संयुक्त राष्ट्र का यह 19वां जलवायु सम्मेलन था. यह11 नवंबर को शुरू हुआ था. पौलेंड की राजधानी वार्सा में हो रहे इस आयोजन को दो सप्ताह चलना था. दो वर्ष बाद पेरिस में अगला जलवायु शिखर सम्मेलन होने वाला है. वहां 1997 के क्योटो प्रोटोकोल का स्थान लेने वाली एक नई जलवायु-रक्षा संधि को अंतिम रूप दिया जाना है. वार्सा सम्मेलन को इस नई संधि का आधारभूत खाका तैयार करना था.
संसार भर के 194 छोटे-बड़े देशों के मंत्री या अन्य वरिष्ठ सरकारी प्रतिनिधि वार्सा में जमा हुए थे. अपना काम पूरा करके वास्तव में उन्हें 22 नवंबर को ही विदा हो जाना चाहिए था. लेकिन तब तक वे किसी सर्वमान्य सहमति पर पहुंच ही नहीं पाए. एकता की जगह उनमें आपस में रस्साकशी करते तीन गुट बन गए थे–विकसित, विकासशील और नवविकसित देश. जलवायु परिवर्तन के कारण ‘क्षति और हानि’ (लॉस ऐंड डैमेज) की भरपाई के मुद्दे पर अपनी नाराजगी दिखाने के लिए विकासशील देशों के गुट ‘जी- 77’ ने सम्मेलन के पहले ही सप्ताह में जब बहिर्गमन (वॉक-आउट) किया, तब भारत और चीन ने भी उसका साथ दिया. दूसरे सप्ताह में भी गतिरोध बना रहा. तंग आ कर दुनिया भर की गैरसरकारी संस्थाओं (एनजीओ) और नागरिक संघर्ष समितियों के कार्यकर्ता भी सम्मेलन की औपचारिक समाप्ति से एक दिन पहले ही, उठ खड़े हुए और बाहर चले गए.
अंतिम क्षण में नाटकीयता
ऐसा इससे पहले किसी जलवायु सम्मेलन में नहीं हुआ था, इसलिए सम्मेलन को पूरी तरह विफल होने से बचाने के लिए उसकी अवधि एक और दिन के लिए बढ़ा दी गई. ऐसा करते ही सम्मेलन में एक नाटकीय जान आ गई. हड़बड़ी और आपाधापी पराकाष्ठा पर पहुंच गई. किसी छोटे-बड़े नतीजे पर पहुंचने के लिए वार्ताएं और भी सघन हो गईं. अंततः शनिवार, 23 नवंबर की रात, विवादग्रस्त भावी कदमों की शब्दावली व रूपरेखा पर सहमति बन ही गई.
वास्तव में इस सम्मेलन का श्रीगणेश ही इतना ग्रहण-ग्रस्त था कि लगता नहीं था कि कोई शुभ परिणाम निकल पाएगा. पोलैंड एक ऐसा देश है जिसके 90 प्रतिशत बिजलीघर कोयले पर निर्भर हैं. कोयला जला कर काला धुंआ उगलने वाले यूरोपीय देशों में वह सबसे अगली पांत में बैठता है. जलवायु सम्मेलन के साथ ही वहां ‘विश्व कोयला संघ’ का भी एक उच्चस्तरीय सम्मलेन चल रहा था. यही नहीं, देश के प्रधानमंत्री दोनाल्द तुस्क ने जलवायु सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे अपने पर्यावरण मंत्री मार्त्सिन कोरोलेत्स को सम्मेलन शुरू होने के दो ही दिन बाद मंत्रिमंडल से ही निकाल बाहर कर दिया. गनीमत इतनी ही रही कि कोरोलेत्स को जलवायु सम्मेलन की अध्यक्षता करने से मना नहीं किया गया.
एक ऐसे सम्मेलन से,कोई विशेष अपेक्षा नहीं की जा सकती थी जिसका मेजबान ही उस पर मेहरबान न हो. सम्मेलन को मुख्य रूप से दो प्रकार के फैसले लेने थेः पहला यह कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कैसे घटाया जाए. दूसरा यह कि इस परिवर्तन से वर्तमान और भावी पीड़ितों को राहत पहुंचाने के क्या उपाय एवं कार्यविधियां होनी चाहिए.
2015 में नई जलवायु-रक्षा संधि
विशेषज्ञों की राय है कि क्योटो प्रोटोकोल का स्थान लेने के लिए दिसंबर, 2015 में होने वाले पेरिस शिखर सम्मेलन तक जो नया संधिपत्र तैयार किया जाना है उसे यथासंभव ऐसा होना चाहिए कि औसत वैश्विक तापमान में अब दो डिग्री सेल्सियस से अधिक की वृद्धि न होने पाए. दो डिग्री से अधिक की वृद्धि का खतरा यह तो है ही कि इससे प्राकृतिक आपदाएं और भी भयंकर हो जाएंगी, लेकिन इससे भी अहम यह है कि इसी सीमा कोे एक ऐसी लक्ष्मणरेखा भी माना जाता है जिसके परे जाने पर जलवायु परिवर्तन पर नियंत्रण पाना और उसे वर्तमान स्तर पर वापस लाना हजारों वर्षों तक के लिए संभव नहीं रह जाएगा.
साफ है कि यदि अभी ही कारगर उपाय नहीं हो पाए तो विश्व जलवायु परिवर्तन परिषद (आईपीसीसी) के नवीनतम अनुमान के अनुसार इस सदी के अंत तक औसत वैश्विक तापमान 3.7 डिग्री बढ़ जाएगा. ध्रुवों पर की बर्फ और तेजी से पिघलेगी. कहीं सूखा तो कहीं आंधी-तूफान छोड़िए, महासागारों का जलस्तर 81 सेंटीमीटर तक ऊपर उठने से भारत सहित न जाने कितने देशों के तटवर्ती शहर और इलाके डूब जाएंगे जिससे करोड़ों लोग बेघर हो जाएंगे. मालदीव जैसे द्वीप देश तो पूरी तरह समुद्र में समा जाएंगे. वहां के नागरिकों को दूसरे देशों में शरण मांगनी पड़ेगी.
जड़ है कार्बन डाइऑक्साइड
पृथ्वी पर तापमान लगातार बढ़ने से हो रहे वैश्विक जलवायु परिवर्तन के पीछे सबसे बड़ा कारण कार्बन डाइऑक्साइड गैस का बढ़ता हुआ उत्सर्जन है. पिछले 20 वर्षों से उसे घटाने के सारे प्रयास अब तक व्यर्थ रहे हैं. यह गैस कोयले, प्राकृतिक गैस और तेल जैसे ईंधनों के जलने से बनती है. अनुमान है कि अकेले वर्ष 2013 में ही पृथ्वी के गर्भ से निकाले जा रहे इन ईंधनों के जलने से 36 अरब टन नई कार्बन डाइऑक्साइड बनेगी और वायुमंडल में पहुंच कर समस्या को और बढ़ाएगी. 1990 की तुलना में — जो जलवायु नियंत्रण के क्योटो प्रोटोकोल के पहले चरण का आधार-वर्ष रहा है — कार्बन डाइऑक्साइड की यह मात्रा 61 प्रतिशत अधिक है. छोटे पैमाने पर देखें तो डीजल या पेट्रोल से चलने वाला हर वाहन प्रति किलोमीटर दूरी के पीछे कम से कम 120 ग्राम कार्बन डाइऑक्साइड हवा में छोड़ता है.
आशा की जा रही थी कि वार्सा सम्मेलन में हर देश के लिए कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को घटाने का एक कोटा तय किया जाएगा. पर ऐसा नहीं हो पाया. तय यह हुआ है कि किसी तरह की कटौती से अब तक बचे रहे भारत और चीन जैसे नवविकसित देश भी अगले वर्ष मार्च तक अपनी तरफ से बताएंगे कि 2020 के बाद से वे अपने यहां कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती का क्या लक्ष्य रखने जा रहे हैं. संसार के सबसे निर्धन देश आगे भी किसी कटौती के लिए बाध्य नहीं होंगे.
भारत और चीन कोई वचन देने से अब तक यह कह कर बच रहे थे कि पर्यावरण और जलवायु का वर्तमान संकट उन विकसित औद्योगिक देशों की देन है जो उनसे कहीं आगे हैं और कहीं पहले से अरबों टन कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहे हैं इसलिए पहले वे अपने यहां कटौती करें. लेकिन इस बीच संसार के सबसे बड़े कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जक देशों में चीन पहले, अमेरिका दूसरे और भारत तीसरे नंबर पर पहुंच गया है. रूस, जापान और जर्मनी क्रमशः बाद में आते हैं. भारत में प्रतिव्यक्ति प्रतिवर्ष केवल 1.8 टन कार्बन डाइऑक्साइड का औसत यद्यपि इन देशों से कहीं कम है. तब भी, उत्सर्जन की सकल मात्रा की दृष्टि से सबसे बड़े उत्सर्जक देशों की सूची में तीसरे नंबर पर पहुंच जाना भारत पर एक ऐसे चौतरफा दबाव को निमंत्रण देने लगा है जिसके आगे झुकने से बचना कठिन होता जाएगा.
विकासशील देशों के बीच दरार
अब तक के जलवायु सम्मेलनों में एक तरफ विश्व के कुछेक दर्जन धनी-मानी विकसित देश हुआ करते थे, तो दूसरी तरफ उनका विरोध कर रहे गरीब एवं विकासशील देशों की अच्छी-खासी भीड़ होती थी, जिसमें भारत और चीन जैसे नवविकसित देश भी शामिल रहते थे. नवविकसित और गरीब देशों की यह एकजुटता यूरोप और अमेरिका के मन को रत्ती भर भी रास नहीं आती. वार्सा में वे पहली बार इस एकता में दरार पैदा करने में सफल हो गए. जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुकसानों से बचाव या राहत देने के नाम पर संयुक्त राष्ट्र की ओर से कई सहायता कोष बने हुए हैं. यूरोपीय संघ ने संसार के 48 सबसे गरीब देशों के लिए 60 करोड़ डॉलर वाले एक अलग ‘सहायता कोष ‘ को बड़ी रकम देने का प्रलोभन दे कर इन देशों को तोड़ लिया. यह जर्मनी की चाल थी. वही इस कोष के लिए सबसे अधिक धन भी देगा. चाल चल गई. इन देशों ने सम्मेलन की समापन घोषणा के प्रति अपना विरोध त्याग दिया. सम्मेलन दो के बदले तीन गुटों में बंट गया और धनी देशों के अनुकूल घोषणा भी पारित हो गई.
जलवायु परिवर्तन से कमाई
जलवायु परिवर्तन की रोकथाम हो या न हो, जो भी देश उससे पीड़ित है या भविष्य में पीड़ित हो सकता है वह पहले अपने लिए पैसा देखना चाहता है. पैसे के लेन-देन ने ही वार्सा सम्मेलन को सबसे अधिक व्यस्त रखा. सबसे बड़ा प्रश्न यह था कि 2015 में होने वाली पेरिस संधि जब 2020 से लागू होगी, तब, अब तक के, या नए बनने वाले सहायता कोषों में कौन-सा औद्योगिक देश कितना पैसा देगा. इस समय इस तरह के छह अलग-अलग कोष हैं. उनकी अवधारणाएं इतनी भ्रामक हैं कि स्वयं वार्ताकार भी कई बार ठीक से नहीं जानते कि वे जिस कोष के बारे में बोल रहे हैं, क्या उसी के बारे में सोच भी रहे हैं.
संयुक्त राष्ट्र की शब्दावली में ‘लॉस ऐंड डैमेज’ (क्षति और हानि) कोष एक ऐसा कोष है जो बहुत ही घातक किस्म की मौसमी घटनाओं के परिणामस्वरूप हुई भौतिक क्षतियों और आर्थिक हानियों के ममालों में राहत पहुंचाने के लिए बना है. अफ्रीकी देश लगभग दो दशक से इसकी मांग कर रहे थे. उनकी यह भी मांग है कि इस कोष के संचालन के लिए संयुक्त राष्ट्र के अधीन एक नई संस्था बने. यह भी कि उपलब्ध धनराशि बढ़ाई जाए. अमेरिका तथा अन्य औद्योगिक देश ऐसा बिल्कुल नहीं चाहते. उनका कहना था कि वे पहले ही कई तरह के सहायता कोषों के लिए काफी धन दे रहे हैं. क्षति और हानि के मामलों को भी उन्हीं के साथ मिला कर देखना होगा. वैसे, इस बहानेबाजी का मूल कारण औद्योगिक देशों का यह डर है कि भविष्य में मौसमी या प्राकृतिक आपदाएं बढ़ना चूंकि तय है इसलिए यह भी तय है कि उनके कारण क्षतिपूर्ति का आयाम भी लगातार बढ़ता ही जाएगा और साथ ही उनकी देनदारी भी. वे यह भी नहीं चाहते कि मौसमी आपदाओं के लिए क्षतिपूर्ति कोई ऐसा स्वाभाविक अधिकार बन जाए जो अंतरराष्ट्रीय कानून का रूप धारण कर ले और उनके लिए बाध्यकारी हो जाए. अमेरिकी वार्ताकार टॉड स्टर्न का कहना था, ‘हम जलवायु रक्षा को क्षतिपूर्ति वितरण नहीं मानते.’
मौसमी आपदाओं का आयाम
इन्हीं दिनों प्रकाशित विश्व बैंक की एक रिपोर्ट से पता चलता है कि मौसमी आपदाओं से नुकसानों का आयाम कितना बढ़ता गया है. इस रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 30 वर्षों में बाढ़ और तूफान जैसी मौसमी आपदाओं से विश्व भर में 25 लाख लोगों ने जान गंवाई और चार खरब डॉलर के बराबर भौतिक क्षति हुई. 1980 में 50 अरब डॉलर की हानि से बढ़ कर 2012 में 200 अरब डॉलर की सीमा पार कर गई.
प्रश्न यह भी है कि क्या जीने-मरने की भी कीमत आंकी जा सकती है. लुप्त हो गए किसी जीव-जंतु या पेड़-पौधे की प्रजाति का क्या मोल लगाया जा सकता है? इसी प्रकार, कई बार यह भेद करना भी कठिन हो सकता है कि किसे जलवायुगत आपदा और किसे दुर्भाग्यजनित दुर्घटना माना जाए. चीन में कार्बन डाइऑक्साइड का प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन अभी से यूरोपीय संघ वाले औसत के बराबर हो गया है. क्या वह भी यूरोप और अमेरिका की तरह क्षतिपूर्ति देने के लिए तैयार होगा? भारत भी विकास के आकाश में जिस तरह उठ रहा है, उसे देखते हुए उसे भी तो एक दिन इस जमीनी वास्तविकता का उत्तर देना पड़ सकता है. अभी स्थिति यह है कि जलवायु परिवर्तन की रोकथाम या उसके दुष्प्रभावों से निपटने के पुनर्वनरोपण कोष, समंजन कोष, हरित जलवायु (ग्रीन क्लाइमेट) कोष, क्षति और हानि कोष आदि कुल छह प्रकार के कोषों के लिए 2020 से औद्योगिक देशों को कुल मिलाकर 100 अरब डॉलर हर साल देने होंगे. कौन देश कितना देगा और किस पीड़ित देश को किन शर्तों पर कितना पैसा मिलेगा, अभी कोई नहीं जानता. 2010 से औद्योगिक देश हर साल कुल मिला कर 10 अरब डॉलर दे रहे हैं. जी-77 वाले गुट के विकासशील देशों की मांग थी कि इस धनसंग्रह को अंतरिम तौर पर बढ़ा कर 2016 तक हर साल 70 अरब डॉलर कर देना चाहिए. लेकिन औद्योगिक देश फिलहाल ऐसा कोई वादा करने के मूड में नहीं हैं.
पर उपदेश कुशल बहुतेरे
औद्योगिक देश कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन घटाने के उपदेश तो बहुत देते हैं, पर स्वयं अमल कम ही करते हैं. वार्सा सम्मेलन के पहले ही दिन जापान ने कहा कि उत्सर्जन में कटौती का अपना लक्ष्य वह फुकूशीमा परमाणु दुर्घटना के कारण पूरा नहीं कर पाएगा. लक्ष्य था 1990 की तुलना में 25 प्रतिशत कम उत्सर्जन. नया लक्ष्य है 2005 की तुलना में 3.8 प्रतिशत की कमी जो 1990 की तुलना में तीन प्रतिशत की वृद्धि के बराबर है.
ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के पास तो किसी दुर्घटना का भी बहाना नहीं है, तब भी वे अपने पिछले लक्ष्यों से पीछे हट रहे हैं. भारत की पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने इन देशों के निर्णय पर निराशा प्रकट करते हुए कहा , ‘यदि अब तक की वार्ताओं से कोई ठोस परिणाम नहीं निकलता, तो संपन्न देशों को ही आगे आना पड़ेगा… आगे के रास्ते और उसके जोखिमों को जाने बिना हम केवल विश्वास के भरोसे पर छलांग नहीं लगा सकते.’ भारत का यह भी आग्रह था कि औद्योगिक देश जलवायु परिवर्तन को अपनी कंपनियों के लिए फायदेमंद बाजार न बनाएं.
जर्मनी ने 1995 में डंके की चोट पर कहा था कि तापमानवर्धक गैसों का उत्सर्जन 2005 तक 25 प्रतिशत घट जाएगा. लेकिन 1997 की क्योटो संधि के बाद इस लक्ष्य को घटा कर 21 प्रतिशत और समय-सीमा को बढ़ाकर 2012 कर दिया गाया. नया लक्ष्य कहने को 2012 में पूरा जरूर हुआ, किंतु इसलिए कि इस दौरान पू्र्वी जर्मनी की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई, बहुत-सी जर्मन कंपनियां स्वदेश के बदले सस्ती मजदूरी वाले अन्य देशों में उत्पादन करने लगी हैं और पिछले कुछ वर्षों की आर्थिक मंदी का भी असर पड़ा है. वित्तीय संकट और आर्थिक मंदी की ही बलिहारी से कुछ दूसरे औद्योगिक देश भी अपने यहां कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन घटने का दावा कर सकते हैं, भले ही वह उनके आरंभिक वादों की तुलना में कहीं कम ही क्यों न हो. यूरोपीय संघ का नया उत्सर्जन-कटौती लक्ष्य, 1990 के स्तर की तुलना में, 2020 तक सिर्फ 20 प्रतिशत कमी लाना है. अमेरिका ने, जिसने क्योतो संधि का अनुमोदन ही नहीं किया है, 2005 की तुलना में केवल 17 प्रतिशत कमी का लक्ष्य रखा है.
‘विकसित देश अपनी वचनबद्धता दिखाएं ’
भारतीय वार्ताकार रविशंकर प्रसाद ने औद्योगिक देशों के इस अनमनेपन पर निशाना भी साधा. उनका कहना था कि तापमानवर्धक गैसों के उत्सर्जन को 1990 वाले स्तर की तुलना में 40 प्रतिशत घटाने की ‘संयुक्त राष्ट्र अंतरशासकीय पैनल’ (आईपीसीसी) ने जो सलाह दी थी उसे पूरा करने में उन्नत देशों द्वारा छोड़ी गई कमी को पूरा करना भारत जैसे विकासशील देशों का काम नहीं हो सकता. लेकिन, 2015 में होने जा रही पेरिस संधि के अनुसार 2020 से भारत को भी अपना ‘योगदान’ देना होगा. पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन से जब यह पूछा गया कि भारत अपने योगदान को औद्योगिक देशों जैसी ‘वचनबद्धता’ (कमिटमेन्ट) में कब बदलेगा, तो उनका उत्तर था, ‘उसे वचवबद्धता में बदला ही क्यों जाए? विकसित देश पहले अपनी वचनबद्धता तो दिखाएं.’
भारत किसी समझौते में बंधकर वचनबद्धता भले ही न बनना चाहे, तथ्य यह है कि कार्बन डाइऑक्साइड के उसके अपने ही उत्सर्जन से उसका अपना ही आकाश पटता जा रहा है. अंतरिक्षयात्रियों का कहना है कि भारत अंतरिक्ष से पहचान में तो आता है पर उसका अधिकांश भूभाग धुएं और धुंध से ढका रहता है. कहीं ऐसा न हो कि इस धुंध व धुंए से चीन की तरह एक दिन भारत के लोगों का भी दम घुटने लगे.