में कई पुरानों का टिकट कटा; परिवार के कई सहयोगी भी टिकट से वंचित हुए.
मुलायम सिंह ने अखिलेश की पारी सुगम बनाए रखने के लिए प्लान ‘बी’ भी तैयार कर रखा है
अब सपा सभी हथियारों से लैस होकर जनता के बीच पहुंची. चयनित प्रत्याशियों के लिए एक गाइडलाइन बनाई गई. इसके तहत सभी प्रत्याशियों को अपने क्षेत्र में हर बूथ के लिए बूथ समिति बनानी थी. यह एक जटिल प्रक्रिया थी लिहाजा इसमें कई उम्मीदवारों ने हीला-हवाली की. इसके नतीजे में कुछ उठापटक भी देखने को मिली. कई सीटों पर उम्मीदवारों को बदला गया. खैर यह प्रक्रिया भले ही जटिल रही हो लेकिन कितनी कारगर रही इसका फैसला चुनावी नतीजों के आधार पर किया जा सकता है- 224 सीटें. ऐसा बहुमत जो भाजपा तक प्रचंड राम लहर और एकीकृत उत्तर प्रदेश में कभी नहीं पा सकी थी.
यहां से सपा ने निर्णायक संघर्ष शुरू किया. टिकट वितरण का काम लगभग संपन्न हो चुका था और इस समय तक अखिलेश की युवाओं की टीम काम करने लगी थी. सुनील यादव (राष्ट्रीय अध्यक्ष, समाजवादी छात्र सभा), आनंद भदौरिया (राष्ट्रीय अध्यक्ष, लोहिया वाहिनी), नफीस अहमद (राष्ट्रीय अध्यक्ष, समाजवादी युवजन सभा), जगत सिंह, नावेद सिद्दीकी (प्रदेश सचिव, सपा), विजय चौहान आदि के रूप में अखिलेश की टीम अपने काम में लगी हुई थी.
सुनील यादव और आनंद भदौरिया अखिलेश के सबसे करीबी लोगों में शुमार हैं. दोनों 9 मार्च, 2010 को राष्ट्रीय मीडिया की सुर्खी बन गए थे. सपा ने एक विरोध प्रदर्शन आयोजित किया था जिसमें अखिलेश को गिरफ्तारी देनी थी. अखिलेश को पुलिस ने हवाई अड्डे से गिरफ्तार कर लिया. तब आनंद और सुनील ने इस प्रदर्शन का नेतृत्व किया. जवाब में पुलिस ने दोनों पर जमकर लात और लाठियां बरसाई थीं. अगले दिन अखबारों में एक पुलिस अधिकारी आनंद भदौरिया के मुंह पर अपना पैर रखे हुए और सुनील लाठियों के नीचे दबे हुए दिखे. इस घटना ने बसपा सरकार और पुलिस की खासी किरकिरी करवाई.
इन आंदोलनों से होता हुआ सपा का कारवां सितंबर, 2011 तक आ पहुंचा था. तब अखिलेश ने अंतिम शंखनाद किया. वे समाजवादी क्रांति रथ लेकर प्रदेश में निकल पड़े. 1987 में मुलायम सिंह यादव भी समाजवादी रथ लेकर प्रदेश भर में घूमे थे. यह निर्णायक वार सिद्ध हुआ, जिसने चतुष्कोणीय मुकाबले में फंसे उत्तर प्रदेश की बाकी तीनों पार्टियों को बुरी तरह से चित कर दिया. जिन 21 सीटों पर कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव में परचम फहराया था उनकी 97 विधानसभा सीटों में से उसे सिर्फ 9 सीटें इस बार मयस्सर हुई हैं. यह आंकड़ा उस सच्चाई की गवाही है कि कितनी तेजी से सपा ने 2009 में अपनी खोई हुई जमीन पर वापस कब्जा जमाया है.
छह मार्च को प्रचंड बहुमत मिलने के बाद भी अखिलेश बार-बार दोहरा रहे थे कि नेताजी ही मुख्यमंत्री बनेंगे. लेकिन नेताजी का वह बयान अखिलेश के दावे को संदिग्ध बना रहा था कि 10 मार्च को विधायक दल ही अपने नेता का फैसला करेगा. जिस पार्टी में नेताजी बाईडिफॉल्ट लीडर हुआ करते थे वहां उनका यह बयान इशारा था कि नेतृत्व अखिलेश को सौंपे जाने का विमर्श गंभीरता से जारी है. वही हुआ भी, दस मार्च को आजम खान ने अखिलेश के नाम का प्रस्ताव रखा जिसका शिवपाल यादव ने अनुमोदन किया और विधायकों के दल ने हर्षध्वनि के साथ उन्हें स्वीकार कर लिया.
किन परिस्थितियों में ‘निराश’ लोगों ने हामी भरी इसका जिक्र पहले किया जा चुका है. इस दशा में नए नवेले अखिलेश के लिए यह सवाल हमेशा बना रहेगा कि आजम खान या दूसरे लोग मन से उनके तहत कितना काम कर पाते हैं. नई लकीर गढ़ने वाले अखिलेश को इस मोर्चे पर भी खुद को सिद्ध करना होगा. हालांकि जानकार मानते हैं कि मुलायम सिंह ने अखिलेश की पारी सुगम बनाए रखने के लिए प्लान ‘बी’ भी तैयार कर रखा है. इसके तहत पार्टी के वे पुराने समाजवादी भी या तो सरकार में शामिल किए जाएंगे या उन्हें अन्य महत्वपूर्ण ओहदे दिए जाएंगे जो मुलायम सिंह यादव के बेहद विश्वसनीय हैं और पार्टी में जिनका कद आजम खान या दूसरे असंतुष्टों के बराबर है. इससे पार्टी में एक किस्म का संतुलन बना रहेगा. ऐसे नेताओं में छह बार से लगातार चुनाव जीत रहे माता प्रसाद पांडेय हैं. अंबिका चौधरी जैसे नेता भी हैं जो चुनाव भले ही हार गए हों लेकिन उन्हें नेताजी ने राज्यसभा भेजकर उनके पुनर्वास का जुगाड़ कर दिया है. चौधरी की स्थिति यह है कि उन्हें नेताजी ने विधानमंडल दल की बैठक में आमंत्रित किया था पर उन्हें पहुंचने में देर हो गई. लेकिन जब तक वे बैठक में पहुंचे नहीं तब तक मुलायम सिंह ने बैठक की कार्यवाही शुरू नहीं होने दी. बैठक के बाद राज्यपाल के पास औपचारिक दावा पेश करने के लिए अखिलेश चले तो आजम खान के साथ अंबिका चौधरी भी गए. मुलायम सिंह ने खुद को इससे दूर रखा. उन्होंने अपने भाषण में भी यह बात स्पष्ट कर दी, ‘अब मैं ज्यादा समय दिल्ली को ही दूंगा. लखनऊ के लिए अब कम वक्त रहेगा.’
हालांकि पार्टी के अंदरूनी सूत्र बताते हैं कि अगले कुछ महीनों तक नेताजी लखनऊ से किसी तरह निगाह नहीं हटाने वाले हैं. उन्हें अफसरशाही से लेकर राजनीति तक के सभी दांवपेंच और सबकी काट पता है. इसका फायदा अखिलेश को होगा. हालांकि वे लोग यह विश्वास भी जताते चलते हैं कि अखिलेश को किसी कवच की जरूरत नहीं पड़ेगी. इस बीच अखिलेश ने अपने स्तर पर बदलाव का संकेत देना शुरू भी कर दिया है. छह मार्च को नतीजे आए और सात मार्च को पूरे लखनऊ शहर को छुटभैये नेताओं ने नेताजी और भैया के बैनर होर्डिंगों से पाट कर रख दिया. अखिलेश ने तत्काल कार्रवाई करते हुए इन सबको हटाने का निर्देश जारी किया. अपने सबसे विश्वसनीय सहयोगी सुनील यादव को उन्होंने इस काम की जिम्मेदारी सौंपी. सुनील यादव एक-एक होर्डिंग को हटवाने की कार्रवाई में लगे रहे. और आठ मार्च को एक बार फिर से पुरानी स्थिति बहाल हो गई. सारे शहर से बैनर-होर्डिंग हटा दिए गए.
यही नई राजनीति है जिसकी चर्चा मीडिया से लेकर राजनीतिक गलियारों तक छाई हुई है. पर यह सवाल भी उठता है कि लोगों को राहुल गांधी वाले मॉडल पर यकीन क्यों नहीं हुआ. वरिष्ठ पत्रकार संकर्षण ठाकुर कहते हैं, ‘राहुल का अभियान सुनियोजित नहीं था बल्कि हवाई था. जो योजना अखिलेश के अभियान में दिखती है वह कहीं और नजर नहीं आती. राहुल के बदलाव को लोग हवाई मानकर चल रहे थे.’ अखिलेश के उत्कर्ष को संकर्षण कांग्रेस की सबसे बड़ी चिंता करार देते हैं, ‘अब तक युवा राजनीति पर राहुल गांधी का एकाधिकार था. कांग्रेस जिसे तुरुप का इक्का मानकर चल रही थी उसके मुकाबले में अब उससे भी ज्यादा विश्वसनीय विकल्प खड़ा हो गया है. अखिलेश की उम्र राहुल से चार साल कम है. इसका मतलब है कि अगले तीस साल के दोनों के राजनीतिक सफर में बार-बार एक-दूसरे का टकराव होना है. राहुल को जल्द ही खुद को साबित करना होगा वरना अखिलेश उनके रास्ते में आ खड़े होंगे. कांग्रेस के लिए संकट की घड़ी है.’
संकट का काल मीडिया के लिए भी है. मुद्दे और बारीकियां उसके हाथों से फिसलती जा रही हैं. अंग्रेजी की सुविख्यात पत्रकार सागरिका घोष प्राइम टाइम पर अखिलेश से पूछ बैठती हैं, ‘अखिलेश… आपने अपनी पार्टी को तो बदल दिया है पर अपनी पार्टी को हिंदी बोलने की आदत से कब छुटकारा दिलवाएंगे.’ गौरतलब है कि अपने पूरे चुनावी अभियान के दौरान अंग्रेजी बोलने की क्षमता होते हुए भी अखिलेश ने अंग्रेजी मीडिया के साथ भी हिंदी में ही बात की थी. यह पहचान की राजनीति (आइडेंटिटी पॉलिटिक्स) का एक सकारात्मक पहलू है.
सागरिका गलत व्यक्ति से गलत सवाल पूछ रही थीं. सही व्यक्ति राहुल होते और सही सवाल होता, ‘राहुल, आप और आपकी पार्टी यह अंग्रेजियत का चोला कब उतारेगी?’ उत्तर प्रदेश की यही सच्चाई है.