‘नया थियेटर में उस ऐक्टर के लिए कोई जगह नहीं है जो टुन्न होकर तमाशा करना नहीं जानता. गांजा, भांग और शराब पीकर नौटंकी करने वाला ऐक्टर वहां अपने दिन मजे से काट सकता है. हबीब साहब ऐसे सभी खुर्राट लोगों को अपने ढंग से साध लिया करते थे, लेकिन अब मुझे नहीं लगता कि कोई किसी को डांटता- डपटता भी होगा. नया थियेटर का भगवान ही मालिक है.’
‘जैसे कवियों के बड़े अफसर मुक्तिबोध थे (हैं) वैसे ही रंगकर्मियों के सबसे बड़े साहब हबीब तनवीर थे. इधर-उधर, दिन- दुनिया की चर्चा के दौरान साहब अक्सर कहा करते थे, ‘एक रचनात्मक आदमी का क्रिएशन भी उसके दुनिया से कूच करने के साथ ही खत्म हो जाता है.’
छत्तीसगढ़ के दो वरिष्ठ रंगकर्मियों ओंकारदास मानिकपुरी एवं अनूपरंजन पांडे का यह बयान तेज-तर्रार प्रयोगों और लोक शैली के जरिए प्रगतिशील विचारों का बिगुल फूंकने के लिए प्रतिबद्ध रहे नया थियेटर की हालिया स्थिति को समझने के लिए काफी है. वैसे नया थियेटर रहेगा या नहीं? हबीब तनवीर के बाद कौन? ऐसे सवाल तभी से पूछे जाते रहे हैं जब कलाकारों के साहब यानी हबीब तनवीर जिंदा थे. इन सवालों के पैदा होने का एक कारण हबीब तनवीर का अपने आपको किंवदंती में बदल लेना भी माना जाता है. वर्ष 2005 के आसपास जब तनवीर ने पुराने नाटकों के विसर्जन के साथ ही अपनी आत्मकथा मटमैली चदरिया को लिखने का एलान किया था तो इस बात को हवा मिली कि यदि तनवीर नहीं रहे तब क्या होगा. उनके प्रयोगों का पीछा कौन करेगा? चर्चित संस्कृतिकर्मी मलयश्री हाशमी ने ऐसे तमाम सवालों को शामिल कर के नुक्कड़ जनम संवाद नाम से एक पत्रिका निकाली और तनवीर साहब के नाटक अभ्यास की समय सीमा के साथ-साथ नया थियेटर की बनती-बिगड़ती स्थिति पर प्रकाश डाला. इस पत्रिका में एक साक्षात्कार के दौरान हबीब की पुत्री नगीन तनवीर ने माना था कि कलाकारों की कमजोर समर्पण भावना के चलते उनके पिता की ऊर्जा भी धीरे-धीरे कमजोर होने लगी है. एक दूसरे साक्षात्कार में चरनदास चोर का किरदार निभाने वाले अभिनेता गोविंदराम निर्मलकर ने नया थियेटर को बंद करने की वकालत की थी. एक अन्य अभिनेता रामशंकर ऋषि का भी वक्तव्य था कि नया थियेटर तब तक ही चल पाएगा जब तक हबीब साहब जिंदा रहेंगे.
‘नया थियेटर में स्थायी तौर से जुड़े छत्तीसगढ़ के लोक कलाकारों की संख्या सात-आठ तक सीमित हो गई है’
इधर उनके निधन के बाद पिछले कुछ समय के दौरान बार-बार यह सवाल पूछा जाने लगा है कि देश के सबसे पुराने कमला सर्कस की तरह नया थियेटर का अस्तित्व भी बचेगा या नहीं. रंगकर्म में रुचि रखने वाले जानकारों का यह मानना है कि नया थियेटर का जलवा मालाबाई, फिदाबाई, ठाकुरराम और मदन निषाद जैसे मूर्धन्य कलाकारों के निधन के साथ फीका पड़ने लगा था. तनवीर के साथ लंबी पारी खेलने के बाद छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव में रंग छत्तीसा नाम की एक संस्था से जुड़ी पूनम विराट कहती हैं, ‘भले ही निर्देशक यह कहता फिरे कि किसी के आने-जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन सच्चाई हमेशा तल्ख होती है.’ पूनम बताती हैं, ‘मालाबाई जैसी दमदार अभिनेत्री के निधन के बाद तनवीर साहब भीतर तक हिल गए थे. जब थियेटर की दूसरी अभिनेत्री फिदाबाई आग से झुलसी और अभिनय छोड़कर अपने गांव सोमनी में सूअर पालने लगी तब भी साहब को झटका लगा था. ठाकुरराम, लालूराम जैसे बेजोड़ कलाकारों की जोड़ी टूटने और नाचा के धुरंधर कलाकार मदन निषाद के बीमार होकर घर बैठ जाने के बाद से यह कहा ही जाने लगा था कि अब नया थियेटर की जान खत्म हो गई है.’
बीते आठ जून, 2011 को तनवीर के निधन के दो साल पूरे हो गए हैं, लेकिन अब भी थियेटर के कलाकार पुराने नाटकों का ही अभ्यास कर रहे हैं. संस्था के प्रबंधकीय और सृजनात्मक कार्यों के निदेशक क बनाए गए रामचंदर सिंह जेसी माथुर लिखित नाटक कोणार्क को भव्य तरीके से लांच करने की तैयारियों में जुटे हुए हैं. यह नाटक काफी पहले स्कूल के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा चुका है. मजे की बात यह है कि इस नाटक को पांचवें दशक में तनवीर की धर्मपत्नी मोनिका मिश्रा भी बहुत बेहतर ढंग से प्रस्तुत कर चुकी हैं. इधर बाजारवाद के खतरनाक दौर में कोणार्क जैसे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के नाटक की कोई उपयोगिता हो सकती है या नहीं इसे लेकर भी कलाकार कसमसा रहे हैं. रंगकर्म की अनेक संस्थाओं में सक्रिय भागीदारी निभाने वाले आशीष रंगनाथ का कहना है कि तनवीर के नाटकों में लोकरंजक तत्व तो होते थे लेकिन इन तत्वों में कही विसंगतियों के खिलाफ एक मुकम्मल आवाज भी छिपी होती थी. उनके नाटकों को देखने के बाद यह लगता रहा है कि विचारों को फांसी पर लटका देने का प्रचार पूरी तरह से गलत है. आशीष आगे कहते हैं, ‘नया थियेटर की तरफ से ऐसा नाटक तो खेला ही जाना चाहिए जो कलाकारों के साथ-साथ दर्शकों में भी ऊष्मा का संचार करने में सहायक हो. नाटक देखने के बाद तनवीर के दर्शकों को यह लगना चाहिए कि कलाकार आज भी प्रगतिशील विचारों से लैस हैं.’ इधर नया थियेटर के कलाकार मानते हैं कि रामचंदर के पास हबीब साहब के भीतर मौजूद रहने वाला खांटीपन एक सिरे से गायब है इसलिए नाटक की रीडिंग (वाचन) के दौरान भी दिक्कतें पेश आ रही हैं.
नया थियेटर में आए बदलाव से जुड़ा एक पहलू यह भी है कि इसकी पहचान पहले जहां छत्तीसगढ़ के दूरस्थ इलाकों में बसे हुए लोक कलाकारों की वजह से हुआ करती थी वहीं अब इसमें स्थायी तौर पर छत्तीसगढ़ के सात-आठ कलाकार ही रह गए हैं. आमिर खान की फिल्म पीपली लाइव में नत्था की भूमिका अदा करने वाले लोक कलाकार ओंकारदास मानिकपुरी की हाल ही में एक छत्तीसगढ़ी फिल्म किस्मत के खेल प्रदर्शित हुई है जबकि मुन्ना मांगे मेमसाहब, कसम से कसम से और आलाप प्रदर्शन के लिए तैयार हैं. फिल्मों में लगातार हासिल हो रही कामयाबी के चलते नत्था अब तनवीर के किसी भी नाटक में तब ही दिखाई देते हैं जब वे फुरसत में होते हैं. ओंकारदास कहते हैं, ‘फिलहाल थियेटर छोड़ा नहीं है लेकिन अब यदि कोई साठ- सत्तर रुपये की मजदूरी पर काम करने के लिए कहेगा तो थोड़ी मुश्किल होगी.’ मानिकपुरी नया थियेटर की आवास और वेतन व्यवस्था को बेहद कमजोर मानते हैं. वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘सभी कलाकारों को भोपाल के 12 नंबर बस स्टाप के पास स्थित अरेरा कालोनी में एक किराये के मकान में ठहरा दिया जाता है. पुराने कलाकार तो एडजस्ट कर लिया करते थे लेकिन नये कलाकार आवास और भोजन की असुविधा के चलते बोरिया-बिस्तर बांधकर वापस लौट जाते हैं.’ ओंकारदास के मुताबिक कुछ समय पहले कलाकारों की खोज के लिए नया थियेटर की तरफ से दुर्ग जिले के ग्राम अर्जुंदा में शिविर लगाया गया था. शिविर में कुछ लोगों का चयन बतौर कलाकार कर भी लिया गया, लेकिन थोड़े ही दिनों में सारे कलाकार भाग खड़े हुए.
तोला जोगी जानयो रे भाई… जैसे मधुर गीत के जरिए खेतिहर मजदूरों और किसानों की स्मृतियों में अपनी अमिट छाप छोड़ने वाले कलाकार भुलवाराम के बेटे चैतराम वैसे तो कई बार नया थियेटर को टाटा-बाय-बाय कर चुके हैं लेकिन पिछले आठ जून को उन्होंने एक बार फिर नया थियेटर से स्थायी तौर पर नाता तोड़ने की घोषणा की है. चैतराम बताते हैं, ‘हर बार तो कोई न कोई मान-मनौव्वल करके मुझे ले ही जाता था लेकिन इस बार मैंने जो फैसला लिया है वह अंतिम है.’ मानिकपुरी की तरह ही चैतराम भी नया थियेटर की वेतन व्यवस्था से नाखुश नजर आए. चैतराम ने बताया कि सन 76 में जब उन्होंने नया थियेटर का दामन थामा था तब तनवीर साहब की तरफ से प्रतिदिन आठ रुपये मेहनताना दिया जाता था, लेकिन काफी दिनों की रगड़घस के बाद भी अपेक्षित वेतन की राह आसान नहीं हुई. थियेटर में पुराने कलाकारों की तुलना में नए कलाकारों को ज्यादा वेतन दिया जाता है. ऐसा इसलिए भी होने लगा कि नये कलाकार अब गांवों की बजाए शहरी इलाकों से इंट्री लेने लगे हैं. राजनांदगांव जिले के बेलटिकरी गांव में रहने वाले उदयराम श्रीवास नया थियेटर से जुड़े हुए हैं लेकिन निर्देशकीय जिम्मेदारी नहीं मिल पाने से वे भी नाराज चल रहे हैं. श्रीवास कहते हैं, ‘जब तनवीर साहब जीवित थे तब वे किसी भी दृश्य की ब्लाकिंग करके छोड़ दिया करते थे. उनके द्वारा तय की गई ब्लाकिंग को ज्यादा व्यवस्थित और साफ करने का जिम्मा उन्हें दिया जाता था, लेकिन इधर पिछले दो साल में ऐसा कुछ भी नहीं हुआ.’ थियेटर में संगीत पक्ष की जिम्मेदारी संभालने वाले देवीलाल नाग भी मानते हैं कि तनवीर साहब के गुजर जाने के बाद परिस्थितियां बदल गई हंै. कुछ इसी तरह के विचार कोलिहापुरी गांव के रहने वाले तबला वादक अमरदास मानिकपुरी के भी हैं. वे कहते हैं, ‘नया थियेटर कलाकारों की कमी से जूझ रहा है. एक-एक कलाकार को कपड़े बदल-बदलकर तीन तरह के किरदारों को निभाना पड़ रहा है.’ तनवीर के एक विश्वसनीय सहयोगी समझे जाने वाले अनूपरंजन पांडे पुराने ही नाटकों के मंचन की बात स्वीकार तो करते हैं लेकिन वे मानते हैं कि कलाकारों के भीतर की आग अभी बुझी नहीं है. वैसे अनूप भी अब नया थियेटर में उस तरह से सक्रिय नहीं है जैसे पहले कभी हुआ करते थे. उन्होंने बस्तर के पुराने वाद्य यंत्रों को सहेजने के बाद बस्तर बैंड नाम की एक संस्था खोल ली है. थियेटर में बतौर ऐक्टर कार्यरत मनहरण गंधर्व को छोटी-मोटी भूमिकाओं से संतोष करना पड़ रहा है तो अमर को गायन व धन्नू सिन्हा को प्रकाश व्यवस्था की जिम्मेदारी दी गई है.
‘नया थियेटर के कलाकारों की स्वाभाविक संवाद अदायगी छूटने से अपनेपन की खुशबू गायब हो गई है’
तनवीर के नाटकों में सबसे बढ़िया कौन-सा है यह कहना थोड़ा मुश्किल है फिर भी संस्कृतिकर्मी यह मानते हैं कि विजयदान देथा की कहानी पर आधारित नाटक चरनदास चोर के जितने ज्यादा मंचन हुए हैं शायद उतने किसी और नाटक के नहीं हुए. इस नाटक की खास बात यह रही है कि इसके चोर बदलते रहे हैं. नाटकों में रुचि लेने वालों को कभी मदन निषाद का काम पंसद आता रहा है तो कभी दीपक तिवारी विराट का. वैसे ज्यादातर समीक्षकों की यह राय रही है कि चोर की भूमिका में सबसे ज्यादा फिट गोविंदराम निर्मलकर ही रहे हैं. खुद हबीब तनवीर ने एक साक्षात्कार में यह स्वीकार किया था कि गोविंदराम आत्मविश्वास से भरे हुए बेजोड़ ऐक्टर हंै. चोर की आंतरिक और बाह्य खूबियों से परिचित होने के साथ-साथ दर्शक यह जानने के लिए भी हॉल में प्रवेश करता रहा है कि कौन-सा चोर श्रेष्ठ है, किसका अभिनय ज्यादा पावरफुल था. इधर पिछले साल जब रायपुर में इंडियन पीपुल्स थियेटर ने चरनदास चोर के मंचन के लिए नया थियेटर के कलाकारों को आमंत्रित किया तो प्रतिक्रिया खास नहीं रही. नाटक में चोर की भूमिका ओंकारदास मानिकपुरी ने निभाई थी, लेकिन पीपली लाइव के नत्था का आकर्षण भी दर्शकों को बांधने में असफल रहा. अखबारों में ‘चोर ने किया बोर’ जैसी समीक्षाएं छपीं. लगभग सभी भाषाओं के नाटकों के लिए प्रकाश व्यवस्था का कामकाज देखने वाले प्रकाश व्यवस्थापक श्रवणकुमार कहते हैं, ‘दर्शक तनवीर के नाटकों को इसलिए भी पंसद करते रहे हैं कि उन्हें लोक तत्वों में हंसी-खुशी की चीजें मिल जाया करती थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है. नया थियेटर के कलाकारों ने स्वाभाविक संवाद अदायगी का दामन छोड़ दिया है. स्वाभाविकता के खत्म होने से अपनेपन की खुशबू भी गायब हो गई है.’ श्रवण आगे बताते हैं, ‘अब से कुछ अरसा पहले नाटक के कलाकारों के साथ-साथ दर्शकों के बीच भी इस बात को लेकर चर्चाओं का दौर चला करता था कि हबीब साहब पाइप क्यों पीते हैं. साहब के पाइप पीने के कारणों का खुलासा वयोवृद्ध कलाकार रामचरण निर्मलकर ने बड़े ही रोचक अंदाज में किया था. एक बार रिहर्सल के दौरान उन्होंने डायलॉग मारा .. अरे बेटा ये धुआं कहां से आ रहा है रे.. लगता है ये हबीब साहब के पाइप का धुआं है.. अच्छा बेटा.. बीड़ी पीते हो तुम.. और बदनाम करते हो हबीब साहब को. एक बात बताओ बेटा साहब तो मजे के लिए पीते हैं, लेकिन तुम हम लोगों को सजा देने के लिए पीते हो क्या. जो भी हो बेटा धुआं लेना और देना अपराध नहीं तो हानिकारक जरूर है, पर जब मजा आए तो पीना चाहिए.. है न साबजी’ ( बताते हैं कि रामचरण के इस संवाद के बाद तनवीर साहब ने अपनी पाइप बुझा ली थी).
रामचरण वही कलाकार हंै जिन्होंने शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन में फूलनदेवी के पिता देवीदीन की भूमिका निभाई थी. वे इन दिनों राजधानी रायपुर से 27 किलोमीटर दूर अपने गांव बरौंडा में रहते हैं. नाचा के इस बेजोड़ कलाकार ने जब कुछ समय पहले मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाया तो उनकी आंखंे पूरी तरह खराब हो गईं. जिन पैरों में कभी घुंघरू बांधकर रामचरण पूरी दुनिया को थिरकने के लिए मजबूर कर देते थे, एक दुर्घटना के बाद उन पैरों ने भी साथ देने से इनकार कर दिया. अब रामचरण का सारा दिन एक टूटी-सी खाट में ही बीतता है. वे मन ही मन नाटक में निभाए गए किरदारों से बातचीत करते रहते हैं. कमोबेश यही स्थिति राजनांदगांव के मोहारा इलाके में रहने वाले पद्मश्री गोविंदराम निर्मलकर और अपने अभिनय से देश-विदेश में धूम मचा देने वाले कलाकार दीपक तिवारी की भी बनी हुई है. नया थियेटर को अलविदा कहने के बाद दोनों कलाकारों ने रोजी-रोटी की चिंता में इस बुरी तरह से तनावों का सामना किया कि लकवाग्रस्त हो गए.
छत्तीसगढ़ की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर कहानियां और उपन्यास लिखने वाले परदेशीराम वर्मा तनवीर को करिश्माई व्यक्तित्व का धनी तो मानते हैं किंतु वे यह भी कहते हैं, ‘छत्तीसगढ़ के पारंपरिक दाऊओं (गांव के अमीर आदमी) की तरह हबीब साहब ने भी कभी यह नहीं सोचा कि कलाकारों का आर्थिक पक्ष किस तरह से मजबूत किया जा सकता था.’ युवा आलोचक सियाराम शर्मा छत्तीसगढ़ की संस्कृति और उसकी बोली का परिचय दुनिया-जहान में कराने के लिए तनवीर के काम को महत्वपूर्ण तो मानते हैं, लेकिन उनका भी कहना है कि तनवीर ने स्वयं के व्यक्तित्व को निखारने के चक्कर में अपने इलाके की जड़ों में खाद-पानी देने का काम ठीक ढंग से नहीं किया. यदि तनवीर साहब ने छत्तीसगढ़ की जनभावनाओं के अनुरूप संस्कृति के काम को आगे बढ़ाने वाली कोई एक पौध तैयार की होती तो शायद लोगों को यह कहने का मौका नहीं मिलता कि तनवीर के बाद नया थियेटर में क्या बचा. शर्मा कहते हैं, ‘तनवीर के नाटकों की चर्चा देश- विदेश में तो खूब हुई है लेकिन छत्तीसगढ़ का गांव अब भी उनके चमत्कार से अपरिचित ही है.’
नाटकों में कभी गायक, कभी अभिनेत्री तो कभी वेशभूषा विशेषज्ञ के तौर पर जुड़े रहने वाली हबीब तनवीर की पुत्री नगीन तनवीर भी मानती हैं कि नया थियेटर की स्थिति में बदलाव आ गया है. नगीन कहती हंै, ‘मेरे पिता नाटकों के उस्ताद थे. जब उस्ताद ही नहीं रहे तो फिर फर्क नजर आना स्वाभाविक था. वैसे भी परिवर्तन सृष्टि का शाश्वत नियम है. जो चीज आज है वह शायद कल नहीं रहने वाली है.’ क्या वे अपने पिता की विरासत संभालेंगी, इस सवाल पर नगीन का जवाब था, ‘मेरे पिता जानते थे कि मैं क्या करना चाहती हूं. मेरा रास्ता अलग है. मैं फिलहाल अपने पिता की शायरी, उनके लिखे हुए नाटकों को किताब की शक्ल देने में लगी हुई हूं. हां. मैं कोणार्क में काम नहीं कर रही हूं, लेकिन नाटकों को सपोर्ट देने का काम बंद नहीं होगा.’