वफादारी किसी ब्लैंक चेक जैसी नहीं होती। यह किसी के जीवन का ऐसा हिस्सा है, जो केवल तभी काम करता है जब चीज़ें निश्चित हों और समय प्रामाणिक हो। सत्ता में रहने वाले जब इसे एक अधीनता के रूप में मानने की भूल कर बैठते हैं, तो उन्हें अक्सर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। कांग्रेस और गाँधी परिवार के साथ हाल में ज्योतिरादित्य सिंधिया के मामले में यही हुआ, जिन्हें अक्सर कांग्रेस के वंशज राहुल गाँधी के ‘दाहिने हाथ’ के रूप में वर्णित किया जाता रहा था। यह न तो कोई अतिशयोक्ति थी और न मिथ्य। क्योंकि सिंधिया ने कांग्रेस में बिताये तमाम वर्षों में शायद ही कभी इस लक्ष्मण रेखा को लांघा हो।
उनके हथियार डाल देने का एक उदाहरण उनके गृह राज्य मध्य प्रदेश में 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद का है। जब पार्टी नेतृत्व ने मुख्यमंत्री के रूप में कमलनाथ को सिंधिया के मुकाबले तरजीह दी। सिंधिया ने इस कड़ुवी गोली को भी निगल लिया। यदि उन्होंने राजस्थान के अपने समकक्ष सचिन पायलट की तरह मज़बूत सौदेबाज़ी की होती, तो सिंधिया की राजनीति की पटकथा आज अलग होती। याद करें, कांग्रेस ने जब अशोक गहलोत को राजस्थान के मुख्यमंत्री के रूप में चुना था, तो पायलट ने इस पर कड़ा रुख अपनाया था। पायलट ने इसे भाँपते ही उच्च पद के लिए दावा ठोक दिया था, उसी के बाद उन्हें उप मुख्यमंत्री पद के लिए नामित किया गया था।
इसके विपरीत, सिंधिया की आकांक्षाओं पर विचार तक नहीं किया गया। उनकी चुप्पी ही काफी थी। लेकिन नेतृत्व ने इसे नहीं सुना, शायद इस भरोसे कि सिंधिया पार्टी को नुकसान पहुँचाने के लिए कुछ भी नहीं करेंगे और यह भी कि गाँधी परिवार के साथ उनके करीबी रिश्ते हैं। पार्टी ने अपनी इस सोच को सिंधिया के मामले में एक गारंटी की तरह मान लिया।
यह उनकी पहली गलती थी। यह उन्हें एक पद से वंचित कर देने भर की बात नहीं थी, बल्कि एक बड़ा सवाल उठा कि क्या किसी की बफादारी की यही कीमत चुकानी चाहिए? जो लोग आज सिंधिया को नीचा दिखा रहे हैं और उनके इस कदम को राजनीतिक अवसरवाद बता रहे हैं, उन्होंने अवश्य ही इस भावना को नज़रअंदाज़ किया है।
कांग्रेस ने जो दूसरी गलती की, वह यह कि सिंधिया के समर्थन को उसने उनकी कमज़ोरी मान लिया। वर्षों की मित्रता और सान्निध्य के बावजूद वे यह समझने में असफल रहे कि सिंधिया बहुत मज़बूत व्यक्तित्व हैं और जब उन्हें किनारे लगाने की कोशिश होगी, तो वह जवाबी हमले के लिए खड़े हो सकते हैं।
इन तथ्यों के मद्देनज़र यह काफी स्पष्ट है कि उनके कांग्रेस से सम्बन्ध विच्छेद करने के पीछे महज़ भावना इकलौता कारक नहीं था। उनका राजनीतिक भविष्य भी खतरे में था।
दूसरों को पुरस्कृत करते हुए नेतृत्व ने न केवल उन्हें दरकिनार कर दिया था, बल्कि उनके विरोधियों की भी पीठ थपथपायी। उनके गृह राज्य में कमलनाथ-दिग्विजय सिंह की साठगाँठ ने उनका दबदबा कम कर दिया। उनके समर्थकों को उनके हिस्से से वंचित कर दिया गया और उनके अनुरोधों को व्यवस्थित तरीके से लगातार अनदेखा किया गया। कहा जाने लगा कि सिंधिया ज़मीन खो रहे थे। शायद, आिखरी झटका यह था कि उन्हें राज्यसभा टिकट से वंचित किया जा सकता है, क्योंकि कमलनाथ उन्हें समायोजित करने के लिए तैयार नहीं हैं। अगर ऐसा होता, तो यह सिंधिया के लिए बड़े अपमान से कम नहीं होता। किसी के स्वाभिमान को खत्म करके भी वफादारी की उम्मीद करना कुछ ज़्यादा ही बड़ी उम्मीद होती।
इतिहास का खुद को दोहराने का एक अजीब तरीका है। ज्योतिरादित्य के पिता माधवराव सिंधिया को भी कांग्रेस और गाँधी परिवार के हाथों प्रताडि़त होना पड़ा था। साल 1989 में राजीव गाँधी ने अर्जुन सिंह के इशारे पर मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी दावेदारी को नज़रअंदाज़ कर दिया, जिन्हें अदालत के आदेश का अपना पद छोडऩा पड़ा था। ठीक इसी की तर्ज पर राहुल गाँधी ने ज्योतिरादित्य की जगह कमलनाथ को चुना।
1996 का दोहराव
माधवराव सिंधिया को लोकसभा चुनाव में टिकट देने से इन्कार कर दिया गया था। उन्होंने बगावत की और पार्टी से बाहर चले गये। 24 साल बाद उनके बेटे ने भी यही राह चुनी। और कांग्रेस छोडऩे के लिए उन्होंने 10 मार्च का दिन चुना, जो उनके दिवंगत पिता की 75वीं जन्मजयंती का है और काफी महत्त्वपूर्ण है। अपने पिता की तरह ज्योतिरादित्य को भी किनारे कर दिया गया। लेकिन उनके विपरीत, ज्योतिरादित्य ने एक सुरक्षित राह चुनी। उनके पिता एक नयी पार्टी बनायी, जबकि ज्योतिरादित्य ने उस भाजपा को चुना; जो सत्ता में है। कांग्रेस के भीतर और बाहर कई लोग इस बात से सहमत हैं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया बेहतर पाने के हकदार थे। लेकिन वे उन्हें भाजपा की बाहों में जा समाने के लिए दोषी मानते हैं। अगर इस बात को अलग कर दें, तो उनके पक्ष में सहानुभूति का एक बड़ा कारक पैदा हो जाता है। लेकिन कांग्रेस छोडऩे के कुछ ही घंटों के भीतर भगवा को गले लगाना भी एक तरह से उनका गलत आकलन करने जैसा ही है।
इसमें स्पष्ट रूप से दो विचार हैं- एक यह कि सिंधिया एक अवसरवादी हैं और दूसरा यह कि उनके साथ खराब व्यवहार किया गया। हालाँकि, इन दोनों तर्कों को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं, लेकिन मुद्दा कहीं अधिक जटिल है। यह महज एक कांग्रेसी के बाहर निकलने या वफादारी तोडऩे तक सीमित नहीं है, न तो यह किसी डूबते जहाज़ को छोडऩे जैसा या व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा का है। यह उससे कहीं बड़ी बात है। यह कांग्रेस में पैदा हो चुकी उदासीनता का संकेत है। यह नेतृत्व के पार्टी कार्यकर्ता की ज़रूरतों और आकांक्षाओं के प्रति उदासीनता का संकेत है। यह उस पार्टी के बारे में है, जो तब जागती है, जब बहुत देर हो चुकी होती है। यह अपने दल को एकजुट रखने के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है; और सबसे अहम, यह कि यह उन चुनौतियों का सामना करने में नाकामी का संकेत है, जो उसके आड़े हैं। यह किसी एक व्यक्ति के बारे में नहीं है, बल्कि पूरी कांग्रेस के बारे में है- इसका पतन; जिसे रोकने में इसका नेतृत्व विफल रहा है। यह उन मुद्दों का समाधान करने में असमर्थता के बारे में है, जिन्हें तत्काल निवारण की आवश्यकता है।
इसलिए, कांग्रेस यदि सिंधिया के पार्टी से बाहर निकलने को इक्का-दुक्का मामले या इसे बस यूँ ही हो जाने वाली घटना के ही रूप में लेती है, तो यह उसकी एक घातक गलती होगी। यदि वो दीवार पर लिखी इबारत को पढऩे में नाकाम रहती है और इसे एक रुटीन घटना मान लेती है, तो वो अपना बड़ा नुकसान करेगी। यह भी सच है कि सिंधिया कांग्रेस छोडऩे वाले पहले व्यक्ति नहीं हैं; न ही वह आिखरी होंगे। लोग आते-जाते रहते हैं, लेकिन संस्थाएँ अपनी जगह रहती हैं। इसलिए, कम-से-कम इस स्तर पर कांग्रेस को खत्म मान लेना न केवल मूर्खता होगी, बल्कि यह समय से पहले ही ऐसा सोच लेने जैसा भी होगा।
कांग्रेस की उन्नत्ति में सबसे बड़ा रोड़ा राहुल गाँधी हैं। यह उनकी वजह से है कि दूसरों को किनारे रखा गया है। उनका एक वास्तविक डर है। इस तरह से उनके व्यवहार से उन सभी लोगों के करियर को खतरे में डालना है, जो निष्ठा की प्रतिज्ञा कर चुके हैं। भले ही सिंधिया को उनकी व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के लिए कोसा जा रहा हो, लेकिन कोई भी उन्हें उनकी शीर्ष पर पहुँचने की आवश्यकता को गलत नहीं ठहरा सकता। कांग्रेस ने माधवराव सिंधिया को शिकस्त दी, लेकिन उनके बेटे ने घुटने नहीं टेकने का फैसला किया। महत्त्वाकांक्षा के अलग-अलग पैमाने नहीं हो सकते। 100 साल की पार्टी का भविष्य दाँव पर रख दिया गया है; क्योंकि एक माँ अपने बेटे को शासन में देखने की महत्त्वाकांक्षा रखती है।
इस दृष्टिकोण से देखें, तो सिंधिया महत्त्वाकांक्षी होने के लिए क्यों गलत हैं? राहुल के लिए राजनीति एक खेल का मैदान हो सकती है, लेकिन कई अन्य लोगों के लिए यह गम्भीर व्यवसाय है। इसलिए, भले ही ज्योतिरादित्य का ‘देश सेवा’ का कथन एक पाखंड हो, लेकिन उनके इरादे अंतर्निहित हैं। कांग्रेस में वह एक बन्द गली में पहुँचते दिख रहे थे। इसलिए, कांग्रेस को इस संदेश को समझने की ज़रूरत है। इसका नेतृत्व बेखबर होने का जोखिम नहीं उठा सकता। रेत में अपना सिर दबाने के बजाय उसे उठकर बैठना चाहिए। उसे यह मानना चाहिए कि सिंधिया के बाहर निकलना और बड़े नुकसान की आहट है, जो पार्टी के भीतर एक बड़े पलायन का रास्ता खोल सकती है। हो सकता है वे अकेले मशालवाहक न हों, लेकिन उन्होंने निश्चित ही अग्नि प्रज्ज्वलित कर दी है।
(कुमकुम चड्ढा वरिष्ठ पत्रकार हैं। कई किताबें लिख चुकी हैं, उनकी हालिया पुस्तक ‘द मैरीगोल्ड स्टोरी : इंदिरा गाँधी व अन्य’ चर्चित रही है। कई पुरस्कारों से सम्मानित कुमकुम ने जेल सुधार पर राष्ट्रीय समिति में भी कार्य किया है।)