रॉबर्ट वाड्रा मामले के बाद पत्रकारिता को आत्ममंथन करने की जरूरत है.
मुख्यधारा की पत्रकारिता के लिए यह परीक्षा की घड़ी है. लगभग हर दिन घोटालों का भंडाफोड़ हो रहा है. मंत्री से लेकर संतरी तक सभी के भ्रष्टाचार का खुलासा हो रहा है. इनकी खबरें भी न्यूज मीडिया की सुर्खियों में हैं. किसी को भी भ्रम हो सकता है जैसे खोजी पत्रकारिता का ‘स्वर्णकाल’ चल रहा हो. लेकिन फिर भी एक कमी हमेशा महसूस होती रही है. वह यह कि इस सार्वजनिक जांच-पड़ताल और जवाबदेही के दायरे से सत्ता और कॉरपोरेट जगत के शीर्ष पर बैठे मुट्ठी भर नेताओं, उनके परिवारों, उद्योगपतियों और खुद मीडिया मालिकों को दूर रखा जा रहा है.
दरअसल, राजनीतिक दलों से लेकर कॉरपोरेट मीडिया तक में लंबे समय से एक अघोषित-सी सहमति रही है जिसके तहत सत्ता और कॉरपोरेट के शीर्ष पर बैठे कुछ चुनिंदा लोगों को किसी भी सार्वजनिक जांच-पड़ताल, सवाल-जवाब और खुलासों से बाहर रखा जाता रहा है. इनमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उनका परिवार सबसे ऊपर है. इससे पहले पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और उनका परिवार इसी स्थिति में था. इसके अलावा प्रमुख कॉरपोरेट घरानों और मीडिया मालिकों से भी दस हाथ की दूरी बरती जाती रही है. कॉरपोरेट घोटालों के खुलासों के मामले में तो मीडिया में एक षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी-सी दिखती रही है.
लेकिन अरविंद केजरीवाल और प्रशांत भूषण ने घोटालों के भंडाफोड़ की कड़ी में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की संपत्ति में सिर्फ कुछ ही वर्षों में हुई अभूतपूर्व वृद्धि और रीयल इस्टेट कंपनी डीएलएफ के साथ उनके संबंधों/सौदों पर उंगली उठाकर न सिर्फ बर्र के छत्ते को छेड़ दिया है बल्कि इस षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी को भी झटका दिया है. पूरी सरकार और कांग्रेस पार्टी के बचाव में उतर आने के बावजूद यह मुद्दा सुर्खियों में बना हुआ है. कॉरपोरेट मीडिया के बड़े हिस्से ने इस खुलासे को अच्छी-खासी कवरेज दी है और प्राइम टाइम चर्चा में भी यह मुद्दा छाया रहा है.
जब रॉबर्ट वाड्रा के बारे में ये जानकारियां एक साल से उपलब्ध थीं तो क्यों किसी भी मीडिया समूह ने उनकी छानबीन करने में रुचि नहीं दिखाई
लेकिन उसके साहस की दाद देते हुए भी कुछ सवाल हैं जिनके जवाब अनुत्तरित हैं. पहला, कहते हैं कि वाड्रा की अभूतपूर्व छलांग के बारे में ये जानकारियां और दस्तावेज एक साल से अधिक समय से कॉरपोरेट मीडिया से जुड़े पत्रकारों/संपादकों के अलावा प्रमुख विपक्षी दलों के नेताओं पास भी थे. लेकिन किसी भी मीडिया समूह ने उनकी छानबीन करने और उसे सार्वजनिक करने में रुचि नहीं दिखाई. दूसरा, जब केजरीवाल ने दस्तावेजों सहित रॉबर्ट वाड्रा-डीएलएफ संबंधों/सौदों पर कई गंभीर सवाल खड़े कर दिए तो भी एकाध अपवादों को छोड़कर किसी भी प्रमुख मीडिया समूह ने इस मामले की आगे की स्वतंत्र जांच-पड़ताल क्यों नहीं की? आखिर फॉलो-अप स्टोरीज क्यों नहीं दिखीं? क्यों डीएलएफ और रॉबर्ट वाड्रा की सफाई के बाद एक बार फिर केजरीवाल को और दस्तावेज जारी करने पड़े? ऐसा लगता है कि जैसे प्रमुख विपक्षी दल भाजपा केजरीवाल के कंधों पर रखकर बंदूक चला रही है, उसी तरह कई तेजतर्रार-साहसी संपादक और उनके चैनल-अखबार भी अरविंद केजरीवाल की आड़ में निशानेबाजी कर रहे हैं.
लेकिन तीसरा सवाल सबसे महत्वपूर्ण है. क्या रॉबर्ट वाड्रा मामला सामने आने से वास्तव में कॉरपोरेट मीडिया, कॉरफोरेटस और सत्ता शीर्ष की राजनीति में आपसी सहमति के आधार पर बनी षड्यंत्रपूर्ण चुप्पी टूट गई है? यह दावा करना जल्दबाजी है. इस दावे पर तब तक विश्वास करना संभव नहीं है जब तक खोजी पत्रकारिता और भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के राडार पर बड़े कॉरपोरेट समूह, उनके मालिक और मीडिया कंपनियों के मालिक नहीं आते? इस मायने में कॉरपोरेट मीडिया और वैकल्पिक राजनीति का दावा करने वालों की परीक्षा अब शुरू हुई है.