इस सदी के अंत तक हिमालय के एक-तिहाई ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे। चाहे पूरी दुनिया मौसम के बदलाव को रोकने के लिए अपनी सारी निर्धारित योजनाएं पूरी ईमानदारी से लागू कर दे। ‘हिंदूकुश हिमालय’ पर जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि यदि वातावरण और जलवायु नियंत्रण के लिए सभी उपाय नहीं हुए तो 2100 तक हिमालय के दो-तिहाई ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे। बड़े देशों के रुख को देखते हुए ऐसा लगता नहीं कि वे वातावरण को बचाने के प्रति किसी भी तरह से ईमानदार हैं।
इन हालात में सदी के अंत तक हिमालय का तापमान 4.4 डिग्री सेल्सियस (आठ डिग्री फारेनहाइट) तक बढ़ जाएगा जिससे खान-पान में बदलाव आने के साथ भारी गिनती में लोग विस्थापित हो जाएंगे।
हिंदूकुश हिमालय क्षेत्र के 2000 मील इलाके में फैले ग्लेशियर एक चौथाई दुनिया को पानी के स्त्रोत देते हैं। इस रिपोर्ट को तैयार करने वाले फिलिपस वेस्टर इसे जलवायु का ऐसा संकट बताते हैं जिसके बारे में किसी ने सोचा तक नहीं होगा। इस रिपोर्ट को पिछले पांच सालों में 210 लेखकों ने पूरा किया है और 22 देशों के 350 से ज़्यादा अनुसंधानकर्ताओं ने इसमें अपने अनुसंधान का योगदान दिया है। पिछले साल अक्तूबर में संयुक्त राष्ट्र के जलवायु बदलाव पैनल ने एक रिपोर्ट पेश की थी जिसमें कहा गया था कि यदि ‘ग्रीन हाउस गैसेस’ मौजूदा दर पर वातावरण में फैलती रहीं तो 2040 तक इसका तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। यदि इसे रोकना है तो विश्व की अर्थव्यवस्था की गति और स्तर में भारी बदलाव लाना होगा।
एक रिपोर्ट के मुताबिक खतरा यह है कि मौजूदा हालात में हिमालय का तापमान कहीं और अधिक न हो जाए। एक अनुमान अनुसार यह 2.1 सेल्सियस तक बढ़ सकता है। कहा तो यहां तक जा रहा है कि पूरे विश्व में कम बर्फबारी और गर्मी का मौसम लंबे होने की वजह से 90 फीसद ग्लेशियर क्षेत्र कम हो जाएगा। नेपाल में स्थित ‘इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटेग्रेटिड माउनटेन डिवेलपमेंट’ के महानिदेशक डेविड मोलडन का कहना है कि वातावरण का गर्म होना पहाड़ी लोगों पर काफी भारी पड़ेगा। इसके लिए हमें अभी कुछ करना पड़ेगा।
दक्षिण एशिया के आसपास जलवायु परिवर्तन का असर दिखना शुरू हो गया है। गर्म हवाएं लोगों को बीमार और गऱीब बना देंगी। इससे 8000 लाख लोगों का जीवन स्तर नीचे जाएगा। इसके साथ ही पानी की कमी भी होगी। यदि देखें तो पहाड़ी शहरों और कस्बों में पानी की किल्लत पहले से ही महसूस की जा रही है। पिछले मौसम में शिमला में लोगों ने पर्यटकों को नगर में न आने की सलाह दी थी ताकि वहां के स्थाई निवासियों को पानी की किल्लत न हो। एक सरकारी रपट के मुताबिक जो पिछले साल जारी की गई, भारत में अब तक का सबसे गहरा जल संकट है।
सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 6000 लाख लोग पानी की भारी कमी का सामना कर रहे हैं। रिपोर्ट के मुताबिक स्वच्छ जल न मिलने के कारण हर साल 2,00,000 लोग मारे जाते हैं। यह भी अनुमान है कि 2030 तक पीने के पानी की ज़रूरत उसकी सप्लाई से दुगना हो जाएगी। नेपाल की बात करें तो वहां तापमान बढऩे की वजह से पहले ही कई लोग उजड़ चुके हैं। पहाड़ी गावों में कम बर्फ पडऩे से बर्फ की चादर सिकुड़ रही है और साथ ही बारिश होने का ‘पैटर्न’ भी बदल रहा है। उपजाऊ भूमि बंजर होती जा रही है।
समुद्र तल से 13,000 फुट से भी अधिक उंचाई पर बसे एक गांव सैमजोंग के किसान पीटी गुरंग का कहना है कि सभी जल स्त्रोत खत्म हो गए हैं। कुछ साल पहले सैमजोंग गांव में रहने वाले सभी 18 परिवार लगभग 1000 फुट नीचे आ कर एक दूसरे गांव में बस गए थे। पर गुरूंग और उसके साथ रहने वाले लोग अभी भी चिंतित हैं। यहां भूस्खलन का लगातार खतरा है। सरकार की ओर से भी मिली सहायता अधूरी है। गुरूंग के पास पैसा भी नहीं है। इस हालात में वे लोग कहां जाएंगे ,उन्हें नहीं पता। गुरूंग ने बताया कि अब उनके पास ज़मीन भी नहीं है वे ज़मीन और पानी के बिना हिमालय क्षेत्र में कैसे रह पाएंगे, यह एक बड़ा सवाल है।
ग्लेशियर पूरे संसार में सिकुड रहे हैं। इसका बड़ा असर भारत में भी दिख रहा है। देश के प्रांत हिमाचल प्रदेश में कई ग्लेशियर हैं। इनमें बड़ा शिगरी, छोटा शिगरी, ब्यासकुंड, चंद्र ग्लेशियर, लेडी ऑफ किलांग, मुकिला ग्लेशियर वगैरा -वगैरा हैं।
स्पीति घाटी में कुंज़ुम दर्रे के पास बातल नामक स्थान से जुड़ा बड़ा शिगरी ग्लेशियर जिसका मुख (सनाउट)
1986 में सड़क तक था, आज वही पिघल कर कई किलोमीटर तक सिकुड़ गया है । उस तक पहुंचने के लिए एक पूरा दिन पैदल चलना पड़ता है। कमोवेश यही स्थिति ब्यास कुंड ग्लेशियर और बाकी ग्लेशियरों की भी है। इन पर शोध करने वाले कुछ लोगों की बात को अगर माने तो मांऊट एवरेस्ट के साथ के हिंदू-कुश हिमालय क्षेत्र के 5,500 ग्लेशियर सन 2100 तक 70 से 99 फीसद तक खत्म हो जाएंगे। इनके खत्म होने का सबसे बुरा असर खेती-बाड़ी और पन बिजली उत्पादन पर पड़ेगा। नेपाल में एक शोधकर्ता जोसफ शाय ने यूरोपीय ‘जियोसांइसेस यूनियन (इजीयू)’ की पत्रिका -द क्रियोस्फीयर’ में छपे अध्ययन में कहा है कि – ग्लेशियरों में परिवर्तन का संकेत स्पष्ट है। ग्लेशियरों का सिकुडऩा और उन पर बर्फ का घटना तापमान बढऩे का सबूत है।
शोधकर्ताओं के एक दल ने नेपाल में ग्लेशियरों का अध्ययन किया। इस क्षेत्र में विश्व की सबसे ऊंची चोटी मांऊट एवरेस्ट समेत कई और भी शिखर है। यहां का ग्लेशियर क्षेत्र 400 वर्ग किलोमीटर से भी अधिक है। उनका कहना है कि निचले इलाकों के ग्लेशियर जल्दी खत्म होंगे और ऊपरी इलाकों के देर में। अभी यह पता नहीं लग पाया है कि ‘ग्रीन हाउस’ गैसें ग्लेशियरों पर कितना प्रभाव डाल रही हैं। वे तापमान, हिमपात और बारिश पर भी कितना असर करती हैं। पर इतना पता चला गया है कि पिछले कुछ दशकों की तुलना में अब ग्लेशियर अधिक तेज़ी से पिघल रहे हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि ग्लेशियरों के सिकुडऩे से उनके अंदर पानी की बड़ी-बड़ी झीलों के बनने की संभावना बढ़ जाती है। इसके बाद उस क्षेत्र में आने वाले भूकंप, और हिमस्खलन से उन झीलों के टूट जाने का खतरा बढ़ जाता है। ऐसी झीलें टूटने पर निचले क्षेत्रों में भारी तबाही आ जाती है।
2013 से मिलान विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे नेपाल के एक वैज्ञानिक ने बताया था कि मांऊट एवरेस्ट के इर्द-गिर्द के ग्लेशियर पिछले 50 साल में 13 फीसद सिकुड़ गए हैं। इसके साथ ही ‘स्नो लाइन’ भी इन 50 सालों में 180 मीटर पीछे चली गई है। हिमालय के भारतीय क्षेत्र में कई प्रसिद्ध ग्लेशियर हैं। इनमें से ज़्यादातर उत्तराखंड, सिक्किम, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर में पड़ते हैं। कुछ ग्लेशियर अरूणाचल प्रदेश में भी पाए जाते हैं। अरुणाचल प्रदेश के ग्लेशियर तिब्बत की सीमा के साथ-साथ लगते हैं। यहां पर पर्वतों की सभी चोटियां 4500 मीटर से अधिक उंचाई की हैं। इन पर साल भर बर्फ रहती है। यहां पर दो मुख्य ग्लेशियर हैं- बिकम ग्लेशियर और कांगटो ग्लेशियर। जम्मू-कश्मीर में कई ग्लेशियर हैं, इनमें सबसे महत्वपूर्ण है सियाचिन ग्लेशियर। यह पोलर क्षेत्र के बाहर दुनिया का दूसरा सबसे लंबा ग्लेशियर है। हिमालय-कर्राकोरम क्षेत्र में यह सबसे विशाल हिमखंड है। इसके अलावा वहां हरिपर्वत, चैंग कमडन, द्रांग द्रुंग, नाज़ी ग्लेशियर है। ये ग्लेशियर नदियों के जल स्त्रोत हैं। इनमें से सियाचिन ग्लेशियर लद्दाख क्षेत्र में नुबरा नदी में पानी का मुख्य स्त्रोत है। यह नदी बाद में शियोक नदी में मिल जाती है। इस प्रकार यह ग्लेशियर सिंधु नदी को पानी देता है और विश्व की सबसे बड़ी सिंचाई प्रणाली को चलाता है।
इसी प्रकार हिमाचल प्रदेश में लगभग 17 मुख्य ग्लेशियर है। ये ग्लेशियर यहां बहने वाली मुख्य नदियों – रावी, व्यास, सतलुज, चिनाब के पानी के मुख्य स्त्रोत हैं। पर ये सभी ग्लेशियर सिकुड़ते जा रहे हैं। यह सब हो रहा है मौसम में आ रहे बदलाव और ग्रीन हाउस गैसों के कारण। वैसे तो यह एक अंतरराष्ट्रीय समस्या है, पर भारत पर भी इसका बड़ा असर पड़ रहा है। जिस प्रकार देश में वनों का कटान और लकड़ी की तस्करी हो रही है उससे देश के वन क्षेत्र पर बुरा प्रभाव पड़ा है। पिछले साल के एक अध्ययन के अनुसार 7,08,273 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में वन है जो कि देश की भूमि का 21.54 फीसद बनता है। हालांकि यह दावा है कि 2015 से 2017 के बीच इस में एक फीसद का इजाफा हुआ है। अब दो सालों में कौन से पौधे है जो बढ़ कर पेड़ बन गए या जिन्होंने 630 वर्ग किलोमीटर धरती को वनों के क्षेत्र में ला दिया, यह आम लोगों की समझ से बाहर है। पर फिर भी यह दावा है कि इस समय 8,02,088 वर्ग किलोमीटर भारतीय धरती पर वन हैं। यह देश की कुल ज़मीन का 24.39 फीसद है। यह जानकारी ‘इंडियन स्टेट ऑफ फारेस्ट रिपोर्ट (आईएसएएफआर) में दी गई है। इस हिसाब से देखें तो यह 33 फीसद वन क्षेत्र से काफी कम है। जो की सरकार ने लक्ष्य रखा है। इस प्रकार वनों का कम होना देश के ग्लेशियरों के लिए खतरनाक साबित हो रहा है।
जिस प्रकार तापमान वढ़ रहा है, उससे ग्लेशियरों के बीच दबे पत्थरों का तापमान भी बढ़ता है और ग्लेशियर बीच में से पिघलना शुरू हो जाते हैं। उनका पानी ग्लेशियर के भीतर इक_ा हो कर वहां एक झील बना देता है। धीरे-धीरे झील का पानी बढ़ता रहता है। और जब ग्लेशियर की दीवारें कमज़ोर हो कर उसे संभल पाने में असफल हो जाती हैं तो वह झील टूट कर निचले क्षेत्रों में तबाही ला देती है। इसे अंग्रेजी भाषा में ‘ग्लेशियल लेक आउट ब्रस्ट’ भी कहते हैं। मनाली (हिमाचल प्रदेश) में आई बाढ़ सोलंग नाला ग्लेशियर के टूटने से ही आई थी। इसी प्रकार की बाढ़ सतलुज नदी में भी देखी गई है।
इस प्रकार ग्लेशियरों के लिए धरती का बढ़ रहा तापमान खतरनाक है। यदि ग्लेशियर नहीं रहेंगे तो धरती पर नदियों की कल्पना भी नहीं की जा सकत। सोचो यदि ग्लेशियर नहीं होंगे तो क्या होगा?
‘भूरे बादल भी जिमेदार हैं ग्लेशियरों के पिघलाने के लिए
कुछ वैज्ञानिक काफी लंबे समय से यह दावा करते आ रहे हैं कि यदि बढ़ते तापमान के कारण ग्लेशियर इस रफ्तार से पिघलते रहे तो 2035 में इनका अस्तित्व खत्म हो जाएगा। पर कुछ वैज्ञानिक इस तिथि के साथ सहमत नहीं। वे ये तो मानते हैं कि ग्लेशियर खतरे में हैं, पर 2035 को वे अंतिम तिथि नहीं मानते।
अध्ययन में यह भी पाया गया है कि हिमालय में ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार बहुत तेज है। कश्मीर में किए गए अध्ययन बताते हैं कि कोल्हाई ग्लेशियर एक साल में 20 मीटर तक सिकुड़ गया था जबकि एक और ग्लेशियर जो थोड़ा छोटा था पूरी तरह खत्म हो गया।
इन ग्लेशियरों पर अध्ययन कर रहा हैदराबाद का राष्ट्रीय भूभौतिकी अनुसंधान संस्थान। वहां के वैज्ञानिक मुनीर अहमद का कहना है कि ग्लेशियरों के इतनी तेजी से पिघलने की वजह ग्लोबल वार्मिग के साथ-साथ ‘ब्राउन क्लाउड’ भी है। ‘ब्राउन क्लाउड’ प्रदूषण युक्त वाष्प की मोटी परत होती है और यह परत तीन किलोमीटर तक मोटी हो सकती है। इस परत का वातावरण पर विपरीत असर होता है और यह जलवायु बदलाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
उधर संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम यानी यूएनपीई की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की सबसे ऊंची चोटी माउंट एवरेस्ट की तलहटी में भी काले धूंए के कण हंै और इनका घनत्व प्रदूषण वाले शहरों की तरह है। इन पर शोध कर रहे लोगों का कहना है कि काली घनी सतह ज़्यादा प्रकाश और गर्मी सोखती है, इसलिए ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने की यह भी एक वजह हो सकती है । यदि ग्लेशियरों के पिघलने की गति इतनी ही रही तो इसके नतीजे बहुत भयानक हो सकते हैं।
दक्षिण एशिया में गंगा, युमना, सिंधु, ब्रहमपुत्र वगैरा नदियों के स्त्रोत ग्लेशियर ही हैं। यदि ग्लेशियर खत्म हो जाते हैं तो ये नदियां भी सूख जाएंगी और इनमें केवल बरसाती पानी ही आएगा। इसका करोड़ों लोगों के जीवन पर कैसा प्रभाव पड़ेगा इसका अनुमान लगाना मुश्किल नहीं।
ग्लेशियर झीलें
ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने का एक असर यह भी है कि उनके भीतर पानी की झीलें बननी शुरू हो जाती है जिनका आकार लगातार बढ़ता रहता है। हिंदुकुश हिमालय में इस प्रकार की कई नई झीलें बनने का भी पता चला है। वैज्ञानिकों के अनुसार इन में से कई झीलें बाढ़ ला सकती हैं।
एक सर्वेक्षण में पाया गया कि पांच दरियाओं के क्षेत्र में 25,614 ग्लेशियर झीलें हंै और 1,444 वर्ग किलोमीटर इलाका इनके तहत आता है। हालांकि हिंदुकुश हिमालय क्षेत्र में कई
ग्लेशियर जिनकी लंबाई चौड़ाई घट रही है इनमें से ज़्यादा ग्लेशियर हिमालय और तिब्बत के इलाके में हैं।