जीवित रहने के लिए हर समाज को खुश रहने और भूलते रहने की आवश्यकता होती है. हल्की-फुल्की बेवकूफियां और स्मृतिलोप न हों तो जीवन एक बोझ बनकर बस काटने भर का रह जाएगा जीने लायक नहीं.
मगर याद रखना और दुखों से दो-चार होना भी कम जरूरी नहीं. कुछ दुख ऐसे होते हैं जिन्हें भूलना उचित नहीं और कुछ घाव ऐसे होते हैं जिन्हें खुला रखने की हिम्मत करनी ही चाहिए, ताकि उनके पीछे की कहानियों से जरूरी सबक लिए जा सकें. अगर ये दुख और घाव अन्याय होने और न्याय पाने के संघर्ष का हिस्सा हों तब ऐसा किया जाना और भी जरूरी है. जब कोई व्यक्ति सभ्यता के मान्य सिद्धांतों के बाहर जाकर कुछ भी अमानवीय करता है तो फिर उसे अपने ऐसे किए का दंश भुगतना ही चाहिए. जब कोई अपनी पाश्विक वृत्तियों के चलते दूसरों के साथ गलत करता है तो उसे शर्म और पछतावे के ताप को अनुभव करना ही चाहिए.
जो सामाजिक सौहार्द को बढ़ाने या बिगड़ने से रोकने के नाम पर हमें 2002 के गुजरात या 1984 की दिल्ली को भूल जाने को कहते हैं, वे गलत हैं. हम अपनी गलतियों को दुरुस्त नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें दोहराते रहते हैं. गलतियों का यह दोहराव हमें कभी सुधरने नहीं देता.
यहूदी अपने भीषण दुखों को बड़े जतन से सहेजते हैं और उन्हें ऐसे हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं जो उनकी सुरक्षा करता है और कुछ करने के लिए उकसाता है. हमें अपनी विविधताओं-जटिलताओं के चलते और वैसे भी ऐसे किसी उकसावे की जरूरत नहीं, लेकिन जो कुछ नरौदा-पाटिया मामले में हुआ वैसा तो किया ही जाना चाहिए. मायाबेन कोडनानी (तस्वीर में) और बाबू बजरंगी को उनके अपराधों की सजा अदालत ने दी है न कि किन्हीं ऐसों ने जो संविधान के दायरे के बाहर जाकर काम कर रहे थे. हमें अपने दुखों को याद करने, उन्हें दूर करने और खुद को सुधारने के लिए ऐसे ही रास्तों को अपनाना होगा. थका देने वाले कानून के ऐसे रास्ते जिन पर गवाहियों और सबूतों के पहाड़ों को काटकर हमें बिना थके आगे बढ़ना होता है.
वर्ष 2002 में तीन दिन तक गुजरात पर मानो कहर बरपा. 10 साल में ही सही न्याय की किताब के कुछ पन्नों को बंद करने का काम शुरू हो गया है. हम सभी को इस पर गर्व होना चाहिए. 2002 में तीन दिन तक हजारों हिंदू अपने बारे में एक बाहरी और खतरनाक विचार के बहकावे में रहे. मगर पिछले 10 साल में सैकड़ों हिंदू – वकील, सामाजिक कार्यकर्ता पत्रकार, राजनेता – पीड़ित और मारे गए मुसलमानों के न्याय और अधिकार की लड़ाई भी लड़ते रहे. हम सभी को इस पर भी अभिमान होना चाहिए.
भले ही गुजरात, संघ परिवार की अतियों का परिणाम हो, राजधर्म के बोध का खत्म होना एक बड़ी समस्या है और इससे कोई भी दल या सरकार अछूती नहीं है. हमारे चारों ओर कानून के मुताबिक चलने वाले ऐसे शासन का वायदा, जो आंखों और दिल दोनों को ठीक लगे, तार-तार पड़ा नजर आता है. हद दर्जे की धूर्तता और लालच के दो पैरों पर खड़ा शासन हमें हर बीते दिन के साथ कुछ और भी छोटा किए जा रहा है. यहां भी हमें गुजरात के अभियान से ही अपने पाठ सीखने होंगे. हमें असंवैधानिक तरीकों की बजाय कानून के दायरे में रहकर, जरूरी तर्कों और संयमित भाषा में, सिद्धांतों न कि छुद्र पहचान के आधार पर जुटाए लोगों के बल पर अपनी लड़ाई लड़नी होगी