आप दोनों की जाती ज़िन्दगी के बारे में लोग कम ही जानते हैं। कुछ बताएं!
वाजिद : हमारी पैदाइश मुम्बई की ही है। टाउन के बाबुलनाथ मंदिर के पास अस्पताल में 1972 में मेरा जन्म हुआ, बल्कि हम तीनों ही भाइयों की बर्थ यहीं की है। मेरे पिता उस्ताद शराफत हुसैन खान जी बड़े तबला वादक रहे हैं। उन्होंने सैकड़ों िफल्मों में तबला बजाया। कल्याण जी आनंद जी, पंचम (एसडी बर्मन), नौशाद, खय्याम, इलैया राजा, बप्पी लहरी, नदीम श्रवण, आनंद मिलिंद, जतिन ललित, अन्नू मलिक जैसे फनकारों से बेहतरीन संगत रही। उमराव जान का पूरा संगीत उन्होंने अरेंज किया था। मुकद्दर का सिकंदर, सुहाग में तबले को आधुनिक तरीके से उन्होंने पेश किया। मैंने पिता जी से तबला व अरेंजमेंट की ट्रेनिंग ली, जबकि आरके दास से गिटार सीखा।
साजिद : घर में संगीत का माहौल था, सुनने-बजाने वाले लोगों की सोहबत रही, जिसका हमें लाभ हुआ। मैं संगीत में प्रयोगों का समर्थक इसीलिए बन सका, क्योंकि हमारे पिता जी की सोच एकदम आधुनिक थी। भले वे पुराने दौर से तबला बजाते आ रहे हैं, लेकिन बदलते वक्त के हिसाब से उन्होंने संगीत तैयार करने और अरेंजमेंट में काफी एक्सपेरिमेंट किये।
आपके ननिहाल में भी संगीत का अहम सिलसिला रहा है!
वाजिद : हमारे नानू पद्मश्री उस्ताद फैयाज़ अहमद खाँ साहब और उनके छोटे भाई नियाज अहमद खाँ साहब से बहुत कुछ तालीम ली। एक तरफ अब्बा के साथ रिकॉॄडग में जाते, तो कारोबारी समझदारी बढ़ती। स्टूडियो के रंग-ढंग पता चलते थे, वहीं घर पर माँ की गुनगुनाहट सुनकर मौसिकी से लगाव बढ़ता गया। मैं अक्सर माँ के पाँव दबाता और तब वो आराम करते हुए कोई न कोई गाना गुनगुनाती जातीं। उनको सारे गाने पूरी तरह याद थे, धुन और बोल के साथ। उस वक्त के नग्मों में सच्चाई बहुत थी। तब का संगीत रूह को सुकून देता था। रेडियो का ज़माना था। माँ रेडियो पर प्रसारित होने वाले गाने सुनतीं, बाद में जब गुनगुनातीं, तब मैं मुँह से ठेका बजाता जाता। ऐसे ही संगीत का साथ बचपन से हुआ, जो अब तक चलता जा रहा है। हम दोनों भाइयों ने बैठकर तो रियाज़ किया ही- देखकर, परखकर, सीखकर भी संगीत को समझा और अपनाया।
साजिद को जहां संगीत की दुनिया का डॉन कहा जाता है, वहीं वाजिद की पहचान कूल गॉय के रूप मेें होती है। कुछ कहेंगे?
साजिद : लोगों की मोहब्बत है, जो चाहें नाम दे दें। वैसे, डॉन शायद इसलिए कहते होंगे, क्योंकि मैं गलत बात बर्दाश्त नहीं करता। कभी किसी से भिड़ता नहीं; लेकिन नाजायज़ बातें सुनकर चुप भी नहीं रहता। मेरा और वाजिद भाई का अलग-अलग स्वभाव बैलेंस बनाकर रखता है।
वाजिद : हाँ, ये सच है कि साजिद भाई कट-टू-कट बात करते हैं। वैसे, मैं कई बार ध्यान नहीं देता। जुदा मिज़ाज का फायदा भी होता है। हम दोनों कंप्लीट पैकेज हैं।
आपके संगीत के बारे में एक बात दम ठोंककर कही जा सकती है, वह यह कि कहीं से कुछ कॉपी किया हुआ नहीं है, इंस्पायर्ड भी नहीं लगता!
साजिद : हमारे अब्बा कहते थे कि नियत साबुत तो मंज़िल आसान! चाहे देर से करो, सब्र रखो। चोरी करोगे, किसी की धुनें उड़ाओगे तो टिकोगे नहीं। कुछ वक्त के लिए हो सकता है, चमक मिल जाए, लेकिन फिर भुला दिये जाओगे।
आप दो अलग लोग हैं; यकीनन समझ, महसूसियत और प्रयोगों में अन्तर होगा। किस तरह सिंक करते हैं और क्या कभी अलग-अलग सोच भी होती है, किसी धुन आदि को लेकर? जब कभी ऐसी स्थिति पैदा होती है, तब किस तरह सुलझाते हैं?
साजिद : अच्छे काम के लिए हमारे बीच जमकर बहसें होती हैं; लेकिन हम अहंकार को दीवार नहीं बनने देते। हमें पता है कि दो लोग अलग ढंग से सोचते हैं, ऐसे में केवल एक ही टार्गेट होना चाहिए कि फाइनल प्रोडक्ट अच्छा रहे। वाजिद हर सुझाव पर गौर करते हैं और मैं भी उनकी बातें सुनता हूँ। कभी थोड़ी-बहुत बहस भी हो जाती है; लेकिन हर बार उद्देश्य यही होता है कि गाना अच्छे से अच्छा बन जाए।
वाजिद : दबंग-3 के एक गाने की रिकॉॄडग के वक्त मैंने जो कम्पोजिशन तैयार की, उससे साजिद संतुष्ट नहीं थे। उन्होंने साफ कह दिया कि इसमें मज़ा नहीं आ रहा है। मुझे गुस्सा आया कि सबके सामने ऐसे बोल रहे हैं। मैंने नाराज़गी ज़ाहिर की, तो सब्र के साथ समझाने लगे कि वाजिद! तुमने जो कम्पोजिशन तैयार की है, वह तो तुम बायें हाथ से, चुटकी बजाते हुए बना सकते हो। कुछ ऐसा करो, जिसे सुनकर लगे कि वह वाजिद की स्पेशिलिटी है। ये बात मेरी समझ में झट से आ गयी। हमारे बीच ऐसी ही लोकतांत्रिक व्यवस्था है।
आजकल का संगीत बड़ा सादा-सा हो गया है। न कोई मुरकी, न ही तान! क्या वजह है इसकी? क्या संगीतकारों को ये लगता है कि आम जनता कठिन संगीत समझ नहीं पाएगी या फिर वे ही नहीं समझते?
साजिद : आम जनता को बेवकूफ ना समझो भाई। अगर आप खुद को तानसेन समझते हैं, तो वो भी कानसेन हैं। सच यही है कि आजकल के संगीत डायरेक्टर्स को खुद ही संगीत की समझ नहीं है। बोल अच्छे होने पर वे रूह में दािखल हो जाते हैं।
वाजिद : मैंने तो हरदम यह महसूस किया है कि रूहदारी वाले गाने हमेशा पसन्द किये जाते हैं। जनता के दिल को जो छू जाए, उसका कोई जवाब नहीं होता। अगर नॉलेज दिखाने के लिए संगीत कठिन बना दिया जाए, तब भी असर नहीं डालेगा। संगीतकार का कमाल यह होना चाहिए कि अंतरों में आलाप के समय जितनी हरकतें करनी हैं, करा दे और सुनने वाले उसका आनन्द भी ले लें। जो दिल को सुकून दे, वही मौसिकी है। कम्पोजिशन अच्छी हो, तो आप किसी भी तरह अरेंज कर दो, अच्छी लगती है।
सलमान खान के साथ आपकी पार्टनरशिप कमाल की रही है। ऐसा किस तरह मुमकिन हुआ?
साजिद : थोड़ा पहले से बात करता हूँ। संगीत वालों की ये बदिकस्मती ही रही है कि उनके पीछे किसी का हाथ कभी नहीं रहा। जितनी मेहनत की, उतना ही खाया। मुझे अब भी याद है कि अब्बा की तबीयत यकायक काफी बिगड़ गयी थी और तब तक हमारी पढ़ाई जारी थी; हम संगीत सीख रहे थे। यकायक, पूरे घर की •िाम्मेदारी हमारे कन्धे पर आ गयी। तीसरे भाई जावेद की उम्र कम थी, इसलिए उसे डिस्टर्ब नहीं किया। हमने तय किया कि पढ़ाई के साथ-साथ काम करेंगे। स्ट्रगल का दौर बहुत बड़ा और परेशानी भरा था; लेकिन हमने हिम्मत नहीं हारी। सलमान के छोटे भाई सोहेल से हमारी अच्छी दोस्ती थी; लेकिन कभी हमने उस सम्बन्ध का नाजायज़ फायदा नहीं उठाया। ये इत्तेफाक की ही बात है कि एक बार उन्होंने हमारी कम्पोजिशन सुनी और फिर झटपट गाना बनाने के लिए कह दिया। अब तो खैर, हम उनकी हर िफल्म का हिस्सा होते हैं।
वाजिद : सलमान भाई के साथ संगीत का सिलसिला 1998 में रिलीज प्यार किया तो डरना क्या से ही चला आ रहा है और ‘दबंग-3’ तक आ पहुँचा है। इतना लम्बा रिश्ता यूँ ही नहीं बनता और चलता है। दरअसल, उनके पास संगीत की समझ और सलीका है। वे इज़्ज़त देना भी जानते हैं, इसलिए हमारे बीच एक अटूट रिश्ता बना हुआ है; जो इंशा अल्लाह हमेशा कायम रहेगा।