शिवसेना ने एक बार फिर चीफ मिनिस्टर पोस्ट को लेकर बीजेपी द्वारा 50:50 फार्मूले को खारिज किए जाने को मुद्दा बनाते हुए बीजेपी को धर्म और नीति का पाठ पढ़ाने की कोशिश की है अपने माउथपीस ‘सामना’ के जरिए।
सामना लिखता है कि पूरे हिंदुस्तान की नजर इस पर है कि शिवसेना भाजपा युति गठबंधन का क्या हो रहा है?
शिवसेना का मानना है कि ‘सत्ता पद का समान वितरण’ बीजेपी और शिवसेना के बीच का बखेड़ा है जिसकी आवश्यकता नहीं थी। लेकिन बखेड़ा शुरू हो चुका है । कौन कितनी सीटों पर जीता इसकी अपेक्षा सत्ता वितरण का करार महत्वपूर्ण है। चुनाव लड़ते समय उसका पालन किया जाना चाहिए लेकिन चुनाव के बाद करार को दोनों तरफ से निभाना महत्वपूर्ण और विश्वासदायी होता है। लोकसभा चुनाव के पहले युति(गठबंधन) की बुझी हुई बाती जलाते समय जो तय किया गया था उसे में अमल में लाया जाए।
देवेंद्र फडणवीस पर तंज कसते हुए शिवसेना कहती है कि शिवसेना की यही मांग है कि बाती जलाते समय दीपक में विश्वास का तेल डाला गया वह तेल नहीं तो क्या गंदा पानी था? बिल्कुल नहीं। सत्ता पद का सामान वितरण इस शब्द का मुख्यमंत्री ने पत्रकार परिषद ने प्रयोग किया था और सहमति से ही प्रयोग किया था। अब किसी राज्य के मुख्यमंत्री का पद ‘सत्ता पद’ के अंतर्गत नहीं आता ऐसा कोई कह रहा हो तो राज्यशास्त्र का पाठ नए सिरे से लिखना होगा ।समान वितरण में सब कुछ आ गया ।
सफलता के लिए बीजेपी द्वारा शिवसेना का साथ लिए जाने और सफलता मिलने पर उसे नजरअंदाज करने पर भी तंज कसते हुए शिवसेना ने खुद को ‘वैद्य’ बताते हुए लिखा है -2014 में मोदी के नेतृत्व में मिली बड़ी जीत मिलते ही भाजपा ने शिवसेना छोड़ दी और 2019 में ‘सफलता’ मिलते ही आवश्यकता पूरी होने पर ‘वैद्य’ के मरने का दूसरा चरण शुरू हो गया लेकिन यहां वैद्य नहीं मरेगा। वैद्य के जीभ के नीचे संजीवनी गुटिका है ।यह संजीवनी महाराष्ट्र की जनता का आशीर्वाद है ।’मुख्यमंत्री’ सत्ता पद नहीं है और उसका सामान वितरण संभव नहीं है, ऐसा किसी को लग रहा होगा तो बिना ‘सत्ता’ पद के लिए देशभर में इतनी दौड़ भाग किस लिए ? मुख्यमंत्री पद की बात हो या समान पद का वितरण की बात ‘पेंंच’ जरूर फंस गया है। जब सब कुछ पहले से तय था तो यह ‘पेंंच’ क्यों फंसा? जो तय है उसके लिए सबूत की आवश्यकता नहीं है लेकिन फिलहाल धर्म ग्रंथ पर हाथ रखकर झूठी कसम खाने वालों का जमाना है। लेकिन शिवसेना वचन निभाती है और मानती है। शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे का जिक्र करते हुए सामना लिखता है कि ठाकरे ने उद्धव से कहा था कि वह तो बिना विचार किए किसी को वचन न देंं और एक बार वचन दिया तो पीछे न हटें।
भारतीय जनता पार्टी से हमारा जन्मजात बैर नहीं था। वर्तमान राजनीति में कोई किसी का दुश्मन नहीं होता। चुनावी नतीजों के पश्चात दुश्मनी खत्म हो जाती है शेष बचता है वैचारिक मतभेद। भाजपा के साथ ऐसा मतभेद नहीं है। दोनों के विचार एक हैं अर्थात हिंदुत्व का विचार उसमें किसी प्रकार से दरार आने का प्रश्न ही नहीं उठता।
विधिमंडल पार्टी की बैठक में भगवे रंग का जिक्र करते हुए सामना कहता है यह रंग तेज, त्याग और स्वाभिमान का रंग है और सच्चाई का भी। इसलिए शिवराय के राज्य में सभी को भगवा की शान रखते हुए राजनीति करनी चाहिए। महाराष्ट्र का वैचारिक आधार धर्म और नीति का है कहते हुए सामना कहता है कि शिवसेना शिवराय के विचारों और शिवसेना प्रमुख की प्रेरणा से आगे बढ़ रहे हैं । फिर ‘पेंच’ फंसे या ‘चक्रव्यू’ निर्माण हो। लड़ाकों को संकटों की परवाह नहीं होती।
कुल मिलाकर शिवसेना भले ही साफ-साफ कह रही है कि वह लड़ने को तैयार है लेकिन सच तो यह है कि वह सत्ता भी अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहती और झुकना भी नहीं चाहती । एक तरफ और धर्म और नीति की बात करती है और दूसरी तरफ तेज, त्याग और स्वाभिमान की ।लेकिन त्याग करे तो कौन? शिवसेना या बीजेपी?
एक तरफ को कहती है की भाजपा के साथ कोई मतभेद नहीं है दूसरी तरफ वहां ‘सत्ता पद के समान वितरण’ की बात पर जोर देती है और कहती भी है ‘पेंच’ फंसे या ‘चक्रव्यूह’ का निर्माण हो वह लड़ती रहेगी।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि ‘पेंच’ फंसा किस लिए है? और क्यों ?यह तो शिवसेना ने साफ कर दिया है लेकिन’ चक्रव्यूह’ का निर्माण कौन कर रहा है और किसके लिए? इस पर सस्पेंस बरकरार है।