कोरोना महामारी की आहट से फिर से चर्चाओं का बाज़ार गर्म है कि लॉकडाउन लगेगा। हालाँकि सरकार और कई डॉक्टर कोरोना के नये वेरिएंट बीएफ7 का भारत में बहुत ज़्यादा असर नहीं होगा। लेकिन गुजरात में बीएफ7 के दो केस और एक अन्य जगह पर मिला है, वहीं कई शहरों में कोरोना के मामले मिलने की ख़बरें अब अख़बारों और टीवी चैनलों में प्रमुखता पा रही हैं। कोरोना महामारी की इस आहट ने लोगों को 2020 और 2021 की तबाही की याद दिला दी है। चर्चाएँ हो रही हैं कि दोबारा मास्क पहनना अनिवार्य हो जाएगा और अगर कोरोना चीन व अमेरिका की तरह फैला, तो एक बार फिर लॉकडाउन का सामना करना पड़ेगा।
लॉकडाउन के नाम से हम सब घबरा जाते हैं, क्योंकि हम सबने कोरोना महामारी के दौरान लगे दो-दो बार के लम्बे-लम्बे लॉकडाउन और उससे हुई विकट परेशानियों को झेला है। अब भारत एक बार फिर उसी मुहाने पर खड़ा दिख सकता हैं। सवाल यह है मास्क का इस्तेमाल फ़ायदेमंद है या नुक़सानदायक? इस सवाल का जवाब न तो हाँ में दिया जा सकता और न ही न में। लेकिन फिर भी यही माना जाता है कि मास्क लगाने से कोरोना महामारी से बचाव होगा और प्रदूषण से भी। कोरोना महामारी के प्रदूषण की चर्चा इसलिए ज़रूरी है, क्योंकि इन दिनों पूरे उत्तर भारत की हवा बहुत प्रदूषित है। इस बीच जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड जैसे राज्यों में बढ़ते प्रदूषण ने चिन्ता बढ़ा दी है। हालाँकि न तो इस विषय पर सरकारें चिन्तित दिख रही हैं और न ही इसकी गम्भीरता पर कोई चर्चा करने को तैयार है। दिल्ली जैसे महानगरों के साथ-साथ देश के कई शहरों में अक्टूबर से ही हवा में एक्यूआई स्तर 350 से 500 के आसपास चल रहा है। गैस चैंबर बने इस दमघोटू वातावरण को देखते हुए ही साल 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि लोगों का साँस लेने का संवैधानिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने के एक फ़ैसले में कही थी। इसके बाद नवंबर, 2022 में भी सुप्रीम कोर्ट ने लोगों के इसी अधिकार को दोहराते हुए केंद्र सरकार से कहा था कि उसे पूरे उत्तर भारत के लोगों की चिन्ता करनी चाहिए कि वे स्वच्छ हवा में साँस ले सकें।
आज प्रदूषण का यह हाल है कि इंसान तो क्या अन्य जीव-जन्तु और पेड़-पौधों तक का जीवित रह पाना मुश्किल है। बारिश को चार महीने भी नहीं बीते हैं और पेड़-पौधों के पत्तों पर धूल और कार्बन कणों की एक मोटी परत जमा हो गयी है। इससे पेड़-पौधे तो मर ही रहे हैं, उनकी ऑक्सीजन उत्पादन की क्षमता भी कम हो चुकी है। सवाल यह है कि आख़िर इतने विकट प्रदूषण की वजह क्या है? इसका उत्तर भले ही सरकारें देने को तैयार न हों, लेकिन साफ है कि वाहनों की बढ़ती संख्या, उद्योगों से निकलता धुआँ और भवनों का निर्माण इसकी सबसे बड़ी वजहें हैं। इसके साथ ही सर्दियों में हवा में नमी बढऩे से भी इन दिनों प्रदूषण का स्तर बढ़ जाता है। लेकिन सरकारें तभी शोर मचाती हैं, जब किसान अपनी धान की फ़सल उठा लेते हैं, क्योंकि सरकारों को अपनी नाकामी छुपाने के लिए पराली जलाने का बहाना मिल जाता है। इन दिनों न तो खेतों में पराली जल रही है और न किसानों की वजह से प्रदूषण फैल रहा है; लेकिन प्रदूषण अपने चरम पर है और सरकारें ख़ामोश हैं, ख़ासकर केंद्र सरकार।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, प्रदूषित हवा और गन्दे पानी के उपयोग से भारत में हर साल क़रीब 40 लाख लोग मरते हैं। इनमें से अधिकांश मौतें 7 साल से कम उम्र के बच्चों और 60 साल से ज़्यादा उम्र के बुजुर्गों की होती हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या प्रदूषित हवा से बचने के लिए मास्क एक प्रर्याप्त बचाव का साधन है? नहीं, बिलकुल नहीं। क्योंकि मास्क एक तरफ़ अगर प्रदूषित हवा को शरीर में जाने से कुछ हद तक रोकता है, तो दूसरी तरफ़ उससे दम भी घुटता है, जो प्रदूषित हवा में साँस लेने से कम ख़तरनाक नहीं है।
दोनों ही स्थितियों में लोगों के फेफड़े ख़राब होने की सम्भावना ज़्यादा रहती है। दमा और दूसरे साँस रोगियों के साथ-साथ नज़ला आदि के पीडि़तों के लिए तो प्रदूषित हवा भी घातक है और मास्क का उपयोग भी। हवा में सबसे ख़तरनाक गैसों में कार्बन डाई आक्साइड (ष्टह्र2), जो हवा में 0.3 $फीसदी से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए और कार्बन मोनो ऑक्साइड (ष्टह्र1), जो कार्बन डाई आक्साइड से भी कम होनी चाहिए, सल्फर डाई ऑक्साइड (स्ह्र2), जिसकी ऑक्सीजन में मामूली उपलब्धता ही बेहद घातक है, क्लोरीन (ष्टरु1), जो हवा से ढाई गुना भारी होती है और 34 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान में वायुमंडल में छायी रहती है, में जिस तरह से लगातार बढ़ोतरी होती जा रही है, उससे भारत ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया को चिन्ता सता रही है। लेकिन प्रदूषण को लेकर चिन्ता करने वालों की यह चिन्ता दिखावे भर की है, क्योंकि प्रदूषण पर चिन्ता जताने वाले ज़्यादातर लोग अपने लिए स्वच्छ हवा का इंतज़ाम करके रख रखते हैं। इनमें ज़्यादातर वैसे ही लोग हैं, जो ख़ुद का पेट भरकर भूखों के लिए हाय-हाय करते हैं। यही वजह है कि इनके द्वारा उठाये गये क़दम न तो ठोस होते हैं और न ही उनका आम लोगों को कोई फ़ायदा कभी होता है। एक तरफ़ ये लोग प्रदूषण पर कौवों की तरह मौक़ा मिलते ही कांय-कांय करने लगते हैं, तो दूसरी तरफ़ प्रदूषण नियंत्रण के लिए बने सरकारी और $गैर-सरकारी संगठन प्रदूषण फैलाने के लिए ज़िम्मेदार तत्त्वों से भरपूर रिश्वत खाते हैं। क्योंकि प्रदूषण से बचने के लिए पूरी दुनिया में पेट्रोल, डीजल, सीएनजी, पीएनजी के उपयोग को रोककर बिजली, सौर ऊर्जा और शारीरिक श्रम का उपयोग किया जा सकता है; लेकिन ऐसा इसलिए नहीं होने दिया जा रहा है, क्योंकि इससे अरबों-ख़रबों का सालाना नुक़सान तेल उत्पादक देशों, तेल की खपत करने वाले विभिन्न देशों की सरकारों की गोद में बैठे उनके चहेते उद्योगपतियों, और प्रदूषण का रोना रोने वाले राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संगठनों को होगा।
भारत को अगर इस दोहरे व्यवहार से सही ढंग से निपटना है, तो केंद्र सरकार को हवा में साँस लेने का अधिकार बहाल करना होगा। अगर सरकार हवा में साँस लेने के इस संवैधानिक अधिकार को कड़ाई से लागू करती है, तो प्रदूषण फैलाने वाले कारकों से भी निपटने में उसे परेशानी नहीं होगी और प्रदूषण से बेमौत मरते लोगों की ज़िन्दगी बचाने के साथ-साथ लोगों को बीमार होने से बचाया जा सकता है। लेकिन सरकार ऐसा इसलिए नहीं करेगी, क्योंकि इससे भ्रष्ट नेताओं, अधिकारियों और अपने मुना$फे के लिए लोगों की ज़िन्दगी दाँव पर लगाने वाले उद्योगपतियों की मनमानी पर अंकुश लग जाएगा, जो वे कभी नहीं चाहेंगे।
आज प्रदूषण का ज़हर इंसानों के साथ-साथ दुनिया के हर प्राणी का दम घोंट रहा है और कोई शोर नहीं मचा रहा है, जो शोर मचा रहे हैं, वो ख़ुद के साँस लेने के लिए भरपूर ऑक्सीजन ले रहे हैं, उन्हें न तो प्रदूषण वाले क्षेत्रों में जाने का समय है और न ही वे अपने कंफर्ट जोन में प्रदूषण फैलने देते हैं। लेकिन ज़हरीला गैस-चेंबर आम नागरिकों के लिए कोरोना और कोरोना जैसी अन्य किसी महामारी से भी कहीं ज़्यादा ख़तरनाक है। आज इस प्रदूषण से लोगों को न सिर्फ दमा, सर्दी, खाँसी, नज़ला व साँस के अन्य रोग हो रहे हैं, बल्कि उनमें कैंसर और टीबी जैसे घातक रोगों के साथ-साथ पेट, त्वचा और आँखों के रोग भी तेज़ी से बढ़ रहे हैं।
शहरों में बहुत से लोगों, ख़ासकर अमीरों ने इस ज़हरीली हवा को साफ करने के लिए अपने घरों से बचने के लिए अपने घरों में एयर-फिल्टर लगा लिये हैं। कारों में भी अब एयर फिल्टर मौज़ूद होता है। इसके अलावा बहुत से अमीर लोग अब घरों में ऑक्सीजन सिलेंडर रखने के साथ-साथ गाडिय़ों में भी ऑक्सीजन सिलेंडर लेकर भी घूमने लगे हैं; लेकिन उन 95-96 फीसदी लोगों की चिन्ता कौन करे, जिनके पास इस प्रदूषण में मरने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। क्या लोग ऑक्सीजन सिलेंडर रखने के बजाय अपने आस-पास हर महीने दो-चार पौधे नहीं लगा सकते?
आज शहरों में जिस तरह कंकरीट के जंगल खड़े हैं और जितनी तेज़ी से पेड़-पौधे काटे जा सकते हैं, वो आधुनिकता का तात्कालिक सुख तो दे रहे हैं; लेकिन जानलेवा भी साबित हो रहे हैं, जिसकी तरफ़ केंद्र और राज्य सरकारों के साथ-साथ लोगों को भी ध्यान देने की बहुत ज़रूरत है। आज इस विषय पर दुनिया भर की सरकारों और महानतम वैज्ञानिक होने की ख्याति प्राप्त खगोल शास्त्रियों, वैज्ञानिकों और प्रदूषण का रोना रोने वाले तमाम सरकारी व गैर-सरकारी संगठनों को गहनता से सोचने और ईमानदारी से प्रदूषण रोकने की दिशा में काम करने की ज़रूरत है।