कोरोना महामारी के इस दौर में इंसानियत के पुजारीफ़रिश्ते बनकर और साँसों के सौदागर शैतान बनकर सामने आ रहे हैं। इस आपदा में हर किसी को यही उम्मीद कि अगर वह परेशानी में उसकी हर सम्भव हो मदद की जाए। रुकती साँसों की डोर अगर किसी के प्रयास से जारी रहती है, तो इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है?
कोरोना वायरस का यह दूसरा चरण बेहद घातक साबित हो रहा है। कोरोना संक्रमण के समय ऑक्सीजन की कमी, अस्पतालों में इसका और रेमडेसिवीर की कमी के इस भयावह दौर में मदद ईश्वर की अनुकंपा जैसी है। पर संवेदनहीन लोगों को इससे क्या? उन्हें ऐसा ही समय चाहिए होता है, जब लोग मजबूर हों। साँस चलने के लिए हर क़ीमत अदा करने को तैयार हों। तब ऐसे मरे ज़मीर और दुरात्मा लोगों का खेल चलता है। एंबुलेंस वाले मुँह माँगे दाम पर और पहले नक़द लेकर चलने पर तैयार होते हैं। ऐसा इसलिए, ताकि मरीज़ के साथ कुछ अप्रिय हो जाए, तो उनका पैसा न डूब जाए। पैसा डूबने के ख़तरेको ऐसे लोग किसी की जान से ज़्यादा महत्त्व देते हैं।
कोरोना की दूसरी लहर में संक्रमितों की संख्या और मौत का आँकड़ा, दोनों तेज़ी से बढ़ रहे हैं। ज़्यादातर मौतें साँस लेने में आ रही दिक़्क़त से या दिल की धडक़नें रुकने से हो रही हैं। यह बहुत भयावह है। राष्ट्रीय आपदा के इस कालखण्ड में कोविड-19 के मरीज़ों की साँस चले इसके लिए निजी तौर पर कई धार्मिक और सामाजिक संगठन बहुत कुछ कर रहे हैं। इनसे जुड़े लोग न केवल मदद कर रहे हैं, बल्कि संक्रमण होने का ख़तरा उठा रहे हैं। मरीज़ों को अपने यहाँ ऑक्सीजन दे रहे हैं।
दिल्ली गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के प्रयास बेहद सराहनीय है। दिल्ली में कई स्थानों पर ऑक्सीजन लंगर चल रहे हैं। हज़ारों लोगों को राहत मिल रही है। अस्पतालों से धक्के खाकर लोग यहाँ पहुँच रहे हैं और बिना किसी भेदभाव के ऑक्सीजन मिल रही है। दूसरी तरफ़ कुछेक तत्त्व मजबूरी काफ़ायदा उठाकर रुपये बटोरने में लगे हैं। ऐसे लोगों का ज़मीर मर चुका है। संकट की इस घड़ी में उन्हें यह मुनाफ़े का धन्धा जैसे उन्हें पूरी तरह से रास आ रहा है। शव को सीधे अन्तिम संस्कार स्थल तक ले जाने के लिए मुँह माँगे पैसे वसूल रहे हैं। मिन्नते करने के बाद वे अपने बताये दाम पर जाने को तैयार हो रहे हैं। प्रति किलोमीटर 1000 रुपये से कम पर जाने को तैयार नहीं होते। एंबुलेंस के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में मजबूरी में लोगों को यह सब करना पड़ रहा है।
ज़्यादातर राज्यों में वहाँ की सरकारों का एंबुलेंस पर कोई नियंत्रण नहीं है। प्रति किलोमीटर दर तय नहीं है। जिन अस्पतालों या चिकित्सा संस्थानों के साथ ये एंबुलेंस पंजीकृत होती हैं, उनकी भी ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन संकट-काल में सारी व्यवस्था जैसे फेल हो चुकी हैं। अवसरवादी लोगों की आत्मा तो पहले ही मर चुकी है। बिलखते परिजनों की गुहार से जैसे उनका कोई सरोकार ही नहीं रह गया है। कोरोना मरीज़ों के शरीर में ऑक्सीजन का स्तर बहुत कम होने के बाद साँसों को संयमित करने के लिए कंसेट्रेटर बेहद काम के साबित हो रहे हैं। लेकिन विदेशों से आयातित इन कंसेट्रेटरों की भी कालाबाज़ारी हो रही है।
दिल्ली के कारोबारी नवनीत कालरा जैसे लोग इस आपदा को पैसा कमाने का मौक़ा मान रहे हैं। 15,000 से कम क़ीमत के इन कंसेट्रेटरों को तीन से चार गुना दामों पर बेचा जा रहा था। यह गिरोह क़रीब एक माह से इस धन्धे में लगा हुआ था। शिकायत के बाद पुलिस ने छापेमारी कर सैकड़ों उपकरण बरामद किये हैं।
इसी तरह से मेट्रिक्स सेलुलर सर्विसेज के मुख्य कार्यकारी अधिकारी गौरव खन्ना को भी पुलिस ने गिरफ़्तार किया है। वेंटीलेटर स्पोर्ट वाली एंबुलेंस के ज़रिये गुडग़ाँव से लुधियाना (क़रीब 350 किलोमीटर) ले जाने के 1,20,000 रुपये वसूलने वाला मिमोही कुमार बौंदवाल अब सलाख़ों के पीछे है। एंबुलेंस संकट-काल में मरीज़ के लिए वरदान होती है। लेकिन इसका इतना व्यासायीकरण करने वाले बौंदवाल जैसे लोग मानवता के लिए कलंक से कम नहीं हैं। उसने न केवल वसूली गयी राशि वापस की, बल्कि उसके ख़िलाफ़ विभिन्न धाराओं में मुक़दमा भी दर्ज हो गया।
गुडग़ाँव की अमनदीप कौर कहती हैं कि यह पैसा वह अपने पास नहीं रखेंगी, बल्कि कोरोना प्रभावितों के लिए ही ख़र्च करेंगी। उन्हें अपनी माँ को बचाना था। वह उन्हें मरते नहीं देखना चाहती थीं। जब गुडग़ाँव के किसी अस्पताल में जगह नहीं मिली, तो प्रयास से लुधियाना में बेड का भरोसा मिला था। वहाँ ले जाने के लिए एंबुलेंस बड़ी मुश्किल से मिली। 95 हज़ार रुपये अग्रिम देने के बाद ही वह चलने को तैयार हुआ। बाक़ी राशि वहाँ पहुँचने के बाद दी गयी। न जाने कितने बैंदवाल, कालरा और गर्ग साँसों के सौदागर बने हुए हैं। ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ कड़ी के कड़ी कार्रवाई
होनी चाहिए।
एक तरफ़ ऐसे लोग हैं, तो दूसरी तरह महाराष्ट्र के प्यारे ख़ान जैसे भी हैं, जो मुफ़्त में ऑक्सीजन मुहैया कराने की मुहिम में जुटे हैं। कई सिख संगठन भी मुफ़्त में ऑक्सीजन लंगर चला रहे हैं। इसी कड़ी में फ़िल्म अभिनेता सोनू सूद बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। पिछले साल कोरोना-काल की शुरुआत के दौर में शुरू किये उनके काम अभी तक बदस्तूर चल रहे हैं। यह समय किसी की जान बचाने में मददगार बनने का न कि मजबूरी काफ़ायदा उठाकर लोगों को लूटने का। अपनों की ज़िन्दगी बचाने के लिए $गरीब-से-$गरीब आदमी भी हर सम्भव प्रयास करता है।
जब सरकारी तंत्र कारगर साबित न हो, तो समाज के उन लोगों को आगे आना चाहिए, जो मदद करने में सक्षम है। संकट के इस दौर में बड़े कारोबारी भी हर सम्भव मदद कर रहे हैं। यह समय सरकार के ही भरोसे बैठने का नहीं हर सक्षम व्यक्ति को मदद करनी चाहिए। दूसरी के बाद तीसरी लहर पता नहीं यह कोरोना-काल कब तक चलेगा। हर व्यक्ति भयभीत है, मौत से डरा हुआ। हमारे देश की स्थिति इस समय सबसे ज़्यादा ख़राब है। जिस तरह से पहली लहर पर सरकार ने लगभग ठीक से क़ाबू पा लिया था, वहीं यह दूसरी लहर उसकी नाकामी बता रही है।
तीसरी लहर इससे कई गुना ज़्यादा ख़तरनाक साबित होगी, जिसमें बच्चे भी प्रभावित होंगे। यह कब आएगी? कब तक रहेगी? और इसकी भयावहता कितनी होगी? इसको लेकर आशंका और डर के बादल छाने लगे हैं। उस स्थिति से केंद्र और राज्य सरकारें कितनी सक्षम होंगी? यह तो वक़्त ही बताएगा। केंद्र और राज्य सरकारें अपने तौर पर अस्पतालों में पर्याप्त ऑक्सीजन पहुँचाने में अभी तक नाकाम साबित हो रही है। ऑक्सीजन की कमी से सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है। बावजूद इसके अभी तक कोई भी राज्य यह दावा नहीं कर सकता कि उनके यहाँ अस्पतालों में इसका पर्याप्त भण्डारण है। केंद्र सरकार ऑक्सीजन के सही वितरण में पूरी तरह से नाकाम साबित रही है।
ऑक्सीजन की कमी से मरते लोगों की दास्तान के बाद कई राज्यों के उच्च न्यायालयों के अलावा सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। इसके बावजूद भी स्थिति में बहुत ज़्यादा सुधार नज़र नहीं आ रहा। दिल्ली में ऑक्सीजन की विकट स्थिति पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से प्रतिदिन 700 मीट्रिक टन ऑक्सीजन को सुनिश्चित बनाने का आदेश दिया है। लेकिन इसकी पूरी तरह से पालना अभी तक नहीं हो सकी है। केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा के अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी चल रही है। देश के बहुसंख्यक राज्य ऑक्सीजन की कमी महसूस कर रहे हैं।
कोई भी राज्य आज इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं है। बढ़ते मरीज़ों की संख्या से अस्पताल में जगह की कमी होती जा रही है। सरकारी प्रयास नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं। स्थिति बहुत विकट हो रही है। कोरोना अब शहरों के बाद गाँवों में बढ़ रहा है। हरियाणा के कई गाँव इससे बहुत ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं। रोहतक ज़िले के टिटोली गाँव में 10 दिन के अन्दर 40 से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं। सैकड़ों लोग संक्रमण से प्रभावित हैं। इसी तरह से हिसार के उकलाना, भिवानी के मुंढाल ख़ुर्द और मुंढाल कलां जैसे गाँवों में कोरोना पूरी तरह से पाँव पसार चुका है। कुछ ही दिनों में यहाँ तीन दर्ज़न से ज़्यादा मौतें हो चुकी है। आने वाले दिनों में देश भर के कई गाँवों की ऐसी ही ख़बरें सामने आ सकती हैं। इसलिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार को गाँवों में कोरोना महामारी से निपटने में तत्परता दिखानी होगी।
लगे रासुका
संकट के इस दौर में ऑक्सीजन, बेड, कोरोना-टीका और अन्य दवाओं की कालाबाज़ारी बड़े स्तर पर हो रही है। असली ब्रांड की नक़ली टीके और दवाओं का खेल भी धड़ल्ले से चल रहा है। पुलिस ने ऐसे कई मामलों का पर्दाफ़ाश किया है। कालाबाज़ारी करने वाले गिरफ़्तार हो रहे हैं। नक़ली और कालाबाज़ारी के लिए जमा दवाएँ तथा ऑक्सीजन को पुलिस बरामद कर रही है। ऐसा करने वाले मानवता के दुश्मनों के ख़िलाफ़ बिना किसी रहम के राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए। इसके अलावा राज्य सरकारों को एंबुलेंस की दरें तय कर देनी चाहिए। ज़्यादा बसूलने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई का प्रावधान करना चाहिए। बिहार सरकार ने इस दिशा में पहल की है, लेकिन अन्य राज्यों में मनमाने दाम वसूलने का खेल जारी है।
यह कैसी आत्मनिर्भरता?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को आत्मनिर्भर को कहते हैं। सवाल यह है कि वह किस तरह का आत्मनिर्भर देश बनाना चाहते हैं? ऐसा आत्मनिर्भर कि मरते लोगों को इलाज के लिए दर-दर भटकना पड़े? या इस तरह का कि आपदा में दूसरे देशों पर निर्भर होना पड़े? आज केंद्र सरकार और राज्य सरकारें कोरोना महामारी से और बेहतर तरीक़े से निपट सकती हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। यह कैसी आत्मनिर्भता है? कि लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया गया है। हम आज भी तमाम ज़रूरी चीज़ों के लिए दूसरे देशों, विशेषकर चीन पर निर्भर हैं और यह निर्भरता दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है। दुनिया के कई देशों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उद्योग लगाने का निमंत्रण दे चुके हैं। लेकिन पिछले सात साल में किसी ने इसमें रुचि नहीं दिखायी है। चीन ने ज़रूर अपनी कुछ कम्पनियाँ स्थापित की हैं; लेकिन अपनी शर्तों पर। प्रधानमंत्री की छवि पर इसका काफ़ी विपरीत प्रभाव पड़ा है। देश में उन्होंने कई योजनाओं की घोषणा भी अब तक की है; लेकिन कोई भी योजना पूरी होती नहीं दिखी है।