उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने आखिर एकमत से 158 साल पुरानी भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसके तहत परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध बनाना अपराध बताया गया था। न्यायालय ने कहा कि यह प्रावधान संविधान में दिए गए समता के अधिकार का उल्लंघन करता है। कोर्ट के इस फैसले के बाद देश में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं आईं। फैसले का लेस्बियन, गे, बॉयसेक्युल, ट्रांसजेंडर और किन्नर (एलजीबीटीक्यू) समुदाय के सदस्यों और विभिन्न राजनीतिक दलों ने स्वागत किया है जबकि धार्मिक संगठनों ने इसे ‘प्रकृति के खिलाफ’ बताया।
देश में धारा 377 का मुद्दा कोई नया नहीं था। 2001 में पहली बार एक गैर सरकारी संस्था नाज फॉउंडेशन ने इसे लेकर दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की थी। बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि देश में समलैंगिक यौन सम्बन्ध के करीब 7200 मामले देश भर में दर्ज हैं। धारा 377 ‘अप्राकृतिक अपराधों’ से संबंधित है जिसमें किसी महिला, पुरुष या जानवरों के साथ अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध बनाने वाले को आजीवन कारावास या दस साल तक के कारावास की सजा और जुर्माने का प्रावधान था। इनमें सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश के हैं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के रिकार्ड के मुताबिक 2014 से 2016 के बीच ही 4690 मामले दर्ज किये गए। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद इन मामलों पर राज्य सरकारों को फैसला करना होगा। हालाँकि इनमें कई मामले समलैंगिक संबंधों से इतर आपराधिक दृष्टिकोण से जुड़े हैं जिनमें बच्चों से जबरी सम्बन्ध बनाने के मामले भी शामिल हैं। यह फैसला आने के बाद इस संवाददाता ने लोगों से बात की। चंडीगढ़ में सेक्टर 21 की कंचन (बदला नाम) ने इसे सही फैसला करार दिया। कंचन के पति उन्हें छोड़ चुके हैं और वे अकेली रहती हैं। उन्होंने कहा कि रिश्ता एक नितांत निजी फैसला है। ‘आप किसके साथ रहेंगे और किससे प्यार करेंगे, यह आपको तय करना है। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट ने इस पक्ष का ख्याल रखते हुए फैसला किया है जिसका समर्थन करते हैं’। उन्होंने नाम न छपने की शर्त पर स्वीकार किया कि वे महिला मित्र के साथ रिश्ता रखती हैं।
हालाँकि शिमला सचिवालय में कार्य करने वालीं कमला धारटा ने इसे प्राकृतिक नियम के खिलाफ बताया। ‘दो समान लिंग के लोगों के बीच सेक्स संबंध प्रकृति के नियमों का उल्लंघन है। इसे धार्मिक दृष्टि से न देखकर वैज्ञानिक दृष्टि से भी देखें तो भी यह गलत लगता है’।
उधर दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ रहे रोहिणी के अतुल (बदला नाम) ने इस फैसले को सही बताया। उनके मुताबिक यह फैसला कानून की बेवजह की बेडिय़ों से बाहर निकलने वाला फैसला है जिसका अभिनन्दन किया जाना चाहिए। जब उनसे पूछा कि क्या वे खुद अपने बारे में ऐसे समलैंगी रिश्ते को स्वीकार करेंगे, उन्होंने कहा कि वे समलैंगी दोस्त के साथ ‘मित्रता’ रखते हैं।
वैसे जिन लोगों से इस संवाददाता ने बात की उनमे से काफी ने यह तो कहा कि बड़ी अदालत का फैसला है लिहाजा कुछ विचार करके ही आया होगा, हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि वे व्यक्तिगत रूप से ऐसा रिश्ता नहीं रखना चाहेंगे जबकि कुछ ने कहा कि इसमें कुछ गलत नहीं। इनमें लड़कियां भी शामिल थीं।
दिल्ली के मोहन गार्डन इलाके के एक मंदिर में पुजारी रामानंद रणाकोटी ने इसे ‘आफत को बुलावा देने वाला’ बताया। मूल रूप से उत्तराखंड के रहने वाले रणाकोटी ने कहा कि दुनिया गलत दिशा में जा रही है। ‘यह महापाप है। आने वाले समय में इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी’।
समलैंगिक मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने भले इसे आपराधिक मामला नहीं माना है लेकिन इस मसले पर धार्मिक संगठनों ने विरोध के स्वर उठाये हैं। पुलियाकुलम गिरिजाघर के फादर फेलिक्स जेबासिंह जिला अदालत परिसर पहुंचे और गलियारे में खड़े होकर नारेबाजी शुरू कर दी और लोगों से समलैंगिक विवाह का समर्थन ना करने की अपील की। पुलिस के घेरने के बाद भी फादर ने चीखते हुए कहा, ‘धारा 377 (भादंवि की) पर उच्चतम न्यायालय के फैसले का समर्थन ना करें। ईसा मसीह आ रहे हैं। उनका आगमन निकट है। इस तरह की शादी से सामज पूरी तरह बर्बाद हो जाएगा।’ उन्होंने कहा, ‘परम पिता ने सोडोम और गोमोरा के शहर आग तथा सल्फर से बर्बाद कर दिए थे क्योंकि वह समलैंगिकता का समर्थन करते थे। समलैंगिकता का समर्थन न करें’।
साल 2001 में जब नाज फॉउंडेशन ने कोर्ट का इस मसले को लेकर रुख किया था तो उसने इसे सही ठहराने का पक्ष लिया था। कोर्ट ने समान लिंग (पुरुष-पुरुष या महिला-महिला) के दो वयस्कों के बीच यौन संबंधों को अपराध घोषित करने वाले प्रावधान (धारा 377) को ‘गैरकानूनी’ बताया था। हालांकि दिल्ली उच्च न्यायालय के 2009 में आये इस फैसले को सुप्रीम
कोर्ट ने 2013 के अपने फैसले में गलत ठहराते हुए पलट दिया जिससे धारा-377 का अस्तित्व बना रहा।
इसके बाद यह मसला देश भर में दो विचारधाराओं के बीच बहस का मुद्दा बना रहा। कोर्ट में इस पर मामला पहुंचा। संविधान पीठ ने इसी साल 10 जुलाई को इन याचिकाओं पर सुनवाई शुरू होते ही स्पष्ट कर दिया था कि वह सुधारात्मक याचिकाओं पर गौर नहीं कर रही है और इस मामले में सिर्फ नयी याचिकाओं पर ही निर्णय करेगी। इन याचिकाओं का अपोस्टालिक अलायंस ऑफ चर्चेज और उत्कल क्रिश्चियन एसोसिएशन तथा कुछ अन्य गैर सरकारी संगठनों और व्यक्तियों ने विरोध किया था।
आखिर सुप्रीम कोर्ट ने सितम्बर में आईपीसी की धारा 377 की संवैधानिक वैधता पर अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई में पांच जजों की संवैधानिक पीठ ने समलैंगिक यौन संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर रखते हुए कहा कि ‘हमें एक व्यक्ति की पंसद का सम्मान करना चाहिए’। कोर्ट ने कहा – ‘दो बालिगों का सहमति से अप्राकृतिक संबंध बनाना जायज है इसलिए समलैंगिक संबंध अपराध नहीं है’।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति रोहिंगटन एफ नरीमन और न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा की संविधान पीठ ने धारा 377 के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं का संयुक्त रूप से निपटारा करते हुए कहा कि एलजीबीटी समुदाय को हर वह अधिकार प्राप्त है, जो देश के किसी आम नागरिक को मिला हुआ है। इस मामले में मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायमूर्ति रोहिंगटन एफ नरीमन, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ने अलग-अलग परंतु सहमति का फैसला सुनाया।
संविधान पीठ ने नृत्यांगना नवतेज जौहर, पत्रकार सुनील मेहरा, शेफ ऋतु डालमिया, होटल कारोबारी अमननाथ और केशव सूरी और व्यवसायी आयशा कपूर और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) के 20 पूर्व और मौजूदा छात्रों की याचिकाओं पर यह फैसला सुनाया। इन सभी ने दो वयस्कों द्वारा परस्पर सहमति से समलैंगिक यौन संबंध स्थापित करने को अपराध के दायरे से बाहर रखने का अनुरोध करते हुए धारा 377 की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। संविधान पीठ ने आम सहमति से 158 साल पुरानी आईपीसी की धारा 377 के उस हिस्से को निरस्त कर दिया जिसके तहत परस्पर सहमति से अप्राकृतिक यौन संबंध अपराध था।
न्यायालय ने हालांकि पशुओं और बच्चों के साथ अप्राकृतिक यौन संबंध बनाने के अपराध के मामले में धारा 377 के एक हिस्से को पहले की तरह अपराध की श्रेणी में ही बनाए रखा है। न्यायालय ने कहा कि धारा 377 एलजीबीटी के सदस्यों को परेशान करने का हथियार था, जिसके कारण इनसे भेदभाव होता है।
यदि इस मसले पर नजर दौड़ाई जाये तो इससे जुड़े मामलों की बात भी सामने आती है। धारा 377 के तहत आज की तारीख में अनुमानता 7200 मामले दर्ज हैं। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो (एनसीआरबी) के रिकार्ड का अध्ययन करने से पता चलता है कि 2014 से 2016 के बीच 4690 मामले धारा 377 के तहत दर्ज हुए। ब्यूरो की वेबसाइट पर 2016 तक के उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक इस धारा के तहत दर्ज मामलों में उत्तर प्रदेश और केरल सबसे आगे हैं। साल-दर-साल इन मामलों में बढ़ोतरी हुई है।
समलैंगिक यौन संबंध की जिस धारा को अब देश की शीर्ष अदालत ने निरस्त किया है उसके तहत 2014- 2016 के बीच कुल 4690 मामले देश भर में दर्ज हुए। एनसीआरबी के मुताबिक 2016 में धारा 377 के तहत समलैंगिक यौन संबंधों के 2195 मामले दर्ज हुए जिनकी संख्या 2015 इससे कहीं कम 1347 थी। दिलचस्प यह भी है कि 2014 में यही मामले सिर्फ 1148 थे।
ब्यूरो के रिकार्ड के मुताबिक उत्तर प्रदेश धारा 377 के तहत दर्ज मामलों में सबसे आगे हैं जहाँ 2016 में ही 998 मामले दर्ज हुए जबकि केरल में 207 मामले दर्ज किये गए। राजधानी दिल्ली में भी धारा 377 के तहत 183 मामले दर्ज हुए। महाराष्ट्र में 170 मामले दर्ज किए गए। साल 2015 में धारा 377 के तहत सबसे ज्यादा 239 मामले उत्तर प्रदेश में, 159 केरल में, महाराष्ट्र में भी 159, हरियाणा और पंजाब में क्रमश 111 और 81 मामले दर्ज हुए।
अब बात बच्चों के खिलाफ यौन अपराध की। साल 2015 में देश में रजिस्टर हुए 1347 मामलों में 814 मामले बच्चों के उत्पीडऩ से जुड़े थे जिसमें सबसे ज्यादा 179 यूपी में, 142 केरल, 116 महाराष्ट्र जबकि 63 हरियाणा में दर्ज किये गए थे। यहाँ यह गौर करने वाली बात है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला आपसी सहमति को लेकर आया है। ऐसे में जो मामले जोर जबरदस्ती से संबंध बनाने को लेकर हैं और जिनमें बच्चों का उत्पीडऩ हुआ है उसमें आरोपियों को राहत की संभावना काम है।
विशेषज्ञ बोले, सही फैसला
कानून के जानकार विशेषज्ञों ने कोर्ट के फैसले को लेकर अपनी राय जाहिर की है। पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी ने इसे ‘उत्साहजनक फैसला’ बताया। सोराबजी ने कहा कि यह एक उत्साहजनक फैसला है और यदि किसी व्यक्ति के यौन रूझान विशिष्ट हैं तो यह कोई अपराध नहीं है। उधर अधिवक्ता आनंद ग्रोवर ने कहा कि इस फैसले से राजनीति की दशा और मानवीय मूल्यों में बदलाव आएगा। वरिष्ठ अधिवक्ता महेश जेठमलानी ने कहा कि इस फैसले ने लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और किन्नर (एलजीबीटीक्यू) समुदाय के लिए पूरी समानता के दरवाजे खोल दिए हैं।
समलैंगिकता और आरएसएस
समलैंगिकता पर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की राय में परिवर्तन दिखा है। सुप्रीम कोर्ट के धारा 377 पर फैसले के बाद आरएसएस ने कहा कि ‘समलैंगिकता अपराध नहीं है लेकिन हम समलैंगिक विवाह का समर्थन नहीं करते क्योंकि यह प्राकृतिक नहीं है’। संघ के प्रचार प्रमुख अरुण कुमार ने फैसले के बाद कहा – ‘उच्चतम न्यायालय के फैसले की तरह हम भी इसे (समलैंगिकता) अपराध नहीं मानते’। हालाँकि, उन्होंने संघ के पुराने रुख को दोहराते हुए कहा कि समलैंगिक विवाह और ऐसे संबंध ‘प्रकृति के साथ संगत’ नहीं होते हैं। उन्होंने कहा, ‘ये संबंध प्राकृतिक नहीं होते इसलिए हम इस तरह के संबंध का समर्थन नहीं करते।’ उन्होंने दावा किया कि भारतीय समाज ‘पारंपरिक तौर पर ऐसे संबंधों को मान्यता नहीं देता है।’ कुमार ने कहा कि मनुष्य आमतौर पर अनुभवों से सीखता है इसलिए इस विषय पर चर्चा की जरुरत है और इसके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर से निपटने की ज़रुरत है।