पंजाब कांग्रेस में पूर्व क्रिकेटर और पूर्व सांसद नवजोत सिंह सिद्धू के पार्टी प्रदेश अध्यक्ष बनने से राजनीतिक हलचल तेज़ हो गयी है। देश भर में इस बात की चर्चा है कि कांग्रेस पंजाब में बदलाव के साथ-साथ देश के अन्य राज्यों में भी कुछ अलग करना चाहती है। सिद्धू के पंजाब इकाई के अध्यक्ष बनते ही उन्हें बधाई देने वालों का ताँता लग गया है। 117 सीटों वाले पंजाब में इन दिनों कांग्रेस के पास 77 विधायक हैं। इनमें से क़रीब 62 सिद्धू के साथ हैं। हालाँकि सिद्धू का दावा है कि उनके साथ इससे ज़्यादा विधायक खड़े हैं।
पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भले ही कई दिन तक ख़ामोश रहे, लेकिन सन्तुष्ट नहीं थे। उनकी चुप्पी को राजनीतिक गलियारों में नाराज़गी माना जा रहा था। क्योंकि वह न तो नवजोत सिंह सिद्धू को बधाई देने के लिए मिले थे और न ही उनसे कोई बात की थी। तब कैप्टन के मीडिया सलाहकार रवीन ठुकराल ने सिद्धू के पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कहा था कि नवजोत सिंह सिद्धू ने मुख्यमंत्री से समय नहीं माँगा है। मुख्यमंत्री के रुख़ में कोई बदलाव नहीं है, वह सिद्धू से तब तक नहीं मिलेंगे, जब तक वह सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री पर हमले वाले मामले को लेकर सार्वजनिक रूप से माफ़ी नहीं माँग लेते। लेकिन बाद में 23 जुलाई को दोनों नेताओं साथ में मंच साझा किया। सिद्धू की ताजपोशी में शामिल कैप्टन ने कहा कि हम पंजाब के लिए एक साथ काम करेंगे। न केवल पंजाब के लिए, बल्कि भारत के लिए। इससे पहले सिद्धू ने पंजाब भवन में कैप्टन के साथ चाय पर मुलाक़ात की। दोनों नेताओं की इस मुलाक़ात को सकारात्मक बताया गया।
विदित हो, जब सिद्धू भाजपा में थे, तब कांग्रेस पर उनके व्यंग्यबाणों और कांग्रेस में आने के बाद कैप्टन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था, जिसे कैप्टन शायद भुला नहीं पा रहे होंगे। हालाँकि इससे पहले कैप्टन ने उनसे मिलने पहुँचे पूर्व पंजाब प्रभारी हरीश रावत से कहा कि वे पार्टी हाईकमान के आदेशों का पालन करेंगे। इधर प्रदेश अध्यक्ष बनते ही नवजोत सिंह सिद्धू ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ अपने पिता की एक तस्वीर ट्वीट करके यह दिखाने की कोशिश की है कि वह पुराने और पारम्पारिक कांग्रेसी हैं।
उन्होंने लिखा- ‘उनके पिता भी एक कांग्रेसी थे। समृद्धि, विशेषाधिकार और स्वतंत्रता को केवल कुछ के बीच नहीं, बल्कि सभी के साथ साझा करने वाले उनके पिता शाही घराने को छोड़कर आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे। देशभक्ति के लिए उन्हें मौत की सज़ा सुनायी गयी थी। आज उसी सपने को पूरा करने के लिए और पंजाब कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए जो विश्वास व महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी ने सौंपी है; उसके लिए वह गाँधी परिवार का धन्यवाद करते हैं।’
सिद्धू ने एक और ट्वीट में कहा कि ‘जीतेगा पंजाब’ के मिशन को पूरा करने के लिए वह पंजाब में कांग्रेस परिवार के हर सदस्य के साथ मिलकर काम करेंगे। बता दें कि सिद्धू से पहले कांग्रेस के पंजाब प्रभारी उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत थे।
अब प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के अलावा पंजाब में चार कार्यकारी अध्यक्ष सुखविंदर सिंह डैनी, संगत सिंह गिलजियां, कुलजीत सिंह नागरा और पवन गोयल भी होंगे। सुखविंदर सिंह डैनी दलित नेता हैं और 2017 में पहली बार चुनकर विधानसभा पहुँचे हैं। पवन गोयल प्लानिंग बोर्ड, फ़रीदकोट के चेयरमैन हैं। वह पुराने कांग्रेसी हैं।
संगत सिंह गिलजियां पंजाब लैंड यूज एंड वेस्ट बोर्ड के डायरेक्टर, एआईसीसी और पीपीसीसी के सदस्य और गाँव के सरपंच रह चुके हैं। वह पिछड़ा वर्ग के नेता हैं और 2007, 2012 व 2017 में लगातार विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं।
कुलजीत सिंह नागरा जाट सिख हैं और अभी सिक्किम, नगालैंड और त्रिपुरा के कांग्रेस प्रभारी हैं। वह 1995 से लेकर 1997 तक नागरा पंजाब युवा कांग्रेस के महासचिव भी रहे हैं और 2012 व 2017 में विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं।
पवन गोयल मालवा क्षेत्र से हैं और पंजाब में जाति सन्तुलन बनाने का काम करेंगे, जिससे पंजाब में कांग्रेस वोटबैंक कम-से-कम बरक़रार रहे। बताया जा रहा है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह किसी भी क़ीमत पर सिद्धू को पंजाब इकाई का अध्यक्ष बनाये जाने के पक्ष में नहीं थे और इसके लिए उन्होंने अपने धुरविरोधी प्रताप सिंह बाजवा से भी हाथ मिलाया। लेकिन उनकी यह जुगत भी उनके काम नहीं आयी।
हालाँकि कांग्रेस जानती है कि कैप्टन एक पुराने और निपुण राजनीतिज्ञ हैं, जो पंजाब में राजनीति की लम्बी पारी खेल चुके हैं और दूसरी बार पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर कुर्सी पर विराजमान हैं। उन्होंने दोनों बार मुख्यमंत्री चेहरे के रूप में कांग्रेस की तरफ़ से दावेदारी करके शिरोमणि अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल से कुर्सी छीनी है। उन्हें पंजाब का एक दमदार और गहरी सोच वाला नेता माना जाता है। लेकिन अब पंजाब को एक दमदार युवा चेहरा चाहिए था।
यूँ भी कैप्टन ने पिछली बार ख़ुद ही आख़िरी बार मुख्यमंत्री बनने की इच्छा ज़ाहिर की थी। लेकिन अब उनके कुर्सी मोह से नहीं लगता कि वह अभी राजनीति से संन्यास लेना चाहते हैं। शायद इसीलिए शुरू-शुरू में वह सिद्धू से इतने नाराज़ रहे कि उन्होंने एक लंच पार्टी रखी, जिसमें सिद्धू को आमंत्रित तक नहीं किया। कैप्टन के इस निर्णय को भी पार्टी नेतृत्व के फ़ैसले के विरोध के तौर पर देखा जा रहा है। हालाँकि मुख्यमंत्री कार्यालय की तरफ़ से इस तरह की ख़बरों का उस समय खण्डन किया गया था।
इधर प्रदेश अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी सँभालने के बाद सिद्धू की चुनौतियाँ बड़ी हैं और अब उनके कन्धों पर एक बड़ी ज़िम्मेदारी है, जिसमें सफल होकर ही वह भविष्य में एक सफल राजनीतिज्ञ बन सकेंगे। साथ ही पंजाब अध्यक्ष के रूप में उनकी सफलता / असफलता उनके भविष्य का रास्ता तय करेगी। फ़िलहाल तो वह पंजाब के मंत्रियों, विधायकों, नेताओं से मुलाक़ात में जुटे हैं। क्योंकि अगले साल ही पंजाब में विधानसभा चुनाव हैं। नवजोत सिंह सिद्धू अपने सन् 1983 से लेकर सन् 1999 तक के 17 साल के क्रिकेट करियर के बाद क्रिकेट कमेंटेटर (टीकाकार) के रूप में उभरे और इसके बाद राजनीति की तरफ़ रुख़ किया।
सन् 1988 में उन्हें गुरनामसिंह नाम के एक शख़्स की ग़ैर-इरादतन हत्या के सिलसिले में सह-आरोपी बनाया गया और पटियाला पुलिस ने गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया था। उन पर गुरनामसिंह की हत्या में मुख्य आरोपी भूपिन्दर सिंह सन्धू की सहायता का आरोप था, जिसे उन्होंने शुरू से ही सिरे से नकारा था। सन् 2004 में उन्होंने भाजपा के टिकट पर अमृतसर लोकसभा चुनाव जीता। जब वह सांसद बन गये, तो उनके ख़िलाफ़ फिर पुराने मामले की फाइल खोल दी गयी और सन् 2006 में उन पर मुक़दमा चलाया गया और ग़ैर-इरादतन हत्या के लिए उन्हें तीन साल क़ैद की सज़ा सुनायी गयी। सज़ा का आदेश होते ही उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से जनवरी, 2007 में त्याग-पत्र देकर उच्चतम न्यायालय में याचिका लगा दी।
उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा उन्हें दी गयी सज़ा पर रोक लगाते हुए फरवरी, 2007 में अमृतसर लोकसभा सीट से दोबारा चुनाव लडऩे की अनुमति दे दी। इसके बाद सन् 2007 में हुए उप-चुनाव में उन्होंने सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के पंजाब राज्य के पूर्व वित्त मंत्री सुरिन्दर सिंगला को भारी अन्तर से हराकर अमृतसर की सीट पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया। सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में भी वे अमृतसर की सीट से तीसरी बार विजयी हुए। हालाँकि सन् 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद उनके भाजपा से राजनीतिक सम्बन्ध बिगडऩे लगे और उन्होंने सन् 2016 में भाजपा का दामन छोड़कर सन् 2017 में कांग्रेस का हाथ पकड़ लिया।
इसके बाद सन् 2018 में सिद्धू को तब एक और झटका लगा, जब पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले का समर्थन किया, जिसमें 1998 के ग़ैर-इरादतन मामले में सिद्धू को दोषी ठहराया गया था। सन् 2019 के लोकसभा चुनावों में आठ संसदीय सीटें जीतने के बाद अमरिंदर सिंह का राजनीतिक क़द और बढ़ा और उन्होंने सिद्धू पर सीधा निशाना साधना शुरू किया। इसके बाद सिद्धू ने अमरिंदर सिंह को घेरना शुरू कर दिया।
इस लड़ाई में अमरिंदर ने सिद्धू को एक नॉन-परफॉर्मर कहा और उनसे स्थानीय निकाय विभाग वापस ले लिया। उन्हें सन् 2019 में अमरिंदर मंत्रिमंडल से भी इस्तीफ़ा देना पड़ा। अब सिद्धू ने कांग्रेस से अपने पुराने सम्बन्धों और युवा नेता व वाक्पटुता के बल पर पंजाब नेतृत्व की कुर्सी हथियाने की ओर पहला क़दम बढ़ा दिया है, जो कि काफ़ी महत्त्वपूर्ण और अब उनके पंजाब अध्यक्ष बनने को कैप्टन पर उनकी जीत के रूप में देखा जा रहा है।
कुछ राजनीति के जानकार यह भी मान रहे हैं कि कांग्रेस नवजोत सिंह सिद्धू की वाक्पटुता और राजनीतिक पैंतरों का इस्तेमाल पाँच राज्यों में होने वाले चुनावों, विशेष रूप से पंजाब के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में कर सकती है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सिद्धू न केवल अपनी बातों से जनता का मन मोह लेते हैं, बल्कि राजनीतिक मंच पर विपक्ष को पूरी तरह घेर लेते हैं। उनका दिमाग़ भी बहुत तेज़ है और भाषाओं, प्रदेशों व क्षेत्रों के मुद्दों पर उनकी गहरी पकड़ है। ज़ाहिर है कांग्रेस को वैसे भी हरीश रावत को पंजाब से छुट्टी देनी थी; क्योंकि सम्भवत: उत्तराखण्ड में कांग्रेस की तरफ़ से वही मुख्यमंत्री चेहरा होंगे और पार्टी की जीत सुनिश्चित करेंगे। वहीं पंजाब में भी अब कांग्रेस को नया और युवा चेहरा चाहिए था। कुछ राजनीतिज्ञों का मानना है कि पंजाब में अगर कांग्रेस फिर से सत्ता में आयी, तो सम्भव है कि सिद्धू को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया जाए, जो कि वह चाहते भी हैं।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)