सीधे सवाल, उलझे जवाब

क्या बलात्कार की सजा फांसी हो?
‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया.
जब जी चाहा कुचला मसला, जब जी चाहा दुत्कार दिया’
दिल्ली के जंतर मंतर पर जहां साहिर लुधियानवी की ये पंक्तियां गाते हुए कुछ युवा नुक्कड़ नाटक में लोगों को महिलाओं की व्यथा सुना रहे हैं वहीं उनके ठीक पीछे एक बड़े-से बैनर पर प्रधानमंत्री के नाम एक अपील भी लिखी है. इसका पहला बिंदु है ‘धारा 376 में मृत्यु दंड का प्रावधान किया जाए’. इनसे थोड़ी ही दूरी पर ‘भगत सिंह क्रांति सेना’ के कुछ लोग धरना दे रहे हैं. उनके अध्यक्ष तेजिंदर बग्गा की भूख हड़ताल का आज सातवां दिन है. उनकी भी पहली मांग यही है कि बलात्कारियों को फांसी की सजा हो.

जंतर मंतर का यह दृश्य पूरे देश के लोगों में व्याप्त उस आक्रोश की तस्वीर बयान करता है जो 16 दिसंबर की रात हुए गैंगरेप के बाद से लोगों में पैदा हुआ है. एक तरफ जहां पिछले 18 साल में भारत में कुल तीन फांसियां हुईं और यह चर्चा जोर पकड़ने लगी थी कि भारत को भी अधिकतर विकसित देशों की तरह मृत्युदंड को समाप्त कर देना चाहिए वहीं अब इस सजा का दायरा और बढ़ाने की मांग हो रही है. इस घटना के बाद महिलाओं की सुरक्षा संबंधी कानूनों में सुधार के लिए बनाई गई जस्टिस वर्मा समिति को भाजपा समेत हजारों संगठनों और व्यक्तियों के सुझाव प्राप्त हुए हैं जिनमे बलात्कार के लिए फांसी का प्रावधान बनाने की मांग की गई है.

लेकिन दिल्ली उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश राजिंदर सच्चर जैसे कई लोगों का मानना है कि फांसी देना इस समस्या का समाधान नहीं है. जस्टिस सच्चर कहते हैं, ‘यह तो सिद्ध हो ही चुका है कि फांसी देने से लोगों में वह डर पैदा नहीं होता जिससे अपराधों पर रोक लग सके. ऐसे में हमें आगे बढ़ते हुए फांसी को तो समाप्त ही कर देना चाहिए.’ दिल्ली में हुए विरोध प्रदर्शनों के अगुवा रहे ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन (आइसा) के कार्यकर्ता संदीप सिंह भी मानते हैं कि बलात्कार के लिए फांसी देने पर कई जगह तो पीड़ित को जिंदा ही नहीं छोड़ा जाएगा. इसके अलावा अधिकतर मामलों में अपराधी किसी न किसी तरह पीड़ित से जुड़ा होता है इसलिए बलात्कार का मामला दर्ज न करने के लिए पीड़ित पर कई तरह के दबाव बनाए जाएंगे जिससे ऐसे मामले सामने भी नहीं आ पाएंगे. संदीप बताते हैं, ‘जरूरत कानून को कठोर करने की नहीं बल्कि महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने की है. आज महिलाओं पर होने वाले कई अपराधों को तो हमारा कानून मानने से भी इनकार करता है. जिस तरह से जाति सूचक टिप्पणी करना अपराध माना गया है, उसी तरह लैंगिक टिप्पणियां करने वालों को भी दंडित किए जाने का प्रावधान कानून में होना चाहिए.’

कानून के जानकारों का मानना है कि बलात्कार के लिए उम्र कैद की सजा का प्रावधान कुछ कम कठोर नहीं है लेकिन दोष साबित होने की दर का बहुत ही कम होना एक बड़ी समस्या है. दिल्ली विश्वविद्यालय में विधि के प्रवक्ता संतोष शर्मा बताते हैं, ‘महिला उत्पीड़न से जुड़े मुद्दों में फास्ट ट्रैक कोर्ट के जरिए जल्दी न्याय देना एक सकारात्मक पहल होगी. आज लाखों की संख्या में ऐसे मामले लंबित हैं जिनमें सालों से किसी को सजा नहीं हो पाई है. यह एक बड़ा कारण है कि इन मामलों में लगातार वृद्धि हो रही है.’ मौजूदा कानून में बदलाव की बात करने पर संतोष कहते हैं, ‘बलात्कार की परिभाषा को और ज्यादा विस्तृत किया जाना भी आवश्यक है ताकि महिलाओं पर होने वाले अन्य यौन अपराधों को भी उसमें शामिल किया जा सके.’

दिल्ली में हुई इस नृशंस घटना से गुस्साए कई लोग यह मांग कर रहे हैं कि अपराधियों को सऊदी अरब की तरह सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए. लेकिन सवाल यह है कि क्या हम एक ऐसे देश के कानून को आदर्श बनाने की मांग कर रहे हैं जहां आज तक महिलाओं को वोट देने और गाड़ी चलाने तक के अधिकार नहीं दिए गए हैं और जिस देश में 2012 में हुई आखिरी फांसी जादू-टोना करने के आरोप में दे दी गई थी. जस्टिस सच्चर समेत कई कानूनी जानकारों का मानना है कि निश्चित ही महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित कानूनों में सुधार की जरूरत है लेकिन फांसी को बढ़ावा देना समस्या का समाधान नहीं बल्कि राज्य को भी बर्बर बनाने की ही एक पहल होगी.

क्या नाबालिग आरोपित को भी बाकियों जैसी सख्त सजा हो?
16 दिसंबर को दिल्ली में हुए सामूहिक बलात्कार का एक आरोपित 18 साल से कम उम्र का होने के चलते ‘किशोर अपराधी’ की श्रेणी में आता है. इसलिए उसे अन्य अपराधियों की तरह फांसी या आजीवन कारावास से दंडित नहीं किया जा सकता. इस तथ्य ने एक नई बहस को जन्म दे दिया है जिसमें किशोर की उम्र को 18 साल से घटाकर 16 साल किए जाने की मांग हो रही है. तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और बिहार सरकार के अलावा सैकड़ों संगठन केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेज चुके हैं कि अधिनियम में संशोधन करके किशोर की आयु को घटाकर 16 साल किया जाए.

वैसे किशोर न्याय अधिनियम, 1986 के तहत किशोर (जुवेनाइल) की आयु 16 साल ही तय की गई थी. 2000 में बाल अधिकारों पर हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मलेन के बाद इस अधिनियम में बदलाव किया गया और इसे 18 साल कर दिया गया. इस अधिनियम में संशोधन भी हुए हैं लेकिन किशोर की उम्र को हमेशा ही 18 साल रखा गया. इस कानून के तहत 18 साल से कम उम्र के किसी किशोर को उसके द्वारा किए गए अपराध के लिए तीन वर्ष से अधिक की सजा नहीं दी जा सकती. साथ ही किशोर अपराधियों को अन्य अपराधियों के साथ जेल में रखने के बजाय बाल सुधार गृह में रखा जाता है.

अब इस पर बहस हो रही है. सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता संजय पारिख किशोर की उम्र को घटाकर 16 साल करने के पक्ष में हैं. वे कहते हैं, ‘कई वैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों के तर्क भी बताते हैं कि आजकल के किशोर तुलनात्मक रूप से जल्दी परिपक्व हो जाते हैं. उन्हें इतने माध्यमों से सूचनाएं और जानकारियां मिल रही हैं कि 16 वर्ष की उम्र में वे तय कर सकते हैं कि वे जो कर रहे हैं वह सही है या नहीं. तकनीक का विकास इसका एक महत्वपूर्ण कारण है.’ उधर, विधि प्रवक्ता संतोष शर्मा मानते हैं कि तकनीक जितनी तेजी से युवाओं को सकारात्मक दिशा में प्रभावित कर रही है उतनी ही तेजी से उन्हें गलत दिशा में भी झोंक रही है और गलत कार्यों के लिए आकर्षित कर रही है. वे कहते हैं, ‘16 से 18 साल की आयु ऐसी होती है जहां बच्चे आसानी से अपने माहौल और अपने आसपास के लोगों के व्यवहार से प्रभावित होते हैं. ऐसे में उनकी किसी भी गलती के लिए उनका समाज भी उतना ही दोषी है.’

भारतीय कानूनों के अनुसार एक वयस्क नागरिक को दिए जाने वाले सभी अधिकार 18 साल की उम्र के बाद ही दिए जाते हैं. ऐसे में कई लोगों का यह भी मानना है कि जब अधिकारों के लिए एक व्यक्ति को 18 साल में परिपक्व माना जाता है तो फिर उसकी गलतियों के लिए उसे 16 साल में ही परिपक्व कैसे माना जा सकता है. सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी कहती हैं, ‘एक मामले के आधार पर कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाया जाना चाहिए जो आने वाले वक्त में अन्याय का कारण बन जाए. कल यदि कोई 15 या 14 साल का बच्चा ऐसा ही जघन्य अपराध करता है तो इस आयु सीमा को कहां तक कम करेंगे? बच्चों में सुधरने की प्रबल संभावनाएं होती हैं जिसका उन्हें पूरा मौका दिया जाना चाहिए. यदि उन्हें भी बाकी अपराधियों के साथ जेल में डाल दिया जाए तो उनके सुधरने की गुंजाइश ही नहीं रहेगी.’ हालांकि वे यह भी मानती हैं कि इस मामले में जिस क्रूरता से अपराध किया गया है उसे देखते हुए सभी आरोपितों को कड़ी-से-कड़ी सजा होनी चाहिए.

भारतीय कानूनों के अनुसार एक वयस्क नागरिक को दिए जाने वाले सभी अधिकार 18 साल की उम्र के बाद ही दिए जाते हैं.

किशोर के आयु निर्धारण पर हो रही इस बहस को काफी हद तक सुलझाते दिखते संतोष शर्मा कहते हैं, ‘जैसे दहेज के मामलों में सात साल की समय सीमा तय की गई है वैसे ही यहां भी एक सीमा तो तय होनी ही है. भारतीय दंड संहिता में व्यक्ति की आयु को कई वर्गों में बांटकर यह देखा जाता है कि अपराध करते वक्त उसकी समझ और अन्य कारक क्या थे और फिर उसी आधार पर सजा निर्धारित की जाती है. ऐसा ही किशोर आरोपितों से जुड़े मामलों में भी किया जा सकता है. इस तरह से विशेष श्रेणियों में बांटकर न तो जघन्य अपराध करने वाले किशोर अपराधी पूर्णतः प्रतिरक्षित रह सकेंगे और न ही किसी अबोध किशोर को अनावश्यक दंड मिलेगा.’

बहरहाल जो भी कानून बनेगा उससे दिल्ली मामले का यह किशोर आरोपित प्रभावित नहीं होगा कि इस कानून को पूर्व प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता. यह आगे के लिए ही प्रभावी होगा.

क्या बलात्कार पीड़िता की पहचान उजागर की जानी चाहिए?
दामिनी, जागृति, अमानत, निर्भया जैसे कितने ही नामों से लोगों ने उस 23 साल की लड़की को जाना और लाखों की संख्या में उसके लिए न्याय की मांग करते हुए सड़कों पर उतर आए. उसका असली नाम, उसकी पहचान इसलिए भी महत्वपूर्ण नहीं थी क्योंकि उसकी जगह देश की कोई भी आम लड़की हो सकती थी. बिना उस लड़की का नाम जाने, बिना उसकी पहचान जाने ही हजारों लोगों ने एक साथ मिलकर उसके अपराधियों को सजा देने की मांग करते हुए लाठी-डंडे भी खाए और तेज पानी की बौछारें भी झेलीं. उस लड़की के गुजर जाने के बाद जब कुछ अखबारों ने उसका असली नाम प्रकाशित कर दिया तो यह पूरे देश में बहस का एक मुद्दा बन गया. कांग्रेस नेता शशि थरूर ने उसकी असली पहचान उजागर होने का समर्थन करते हुए इस बात की पैरवी की कि यदि उसके अभिभावक तैयार हों तो नए कानून को उस बहादुर लड़की के नाम पर बनाया जा सकता है. लड़की के परिजनों ने भी इस बात पर सहमति जताई है कि यदि नए कानून का नाम उनकी बेटी के नाम पर रखा जाता है तो इससे उन्हें कोई परेशानी नहीं है.

मौजूदा कानून के अनुसार बलात्कार या यौन उत्पीड़न जैसे मामलों में पीड़ित की पहचान उजागर करना प्रतिबंधित एवं दंडनीय है. यदि पीड़ित की मृत्यु हो गई है तो उसके परिजनों की लिखित अनुमति पर उसकी पहचान उजागर की जा सकती है. कई लोगों का तर्क है कि बलात्कार जैसी घटना किसी के साथ भी हो सकती है और इसमें पीड़ित का कोई भी दोष नहीं, तो फिर उसकी पहचान गुप्त क्यों रखी जाए. उनके मुताबिक बलात्कार के मामले में पीड़िता और उसके परिजनों को नहीं बल्कि अपराधी और उसके परिजनों को शर्मिंदा होना चाहिए. जैसे रंगा-बिल्ला मामले के पीड़ित गीता चोपड़ा और संजय चोपड़ा के नाम पर बहादुरी पुरस्कार दिया जाता है वैसे ही इस लड़की के नाम पर नए कानून बनाए जाने की मांग हो रही है.

जानकार बताते हैं कि फिलहाल ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है जिसके आधार पर कानून को किसी व्यक्ति विशेष का नाम दिया जाए, लेकिन संसद में प्रस्ताव पारित करके ऐसा किया भी जा सकता है. इस बहस से ये सवाल भी उठने लगे हैं कि बलात्कार के मामलों में पीड़िता की पहचान उजागर करने के क्या प्रभाव हो सकते हैं. जस्टिस सच्चर कहते हैं, ‘दिल्ली का यह मामला राष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चित हो चुका है इसलिए लोगों की सहानुभूति पीड़ित और उसके परिजनों के साथ है. लेकिन बलात्कार के मामलों में आज भी समाज पीड़ित को एक आम नागरिक की तरह नहीं स्वीकार करता इसलिए उसकी पहचान उजागर करने की प्रथा शुरू नहीं होनी चाहिए’.

बलात्कार के मामलों में अधिकतर जगह पीड़िता को ही किसी न किसी तरह से दोषी मान लिया जाता है. दिल्ली के इस चर्चित मामले में भी जहां सारा देश ऐसे अपराध की निंदा कर रहा है, कई बड़े नेता और धर्मगुरु पीड़िता के ही गलत होने की बात कर चुके हैं. ऐसे में बलात्कार पीड़िता की पहचान उजागर करने के और भी ज्यादा दुष्परिणाम हो सकते हैं. पीड़िता की पहचान के साथ ही उसके व्यवहार, उसकी जीवन शैली, पहनावे, परिवार, संस्कार, जाति समेत तमाम मुद्दों को ऐसे लोगों द्वारा चर्चा का विषय बनाया जाएगा जो किसी भी तरह से पीड़िता में ही दोष खोजने को तैयार बैठे हैं. संजय पारिख कहते हैं, ‘पीड़िता की पहचान करके हम उसकी मुश्किलें और ज्यादा बढ़ा देंगे.’

बलात्कार के मामलों में पीड़िता की पहचान को उजागर करने का नियम बनाने से पहले एक अहम सवाल उठता है. क्या हम इसके साथ उसे और उसके परिजनों को वह माहौल भी दे पाएंगे जहां उन्हें इस घटना की वजह से प्रभावित न होना पड़े या जहां उनकी सामाजिक स्वीकार्यता हर तरह से बाकी नागरिकों के बराबर ही हो?      

क्या हम सामाजिक रूप से इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि कोई उम्मीद नहीं जगती?
28 वर्षीय युवक ने अपने बयान में बताया कि उसकी मित्र के सामूहिक बलात्कार के बाद उसे लोहे की सरियों से पीटा गया और फिर उन्हीं सरियों से उसका पेट फाड़ दिया गया. उसका कहना था, ‘पहचान छुपाने के लिए उन्होंने हमसे हमारा पूरा सामान…मोबाइल…पर्स और कपड़े सब कुछ ले लिया. पूरे कपड़े उतरवा लिए थे और फिर हमें सड़क पर फेंक दिया था. उसके बाद उन्होंने बस से मेरी दोस्त को कुचलने की कोशिश भी की लेकिन मैं उसे खींच कर किनारे ले आया.’ इस वीभत्स सामूहिक बलात्कार के बाद शुरू होने वाले त्रासदियों के सिलसिले के बारे में बताते युवक का कहना था कि वह और उसकी मित्र खून से लथपथ सड़क पर पड़े हुए थे लेकिन 25 मिनट तक कोई भी उनकी मदद के लिए नहीं रुका. उसके शब्दों में, ‘मैं लगातार मदद के लिए हाथ हिलाता रहा…गाड़ियां हमारे पास आकर स्पीड धीमी करतीं और लोग हमें देखते…और फिर देख कर आगे निकल जाते. फिर किसी ने पुलिस को फोन किया. लगभग 45 मिनट बाद तीन पीसीआर वैन आईं. वे लोग आधे घंटे तक इसी बात पर लड़ते रहे कि घटना किसके थाना क्षेत्र में आती है. हम एंबुलेंस का इंतजार करते रहे लेकिन आखिर में हमें पीसीआर वैन में ही अस्पताल जाना पड़ा. किसी ने मेरी दोस्त को हाथ तक नहीं लगाया, मैंने खुद उसे उठा कर गाड़ी में रखा’.

16 दिसंबर की रात हुए इस घटनाक्रम के बाद पीड़िता को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में दाखिल करवाया गया था. लगभग 15 दिन के संघर्ष के बाद उसने दम तोड़ दिया. लेकिन हर दिन भारत के आम शहरों और कस्बों में होने वाली बलात्कार की सैकड़ों घटनाओं से इतर देश की राजधानी में हुए इस हिंसा के इस तांडव ने शहरी मध्यवर्ग को झकझोर दिया. पानी की तेज बौछारों से लेकर आंसू गैस के गोलों और बंद मेट्रो स्टेशनों के बावजूद हजारों की तादाद में प्रदर्शनकारी सड़कों पर उतरे और दिल्ली से लेकर चेन्नई तक पहली बार भारत महिला हिंसा के खिलाफ एक होता नजर आया.

इसके बावजूद इस घटना ने समाज के बदसूरत चेहरे को पूरी निर्ममता से उजागर करने के साथ-साथ कुछ असहज सवाल भी हमारे सामने रखे हैं. पीड़िता के मित्र का बयान एक ओर जहां बलात्कार के बाद की अंतहीन यातना की ओर इशारा करता है वहीं दूसरी ओर आपराधिक स्तर तक संवेदनहीन हो चुके समाज की झलक भी देता है. बलात्कारी के लिए फांसी की सजा के साथ-साथ यौन उत्पीड़न के खिलाफ कड़ी सजा की बढ़ती मांग के बीच स्त्रियों को लेकर मौजूदा सामाजिक नजरिये के संदर्भ में भी गंभीर बहस चल रही है.

वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता संजय पारिख सामाजिक सोच में बदलाव के सवाल पर कहते हैं, ‘सामाजिक सोच में बदलाव लाने का तर्क अपने-आप में बहुत जटिल है. एक तो हमें आम लोगों की सोच में बदलाव लाना होगा और दूसरा जो लोग लोकतंत्र की आधारभूत संरचना को क्रियान्वित करने में शामिल हैं, उनकी सोच बदलना भी जरूरी है. जैसे पुलिसकर्मी, वकील, जज और डाक्टरों की सोच. बलात्कार के ज्यादातर मामलों में पुलिस एफआईआर तक दर्ज नहीं करती और पीड़िता पर समझौता करने के लिए दबाव बनाती है. डॉक्टर भी पीड़िता के साथ संवेदनशील व्यवहार करने के बजाय उसे परोक्ष रूप से प्रताड़ित करते हैं. वकील जरूरत न होने पर भी क्रॉस एक्जामिनेशन के नाम पर पीड़िता को  बार-बार कोर्ट रूम में अपमानित करते हैं. और तो और, मैंने खुद अपनी कई सुनवाइयों के दौरान जजों तक को महिला-विरोधी टिप्पणियां करते हुए देखा है. अब इन सबकी सोच कौन बदलेगा?’

उधर, दिल्ली गैंगरेप मामले में आवाज बुलंद करने वाली महिला अधिकार कार्यकर्ता कविता कृष्णन का मानना है कि एक समाज के तौर पर हमारे अंदर स्त्रियों को लेकर बहुत गहरी उपेक्षा और संवेदनहीनता मौजूद है. तहलका से बातचीत में वे कहती हैं, ‘दिल्ली गैंग रेप में बलात्कार के बाद जो कुछ भी हुआ वह बताता है कि हम महिलाओं के साथ-साथ इंसानियत के प्रति भी कितने असंवेदनशील हो चुके हैं. इस घटना और इसके बाद होने वाले सैकड़ों विरोध प्रदर्शनों के दौरान मैंने कई नई चीजें देखीं. उदाहरण के लिए, एक बार हमारे आजादी वाले नारों से एक आदमी परेशान हो गया और उसने मुझसे कहा कि इस तरह तो उसकी बहनें और बेटियां भी आजादी मांगने लगेंगी और इस ख्याल से उसे बहुत परेशानी हो रही है. मुझे लगता है उसके जैसी परेशानी बहुत सारे लोगों को हुई होगी और हमें ऐसी परेशानी का स्वागत करना चाहिए. क्योंकि जब तक ईमानदार मंथन नहीं होगा, चीजें नहीं बदलेंगी और सामाजिक सोच बदलने के लिए अभी हमें शुरू से अंत तक बहुत कुछ बदलने की जरूरत है’.

दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ जारी विरोध में शामिल कुछ समूहों का मानना है कि इन सामाजिक विषमताओं का हल भी समाज में से ही निकल कर आएगा. दिल्ली गैंगरेप के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों की नेतृत्व पंक्ति में शामिल ऑल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन (आइसा) के अध्यक्ष संदीप सिंह के अनुसार मौजूदा सोच का विकल्प भी इसी समाज से निकल कर आ रहा है. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘इस सामूहिक बलात्कार के बाद पीड़ित घंटों सड़क पर खून से लथपथ पड़े रहे और कोई उनकी मदद के लिए आगे नहीं आया. यह बताता है कि हमारा समाज कितना अमानवीय हो गया है. लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि इन सबके बाद इसी समाज ने इस घटना का विरोध भी किया. यही लोग हजारों की संख्या में सड़कों पर उतरे और उन्होंने दिल्ली को महिलाओं के लिए एक सुरक्षित शहर बनाने की मुहिम की शुरुआत की. इस लिहाज से देखें तो इस आंदोलन ने सुन्न कर देने वाली प्रतिस्पर्धा की खाई को पाटकर लोगों को और ज्यादा मानवीय बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.’                             

‘अगर हम उसे इलाज के लिए सिंगापुर नगृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंहहीं भेजते तो भी आप सवाल करते’

पिछले दिनों देश की राजधानी में एक बस में हुए सामूहिक बलात्कार ने जनता की चेतना को झकझोर कर रख दिया. इस हादसे ने पुलिस और प्रशासन पर कई सवाल खड़े किए गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह से जवाब तलाशते अशर खान.

आपको नहीं लगता है कि तमाम अपराध मानसिकता की समस्या हैं? महिलाओं को लेकर पुरुषों का नजरिया एक समस्या है और इसमें बदलाव आना चाहिए?
सरकार और पुलिसकर्मियों को उतना ही जिम्मेदार मानने के साथ मैं सोचता हूं कि आप जो कह रहे हैं उस पर व्यापक तौर पर विचार करना होगा. खास तौर पर जिस तरह से महिलाएं सामने आई हैं और उन्होंने अपने बुरे अनुभव बांटे हैं उससे पता चलता है कि हमें इस ओर वास्तव में ध्यान देना होगा. मैं कहीं पढ़ रहा था कि दलाई लामा ने कहा था कि पश्चिम में नैतिकता की शिक्षा के लिए बाकायदा कक्षा लगती है. लेकिन हमारे यहां इसे तवज्जो नहीं दी जाती. करीब 10,000 साल पहले नैतिकता भारत में बहुत बड़ी चीज थी. यह हमारी सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा थी. लेकिन हम इसे भूल गए और मेरे विचार से अब वक्त आ गया है कि हम भुलाए जा चुके इस सबक को दोबारा सीखें.

दिल्ली में हाल ही में हुए सामूहिक बलात्कार के बाद सरकार ऐसी घटनाओं का दोहराव रोकने के लिए क्या उपाय कर रही है?
हमने दिल्ली को सुरक्षित बनाने के लिए कई उपाय किए हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि जिस तरह दिल्ली के लोग सड़कों पर आए हैं उससे साबित हुआ है कि दिल्ली की सड़कों पर महिलाओं की सुरक्षा किस कदर संकट में है. हमने दो समितियों का गठन किया है जो एक तय समय के भीतर रिपोर्ट सौंपेंगी. एक समिति कड़े कानूनों की जरूरत पर नजर डालेगी, जबकि दूसरी यह जांच करेगी कि उस हौलनाक रात को आखिर ठीक-ठीक क्या हुआ था. क्या सरकारी स्तर पर कोई शिथिलता थी और भविष्य में ऐसा कुछ रोकने के लिए क्या कुछ किया जा सकता है.

दिल्ली की सड़कों पर तमाम विरोध प्रदर्शन देखने को मिले, लेकिन प्रदर्शनकारियों से निपटने के लिए आंसू गैस के गोले छोड़े गए और पानी की बौछार की गई. सरकार इस बात की क्या सफाई देगी?

न केवल मैं बल्कि पूरी सरकार उस गुस्से के साथ थी जिसका प्रदर्शन लोग कर रहे थे. यही वजह है कि हमने कड़े कदम उठाए हैं. मैंने कई दफा माफी मांगी और एक बार फिर उन निर्दोष प्रदर्शनकारियों से क्षमा मांगता हूं जो पुलिस कार्रवाई में घायल हुए. लेकिन हमें चीजों को सही संदर्भ में रखना होगा. मैं फिर कहूंगा कि 99 फीसदी प्रदर्शनकारी तो शांतिपूर्वक प्रदर्शन करने वाले थे जबकि बाकी बचे एक फीसदी तमाम गड़बड़ी के लिए जिम्मेदार थे. यहां तक कि एक पुलिसकर्मी को अपनी जान गंवानी पड़ी. कई पुलिसकर्मियों को सिर पर चोटें आईं. सरकारी संपत्ति जलाई गई, कारें पलट दी गईं और बैरिकेड तोड़े गए. इन एक फीसदी लोगों ने माहौल खराब किया. मैं एक बार फिर उन मासूम लोगों से माफी मांगता हूं जिनका कोई दोष नहीं था लेकिन जो पुलिस कार्रवाई के शिकार हुए.

चूंकि दिल्ली पुलिस गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करती है तो ऐसे में आप कैसे सुनिश्चित करेंगे कि पुलिस व्यवस्था चाक चौबंद हो?
उस घटना के बाद मैंने एक रात चुपचाप बस में सफर किया. मैंने बस में सफर कर रहे लोगों से बात की और मैं पुलिस व्यवस्था के खिलाफ उनका गुस्सा अच्छी तरह समझ सकता हूं. यही वजह है कि मैंने मंत्रालय के अधिकारियों और अपने वरिष्ठ मंत्री से बात की. हमने ऐसे कदम उठाए हैं जिनकी मदद से उन समस्याओं को दूर किया जा सके जिनको मैं जान पाया. मैं आगे भी इस तरह की बस यात्राएं करता रहूंगा. साथ ही मैं शहर के थानों का भी चुपचाप दौरा करूंगा ताकि मुझे पता चले कि आम लोग किन हालात से गुजरते हैं.

ऐसे भी आरोप हैं कि पीड़िता को सिंगापुर इसलिए भेजा गया ताकि विरोध प्रदर्शन से ध्यान हटाया जा सके.
हमने पीड़िता को सिंगापुर इसलिए भेजा ताकि उसे सबसे बेहतर चिकित्सा मुहैया कराई जा सके. अगर हम उसे नहीं भेजते तो आप मुझसे पूछ रहे होते कि हमने उसे क्यों इलाज के लिए कहीं और नहीं भेजा. हमने उसे सिंगापुर इसलिए भेजा क्योंकि दिल्ली के सबसे नजदीक वहीं इतनी अच्छी चिकित्सा सुविधाएं थीं. हमने उसे बचाने की हर संभव कोशिश की लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं हो सका.

पीड़िता के अंतिम संस्कार को गोपनीय क्यों बनाया गया?
जहां तक अंतिम संस्कार की बात है, तो परिवार को इत्तला कर दी गई थी. परिवार ने यह तय किया कि अंतिम संस्कार कहां होगा. मैं अंतिम संस्कार में मौजूद था और उन्हें समूचे धार्मिक रीति-रिवाजों के साथ अंजाम दिया गया. यह एक निहायत दुखद मामला था. वहां कोई गोपनीयता नहीं बरती गई.