इतिहास अपने वास्तविक स्वरूप में गतिशील होता है। उसके गर्भ में कुछ ऐसे बीज तत्त्व होते हैं, जो वर्तमान एवं भविष्य की गतिशीलता को प्रेरित करते हैं। इतिहास की इस गतिशीलता की पृष्ठभूमि में ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। ब्रिटिश इतिहासकार हर्बर्ट बटरफ़ील्ड ने इतिहास को ‘एक निरंतर अग्रसारित होने वाली शक्ति’ के रूप में परिभाषित किया हैं। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से भारत में इस शक्ति का उपयोग नकारात्मकता के प्रसार में किया जा रहा है।
देश में राजनीतिक विमर्श का स्वरूप विघटनकारी हो चुका है। पिछले कई वर्षों से लगातार व्यक्तित्व के समानांतर व्यक्तित्व को खड़ा करके विवाद पैदा करने के कुत्सित प्रयास किये जा रहे हैं। इसके लिए सन्दर्भ रहित घटनाओं, आधे-अधूरे तथ्यों एवं परिस्थिति विशेष में कहे गये वक्तव्यों का प्रयोग किया जा रहा है। इसी के अनुरूप गाँधी-अंबेडकर, पटेल-नेताजी सुभाष चंद्र बोस-नेहरू, गाँधी-सावरकर जैसे चलायमान विवादों की इसी फ़ेहरिस्त में नया नाम शहीद-ए-आज़म भगत सिंह का है।
ऐसे बेतुके विमर्श का नया क्षेत्र पंजाब बना है। पंजाब में ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को एक-दूसरे पर तरजीह देने का विवाद तब शुरू हुआ, जब आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री पद का कार्यभार ग्रहण करते हुए भगवंत मान के पीछे मुख्यमंत्री कक्ष से गाँधी जी की तस्वीर ग़ायब थी। कांग्रेस के नेताओं ने आम आदमी पार्टी पर गाँधी जी की तस्वीर जानबूझकर हटाने का आरोप लगाया। हालाँकि दीवार पर डॉ. अंबेडकर और शहीद भगत सिंह की तस्वीरें लगी हुई दिखायी दे रही थीं।
उधर भाजपा और अकाली दल के नेताओं ने आम आदमी पार्टी पर महाराजा रणजीत सिंह की तस्वीर हटाये जाने का आरोप लगाकर हंगामा किया। प्रथम दृष्टया यह विवाद पैदा करने का सुनियोजित प्रयास प्रतीत होता है। ऐसा नहीं था कि मुख्यमंत्री कार्यालय की दीवार इतनी सीमित थी कि भगत सिंह और डॉ. अंबेडकर की तस्वीरों के साथ गाँधी जी एवं महाराजा रणजीत सिंह की तस्वीरें न लगायी जा सकें। वास्तव में यह सब प्रतीकों के माध्यम से वैचारिक युद्ध का प्रयास है, जिनमें व्यक्तित्वों का प्रयोग हथियार एवं सुरक्षा आवरण दोनों ही रूपों में किया जा रहा है।
इसी कड़ी में कुछ समय से अचानक ही कुछ अराजक तत्त्वों ने शहीद भगत सिंह को अपमानित करना शुरू कर दिया है। अकाली दल (अमृतसर) के प्रमुख एवं संगरूर (पंजाब) से सांसद सिमरनजीत सिंह मान ने संगरूर सीट से अपनी जीत को भिंडरावाले को समर्पित किया। इसके बाद उन्होंने शहीद भगत सिंह पर विवादित टिप्पणी करते हुए उन्हें ‘आतंकी’ कहा। अपनी टिप्पणी का आधार सिमरनजीत सिंह ने भगत सिंह द्वारा एक अंग्रेज अधिकारी की हत्या एवं संसद में बम फेंकने को बताया। हालाँकि पंजाब की आम अवाम और बाहर रहने वाले सिखों ने इसका जमकर विरोध किया। आश्चर्य है कि राष्ट्र एवं संविधान के प्रति निष्ठा की शपथ लेने वाले जनप्रतिनिधि एक राष्ट्रीय नायक के प्रति ऐसे अशोभनीय एवं अनैतिक विचार रखते हैं। दूसरी मुख्य बात यह वर्तमान में राजनीतिक-बौद्धिक समूहों के द्वारा चयनित तर्कों के आधार पर राष्ट्रीय नायकों के सम्मान हनन की प्रचलित हो चुकी सुनियोजित परम्परा का हिस्सा है। बौद्धिक-राजनीतिक जगत में ऐसा विमर्श पिछले काफ़ी समय से अस्तित्व में हैं।
दिक़्क़त यह है कि इस गम्भीर विमर्श में अल्पज्ञ एवं अमर्यादित प्रकृति के नेता भी कूद पड़े हैं, जो ऐसे मुद्दों पर आधारित बहसों में भाषा की मर्यादा लाँघ जा रहे हैं। कोई शहीद भगत सिंह को अपशब्द कह रहा है, किसी की समीक्षा के अंतर्गत देश की सारी समस्याओं की जड़ में गाँधीवाद है। साथ ही यह तुलना करने का प्रयास भी जारी है कि महात्मा गाँधी ज़्यादा महान थे या डॉ. अंबेडकर? आजकल वीर सावरकर की माफ़ी का सबसे ज़्यादा ज़िक्र करने वालों में आम आदमी पार्टी के नेता शामिल हैं। सम्भवत: वे ख़ुद अपनी पार्टी के मुखिया केजरीवाल को भूल गये हैं, जिन्होंने पहले एक भाजपा नेता पर निराधार आरोप लगाया, और फिर न्यायालय से फटकार पड़ते ही चिट्ठी लिखकर माफ़ी माँग ली।
आधारभूत मसला यह है कि कौन-सी विचारधारा किसी समाज के लिए किसी विशेष परिस्थिति में अधिक श्रेष्ठ है, इस पर बहस की जा सकती है। लेकिन किसी चयनित राष्ट्रीय नायक के त्याग को दूसरे प्रतिष्ठित व्यक्तित्वों के समक्ष श्रेष्ठ साबित करने का प्रयास बौद्धिक अशिष्टता ही मानी जाएगी। किसी विभूति द्वारा किया गया त्याग कुछ विशेष परिस्थितियों पर आधारित होता है। राष्ट्रीय नायकों के संघर्षों एवं त्याग की तुलनात्मक व्याख्या एक ऐसी अनैतिक बहस को जन्म देगी, जिसका परिणाम अंतहीन एवं विकृत टकराव होगा।
ऐतिहासिक व्यक्तित्वों को अपने मनोनुकूल कुछ विशेष घटनाओं के परिपेक्ष्य में सम्पूर्णत: से देखने या दिखाने का प्रयास विद्रूप अन्याय ही नहीं, बल्कि ऐतिहासिक कुटिलता भी होगी। उदाहरणार्थ बाल गंगाधर तिलक ने औपनिवेशिक सत्ता के विरोध के दौरान सामाजिक सुधार के कुछ मुद्दों पर रूढि़वादी मत को अपना समर्थन दिया। जैसे बाल विवाह को रोकने के लिए पारित क़ानून-1891 का एज ऑफ कंसेंट एक्ट, जिसका लोकमान्य तिलक ने इस आधार पर कड़ा विरोध किया कि विदेशियों को भारत के धार्मिक-सामाजिक रीति-रिवाज़ों में हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं हैं। उनके इस निर्णय के बहुत सारे पहलू हो सकते हैं, मसलन उन्होंने इसके आधार पर भारत में राष्ट्रवाद के प्रसार का प्रयास किया। परन्तु उनके इस निर्णय ने कहीं-न-कहीं बच्चियों के मानवाधिकारों को आघात पहुँचाया। अब इस एक घटनाक्रम के आधार पर लोकमान्य तिलक जैसे विराट व्यक्तित्व का मूल्यांकन, तो नहीं किया जा सकता।
स्वयं महात्मा गाँधी ने ख़िलाफ़त आन्दोलन (1919-20) को समर्थन देने के दौरान जिस तरह मुस्लिम रूढि़वाद को तरजीह दी, वह बहुत हद तक भारत में मुस्लिम साम्प्रदायिकता का आधार बनी। स्वयं बाबा साहेब अंबेडकर (थॉट्स ऑन पाकिस्तान) समेत कई विद्वानों ने इस विषय पर गाँधी जी के रुख़ की आलोचना की है। अब महात्मा गाँधी की एक ऐतिहासिक भूल (जैसा कई इतिहासकारों ने कहा है,) के आधार पर उनके व्यक्तित्व का चित्रांकन सरासर अनुचित होगा। ऐसा कोई भी प्रयास राष्ट्र के प्रति उनके त्याग, तपस्या एवं समर्पण की अवहेलना होगी। अन्यत्र गुरुदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने गाँधीवादी रणनीति से प्रेरित स्वतंत्रता आन्दोलन पद्धति की आलोचना की है। किन्तु इससे यह अर्थ नहीं लगाया जा सकता कि वह साम्राज्यवादी सत्ता के समर्थक थे। इसके अतिरिक्त पिछले कुछ वर्षों से यह बहस चर्चा में थी कि नेहरू की जगह सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते, तो देश की स्थिति क्या होती? हालाँकि समस्या यह है कि इतिहास का मूल्यांकन तथ्यों एवं यथार्थ पर आधारित होता है, ऐतिहासिक कल्पनाओं पर नहीं। अत: ऐसे विमर्श औचित्यहीन हैं। आज जो राजनीतिक समूह इन व्यक्तित्वों के प्रति अपना समर्पण दिखा रहे हैं, ऐसा नहीं है कि वे इनके व्यक्तित्व या विचारों से प्रभावित या इनके प्रति समर्पित ही हैं। वास्तव में उनका लक्षित समूह समाज का वह वर्ग है, जो इन महापुरुषों के विचारों, इनके जातिगत-सामाजिक आधार से ख़ुद का जुड़ाव महसूस करता है। ऐसे लोगों को यह समझने की ज़रूरत है कि ये विशिष्ट व्यक्तित्व इस राष्ट्र और समाज की साझा विरासत हैं। इन्हें सुविधाजनक खाँचों में बाँटकर ऐसे स्वार्थी तत्त्व इनके जीवन मूल्यों का अपमान तो कर ही रहे हैं, साथ ही समाज में अनावश्यक संघर्ष भी पैदा कर रहे हैं।
इसमें कोई समस्या नहीं कि कोई राजनीतिक या सामाजिक अथवा धार्मिक समूह किसी इतिहास पुरुष के विचारों एवं जीवन वृत्त के प्रति जुड़ाव रखे। किन्तु उसके समकक्ष किसी अन्य व्यक्तित्व को अनुचित तरी$के से विरोधी या खलनायक की तरह प्रस्तुत करना समस्या पैदा करेगा। यह उस व्यक्तित्व से जातिगत, धार्मिक अथवा किसी अन्य रूप में जुड़े दूसरे पक्ष को उकसायेगा कि वह इसका प्रतिकार करे। इससे सामाजिक ध्रुवीकरण बढ़ेगा, जिसके परिणाम अंतत: विघटनकारी होंगे।
ऐसे विमर्श का दायरा भारतीय राजनीति के वर्तमान नेतृत्व वर्ग तक भी प्रसारित है, जिसके लिए बहुत हद तक सरकारी तंत्र, राजनीति एवं मीडिया भी ज़िम्मेदार हैं। चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने पर पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री के तगमे से अख़बारों को पाट दिया गया। वही हालत महामहिम द्रौपदी मुर्मू के राष्ट्रपति निर्वाचित होने पर हो रही है। उनके साथ आदिवासी शब्द का प्रयोग लगातार उपसर्ग (प्रीफिक्स) के रूप में किया जा रहा है। इसी प्रकार भूतपूर्व राष्ट्रपति के.आर. नारायणन जैसे उच्च प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति की जातिगत पहचान को प्रमुखता से बनाये रखने में भी राजनीति एवं मीडिया जगत की ही प्रमुख भूमिका थी। उन्हें एक विद्वान राष्ट्रपति के बजाय आज भी देश के पहले दलित राष्ट्रपति के रूप में ही सम्बोधित किया जाता है।
कैसी विडंबना है कि जो देश संविधान लागू होने के बाद के सात दशकों से अधिक की यात्रा में लगातार जाति-भेद मिटाने का लक्ष्य लेकर चला है, उसका शिक्षित तबक़ा, जिसमें हर जाति-वर्ग के लोग शामिल है; समाज के प्रेरक व्यक्तित्वों को उनकी जातिगत पहचान से बाहर ही नहीं आने देना चाहता। सरकारी तंत्र भी इस प्रयोजन में उतना ही योगदान दे रहा है। आज भी दलित बस्तियों के नाम बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर ही क्यों हो? यह लोकमान्य तिलक, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, लोकनायक जे.पी. के नाम पर क्यों नहीं हो सकते हैं? इसी के समानांतर संस्कृत और ज्योतिष विद्यालयों-महाविद्यालयों एवं सवर्ण गाँवों के नाम भी डॉ. अंबेडकर और महात्मा ज्योतिबा फुले के नाम पर होने चाहिए।
इतिहासकार ए.एल. राउज का मानना है कि ‘इतिहास की उपयोगिता संकुचित दृष्टि वाले व्यक्तियों के लिए नहीं है।’ सम्मानित विभूतियों के व्यक्तित्व के मध्य सूक्ष्म अन्वेषण द्वारा लक्षित विरोधाभास, भारतीय राजनीति के लिए विभाजित वर्गों के भावनाओं का लाभ उठाने के लिए सुरम्य भूमि बन गये हैं। व्यक्ति को व्यक्ति से लड़ाने या इतिहास को जातिगत-वर्गीय खाँचों में बाँटने का प्रयास समाज और राष्ट्र को विभाजित और कमज़ोर ही करेगा।
ये उचित है कि नयी पीढ़ी को वास्तविक एवं तथ्यपूर्ण इतिहास का ज्ञान होना चाहिए। किन्तु इतिहास का प्रयोग राजनीतिक कुचक्रों के लिए किया जाना अनुचित है। वर्तमान की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं एवं समाज के ध्रुवीकरण हेतु इतिहास से प्रतिशोध नहीं लिया जाना चाहिए। यदि ऐसा होता रहा, तो समाज में कटुता और विघटन का बढऩा तय है, जिसके विध्वंसक परिणाम राष्ट्र को भुगतने होंगे।
(लेखक राजनीति एवं इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)