बतौर न्यूनतम वेतन, आमदनी की गारंटी इन दिनों कई देशों में है। कुछ यूरोपीय देशों में तो अपने नागरिकों को न्यूनतम वेतन प्रदान करने की ऐसी योजना कई वर्ष से चल रही है। इस योजना पर अमल के लिए काफी बारीकी से डाटा का अध्ययन करना पड़ेगा और समर्पित समाज कल्याण अधिकारियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को तैनान करना पड़ेगा जो जनता की आर्थिक हालत की ईमानदारी से खुद जांच-पड़ताल कर सकें जिन्हें इस आमदनी की ज़रूरत है।
यह अच्छा होगा यदि ऐसा ही कुछ भारत जैसे देश के लोगों के लिए किया जा सके। लेकिन बाधाएं वे ही खड़ी कर देते हैं जिन्हें यह अरूचिकर लगता है। वित्तीय बोझ पर अभी हाल वल्र्ड ‘इनइक्वेलिटी लैब’ की ओर से नितिन भारती और लुकास चान्सेल ने कुछ रोचक संख्याएं सुझाई। ये लेखक यह अनुमान कर रहे हैं कि ‘न्यूनतम आमदनी’ का अंतर क्या है। यानी वह अंतर (गैप) जो न्यूनतम आमदनी , वास्तविक आमदनी और आमदनी के सभी स्त्रोतों को जोडऩे पर भी कुल न्यूनतम आमदनी से कम होता है। यानी साल भर में रुपए 72 हजार मात्र का न्यूनतम वेतन से अंतर कुल सकल घरेलू उत्पाद का 1.3 फीसद होता है। यह जानकारी खासी महत्वपूर्ण है। लेकिन यह हमें नहीं बताती कि सालाना न्यूनतम रुपए 72 हजार देने की गारंटी में खर्च क्या आएगा। यह सिर्फ इतना बताती है कि यदि ऐसा करते हुए लक्ष्य हासिल हो जाता है और इस राशि को पहुंचाने में कोई बड़ा खर्च नहीं आता तो सारी लागत कुल सकल घरेलू उत्पाद की तो मात्र 1.3 फीसद ही होगी।
इसके पहले कांग्रेस पार्टी ने बतौर एक अवतार न्यूनतम आमदनी गारंटी (एमआईजी) की पेशकश की थी। वह भी इसी तरह के ऊँचे नमूने पर आधारित थी। इसके पीछे की विचार प्रक्रिया थी कि सरकार सीधे-सीधे आमदनी में जो अंतर है उसे पूरा कर देगी। यानी न्यूनतम आमदनी और घर-घर की वास्तविक आमदनी। यह इसलिए अवास्तविक थी क्योंकि इसके तहत ज़रूरत थी घर-घर की आमदनी का ब्योरा पाना जिसे इक_ा करना फिलहाल लगभग असंभव है। फिर इससे स्पष्ट प्रोत्साहन की समस्याएं भी होती हंै। एक संभावित जवाब तो यह है कि अंतर के जोड़-घटाव का आधार आमदनी नहीं हो बल्कि यह एक तरह की कटी-छटी आमदनी हो। आमदनी यानी ऐसा एक आकलन जो एक घर की कुल आमदनी पर आधारित हो। उसके सारे खर्चों का अध्ययन हो मसलन शिक्षा, ज़मीन का स्वामित्व आदि। इस तयशुदा आमदनी में सबसे बड़ा दोष स्पष्टता का अभाव है जिसका असर बड़े समावेश और बहिष्कार की भूलों में दिखता है।
इन या दूसरी कई वजहों से यह टॉप अप फार्मूला भी छोडऩा पड़ा और ‘न्याय’ की घोषणा ‘यूनिफार्म कैश ट्रांस्फर वह भी रुपए 72,000 मात्र सालाना की घोषणा की गई। यानी हर महीने छह हजार रुपए मात्र की। यानी देश की कुल गऱीब आबादी के बीस फीसद को ही मिल सकेगी यह राशि। जब 2011 में जनसंख्या आकलन हुआ था, तो पहले यह दबाव बना कि ‘न्याय’ से बारह हजार मात्र की गारंटी का भूत हटाया जाए, क्योंकि ज़्यादातर परिवार तो किसी तरह खुद ही छह हजार मात्र तक तो कमा ही लेते हैं। हालांकि यह अनुमान भी गलत है। दरअसल भारती और चांसेल के अनुमान से देखें तो भारत में ज़्यादातर यानी 33 फीसद घर तो 2011-12 में रुपए छह हजार मात्र से भी कम कमा पाते हैं। इसके साथ ही इस अनुपात में आज इससे तो नीचे नहीं होगा। यानी संक्षेप में कहें तो ‘न्याय’ एक तरह से ‘नकदी से मदद’ की योजना है। जिसमें हर महीने रुपए छह हजार मात्र मिलते हैं- न कम न ज़्यादा उन ज़रूरत मंदों को मिलते हैं। इसे एक तरह से व्यापक पेंशन योजना भी कह सकते हैं। जिसमें खुद को कुछ भी नहीं देना पड़ता।
जाहिर है ‘न्याय’ का प्रस्ताव किसी भी दूसरे टॉप अप से कहीं ज़्यादा खर्चीला है। फार्मूले के तहत प्रति वर्ष रुपए 3,60,000 लाख मात्र या आज के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग दो फीसद ज़रूरत पड़ेगी। जिससे यह योजना जारी रखी जा सके। भारत का वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद हर साल सात फीसद की दर से बढ़ रहा है। यानी लागत हर हाल में कुल 1.4 फीसद ही सकल घरेलू उत्पाद पर आएगी। यदि यह राशि देश के बेहद गऱीब घरों में जा पाती है तो ‘न्याय’ सबसे उपयुक्त मॉडल है। न्याय का लाभ अब किन लोगों को मिल सकता है उसे बड़ी ही सावधानी से देखा जाना चाहिए।
आमतौर पर गऱीब की पहचान, कथित ‘गऱीबी की रेखा’ से नीचे के लोगों में से है। उन्हें बीपीएल की संज्ञा मिलती है। लेकिन बीपीएल सर्वे भी दुरूस्त नहीं हैं। तीन सर्वे तो यह बताते हैं कि ग्रामीण भारत में आधे से ज़्यादा गऱीब घरों में तो यानी 2004-05 में बीपीएल कार्ड भी नहीं थे। अभी हाल के वर्षों में ‘फूड सब्सीडी’ (आहार सहयोग) पाने वालों की पहचान के लिए ‘नेशनल फूड सिक्यूरिटी एक्ट’ के तहत ‘फूड सब्सीडी देने की पहचान के लिए सर्वे हुआ था। कुछ राज्यों ने तो एकदम अलग तरीका अपनाया। इसे ‘एक्सक्लूजन एप्रोच’ कह सकते हैं। इसमें खाते-पीते-अच्छे घरों को छोड़ते हुए सीधा-सरल और ‘ट्रांस्पेरेंट क्राइटेरिया’ यह अपनाया गया कि इस योजना में हर किसी का स्वागत है। सह तरीका बीपीएल सर्वे के समय अपनाए गए तरीके से बेहतर है। लेकिन जब ऐसे घरों की संख्या कम हो यानी 20 या 25 फीसद ही हो। तो बचे अस्सी फीसद के लिए ‘न्याय’ बेमानी होगा।
जिन घरों को लक्ष्य मान कर ‘न्याय’ से पैसा देने की बात की जा रही है वह बीपीएल के लक्ष्य में आए घरों से कहीं ज़्यादा हैं। भले ही झटका लगे लोगों को पेशन भी देते रहने का सिलसिला चलता रह सकता है। राजनीतिकों को तो नारे चाहिए। सीधे और सरल। हर साल रुपए 72 हजार मात्र देश के बीस फीसद लोगों के लिए लगता भी सही नारा। इससे मकसद भी पूरा हो रहा है लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि इसके साथ ही दरवाजा बंद न हो जाए। दूसरी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं के लिए भी काम हो।
फ्रांसीसी अर्थशास्त्री
प्रोफेसर अर्थशास्त्र विभाग
रांची विश्वविद्यालय