यह रफ़्तार का युग है। रफ़्तार रोमांच पैदा करती है; जितनी तेज़ रफ़्तार उतना अधिक रोमांच। इसके साथ जुड़े खतरे के बावजूद भी लोग अब सफऱ हो या जि़न्दगी उसमें तेज़ रफ़्तार ही पसंद करते हैं। यह इस रोमांच का ही लालच है कि देश में िफलहाल इसकी आवश्यकता और उपयोगिता कितनी है इस पर विचार किए बगैर ही लाई जा रही अत्यधिक लागत वाली बुलेट ट्रेन, इसकी बेहद महँगी सवारी का लाभ देश के कुछ ही लोग उठा पाएंगे पर इसके आने का रोमांच पूरे देश में फैला है। पर सवाल यह है कि क्या भारत जैसे गरीब देश में जहाँ आज भी आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा बेहद गरीब है, बुलेट ट्रेन से लेकर निजी मोटर गाडिय़ाँ निकट भविष्य में परिवहन का सर्व सुलभ, सुगम साधन बन पाएँगी जिनसे सफऱ करने में देश का हर नागरिक समर्थ होगा? जब तक ऐसा नहीं होता तब तक सर्व सामान्य लोगों के लिए परिवहन के हमने क्या विकल्प सोचे हैं? जब हमारी दिशा नकल पर तय होगी तो ऐसे सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे ।
परिवहन व्यवस्था को सुदृढ़ करने की देश की इस जद्दोजहद में वहीं दूसरी तरफ धीमी रफ़्तार से चलने वाला लेकिन अत्यधिक उपयोगी, सस्ता, स्थानीय परिवहन का सुरक्षित और भरोसेमंद साधन साईकिल रिक्शा है जिसकी वे भी उपेक्षा करते हैं जो इसकी सवारी का नियमित इस्तेमाल करते हैं। इसका लाभ लेते हुए भी हम इसकी उपयोगिता के प्रति अनजान और इसकी लगातार घटती संख्या के प्रति उदासीन बने हुए हैं। अब तो साइकिल रिक्शा धीरे-धीरे हमारी परिवहन व्यवस्था से हटाया ही जा रहा है। हमारे शहरों में बस जैसे बड़े सार्वजनिक वाहन की नगण्य उपस्थिति के बावजूद जिस तरह सड़कों पर छोटी मोटर गाडिय़ों की मिल्कियत स्थापित हो रही है, और साईकिल रिक्शा को सड़क पर जगह न देकर ज़बरन हटाया जा रहा है, उससे हमारी परिवहन व्यवस्था आम आदमी के लिए और ज्यादा कष्टपूर्ण ही होने वाली है। इस दौर में कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि जानते-बुझते हुए भी यंत्रवत हम वह कर रहे हैं जो हमारे हित में नहीं। अप्रासंगिक लगने के बावजूद साईकिल रिक्शा के मामले को समझने के लिए इस दौर की दिशा को समझना होगा । मज़े की बात यह है कि दुनिया के अनेक विकसित देशों में साईकिल रिक्शे को नगरीय परिवहन व्यवस्था में वापस लाया जा रहा है । उदाहरण के तौर पर जर्मनी के बर्लिन शहर में ब्रेंडनबर्ग गेट जैसे मशहूर और भीड़भाड़ वाले पर्यटक स्थल, सिंगापुर के लिटिल इंडिया और यूएस के सैन डिएगो शहर के डाउन-टाउन जैसी प्रमुख जगहों पर लोग बड़े खुबसूरत सजे-सजाए साईकिल रिक्शा की सवारी करते देखे जा सकते हैं । वलर््ड बैंक से कर्ज लेकर आजकल हम जो चौड़ी सड़कें और फ़्लाइओवर बना रहे हैं उस पर साईकिल रिक्शा के लिए शायद ही कहीं जगह दी जा रही है क्योंकि यह हमारे यहाँ पिछड़ेपन की निशानी है और इस वजह से इसे गैर-ज़रूरी माना जाता है दूसरी ओर वर्ल्ड बैंक के चेयरमैन वाशिंगटन डीसी में साईकिल रिक्शा में बैठकर ऑफि़स आते हैं। आज भी छोटी दूरी के शहरी परिवहन के सार्वजनिक साधन के रूप में साईकिल रिक्शा जैसा पर्यावरण को रत्ती भर भी नुकसान न पहुँचाने वाला कोई विकल्प हमारे पास नहीं है । लोगों में ई-रिक्शा या बैट्री रिक्शा को साईकिल रिक्शा के बेहतर विकल्प के रूप में स्थापित किया जा रहा है, लेकिन जहाँ तक प्रदूषण का सवाल है तो ई-रिक्शा को बैट्री चार्ज करने के लिए बिजली का उपयोग करना होता है और यह बिजली कहीं न कहीं पर्यावरण को प्रदूषित करके ही उत्पादित होती है। मनुष्य की शारीरिक उर्जा से चलने के कारण साईकिल रिक्शा की रफ़्तार की तो सीमा है, पर यह सवारी भारत और इस जैसे गरीब देशों में अब भी इतनी उपयोगी है कि इसका सड़कों पर बना रहना ज़रूरी है। भारत की बड़ी जनसंख्या अब भी गरीब है और स्थानीय परिवहन के लिए जिनके पास निजी साधन नहीं, तो निर्धारित एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने की ज़रूरत पडऩे पर साईकिल रिक्शा सर्वाधिक उपयोगी है। यही नहीं साईकिल रिक्शा बेरोज़गारों, खेतिहर मज़दूरों, विस्थापितों और गरीब प्रवासियों को ज़रूरत पडऩे पर तत्काल अंशकालिक या पूर्णकालिक रोज़गार उनकी सुविधानुसार उपलब्ध कराता है । गरीब बेरोज़गारों को रोज़गार मुहैया कराने और पर्यावरण की रक्षा करने के अलावा निर्धारित रूट पर चलने की बाध्यता न होने के कारण और लगभग हर जगह उपलब्ध होने के कारण साईकिल रिक्शा लोगों को (अक्सर काफ़ी सामान के साथ भी) एक जगह से उनकी मजऱ्ी के मुताबिक़ दूसरी जगह ले जाने की सुविधा देता है । सवारी और सामान एक साथ ढो आसानी से मिल जाने वाला विकल्प है। दिव्यांगों और वृद्धों, जिनके लिए कुछ दूर चलकर सवारी पकडऩा या सवारी से उतरकर अपने गंतव्य तक चलना काफ़ी कष्टसाध्य होता है, के लिए तो साईकिल रिक्शा बेहद उपयोगी है। याद करें तो पाएँगे कि हमने जब भी साईकिल रिक्शा की सवारी की तब हमारे पास इसके अलावा कोई विकल्प नहीं था । साईकिल रिक्शा छोटी दूरी तय करने वाली कई तरह की सवारियों का विकल्प है पर इसका कोई विकल्प नहीं है । वैसे भी साईकिल रिक्शा को बचाने की क़वायद न तो कोई भावनात्मक मुद्दा है और न ही किसी परम्परा को बचाने की कोशिश, बल्कि यह शुद्ध रूप से हमारी ज़रूरत है क्योंकि देश के करोड़ों गरीब और बेरोज़गार लोगों को रोज़गार देना और पर्यावरण की रक्षा हमारे सामने आज भी बहुत बड़ी चुनौती है । ऐसे में साईकिल रिक्शा को हटाना बुद्धिमत्तापूर्ण फ़ैसला तो नहीं होगा ।
कई प्रगतिशील विचारों और गरीबों के पक्षधर लोग भी साईकिल रिक्शा का इसलिए विरोध करते हैं कि एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति को ढोना उन्हें अमानवीय लगता है। यह एक हद तक सही बात लगती है पर जब तक देश में रोज़गार के इससे बेहतर और पर्याप्त विकल्प उपलब्ध नहीं हो जाएँगे तब तक एक भूखे इंसान को अपने श्रम से पेट भरने के किसी भी अवसर से वंचित करना क्या उचित होगा? इस दुविधा से मुक्त होने के लिए और साईकिल रिक्शा की गति बढ़ाने की ज़रूरत को समझते हुए इसमें मोटर लगाने की बात भी अक्सर चर्चा में आती है । पर इसका दूसरा पहलू यह है कि मोटर लगते ही इसकी प्रदूषण रहित वाहन होने की विशेषता समाप्त हो जाएगी, साईकिल रिक्शा जैसे वाहनों की इस बढ़ते प्रदूषण के दौर में बेहद ज़रूरत है। सबसे बेहतर रास्ता तो यह होगा कि साईकिल रिक्शा में ऐसे तकनीकी बदलाव किए जाएँ कि बगैर मोटर और कम श्रम से ही इसकी गति बढ़ जाए । साईकिल रिक्शा के भविष्य में सड़कों पर टिके रहने के लिए कानूनी संरक्षण के साथ-साथ यह बदलाव अहम है ।
साईकिल रिक्शा की मुश्किल यह है कि जब किसी नगर प्रशासन को अपने शहर की आधुनिक और चमचमाती छवि बनाने की सूझती है तो शहर में नागरिक सुविधाओं को बेहतर बनाने का मुश्किल काम करने की बजाय और इस बात की परवाह किए बगैर कि लोगों को कितनी असुविधा होगी या कितने रिक्शा चालकों के लिए रोज़ी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा, साईकिल रिक्शा को सड़कों से हटाने जैसे क़दम सबसे पहले उठाए जाते हैं । दरअसल अब भी हमारे यहाँ शारीरिक श्रम, उससे जुड़े कामों और श्रमिकों के लिए पर्याप्त और उचित सम्मान देने का वैसा नज़रिया विकसित नहीं हो पाया है, जैसा कि दुनिया के ज़्यादातर देशों में है, इसका ख़ामियाज़ा साईकिल रिक्शा और इस तरह के अन्य श्रमसाध्य रोज़गार और इनमें लगे लोगों को उठाना पड़ता है । भारतीय समाज में साईकिल रिक्शा चालक की उपेक्षापूर्ण स्थिति और उसके आमतौर पर असंगठित होने की वजह से वह न तो अपने वजूद की लड़ाई लड़ पा रहा है और न ही उसकी बात कोई सुनता है । साईकिल रिक्शा को बचाने का एक ही उपाय दिखता है कि इसको और इससे जुड़े लोगों को कानूनी संरक्षण दिया जाए ।
अभी साईकिल रिक्शा के लिए कोई ऐसा समग्र कानून नहीं जो इसके हर पहलू को ध्यान में रखकर बनाया गया हो और वर्तमान दौर के अनुरूप हो । शहरी स्तर पर कहीं-कहीं कोई कानून है भी तो वे बेहद पुराने और अप्रासंगिक हो चुके हैं । सरकारों का आमतौर पर इसके प्रति अभी जो नज़रिया है उसमें उनसे ख़ुद पहल कर इसके लिए कोई कानून बनने की अपेक्षा नहीं की जा सकती । ऐसे में एक ही रास्ता बच जाता है कि जन-भागीदारी से साईकिल रिक्शे के कानून का मसौदा तैयार किया जाए और उसे विधायिका से पारित कराने का प्रयास हो। कानून निर्माण की यह प्रक्रिया श्रमसाध्य है, लंबा समय लेती है, धैर्यपूर्वक चलानी होती है, पर यह हमारी लोकतांत्रिक और संवैधानिक प्रावधानों के सर्वथा अनुरूप है और इससे उन्हें मज़बूती ही मिलेगी। ज़्यादातर कानूनों के ड्राफ़्ट बंद कमरों में ही बनाए जाते हैं और अक्सर अपर्याप्त या बगैर चर्चा के ही सदन में पारित हो जाते हैं, जिसकी वजह से वे त्रुटिपूर्ण होते हैं और आमजन में स्वीकार्य नहीं होते। उसके बजाए जन-भागीदारी द्वारा कानून बनाने की प्रक्रिया सरकारी प्रक्रिया से ज्यादा व्यापक होने के कारण जनपक्षीय और न्यूनतम त्रुटि वाली नीति और कानून बनाने के विकल्प को सशक्त करेगी । वैसे ‘सूचना का अधिकार कानून-2005 भी एक जन-पहल का ही परिणाम है जो चंद लोगों की बहुत ही मामूली सी पहल के तौर पर 1987 में राजस्थान में शुरू होकर एक व्यापक आंदोलन की शक्ल में बदल गया और आखिर में 18 साल के बाद उसे इस कानून को बनाने में सफलता मिली ।