गर्मी और पसीना दोनों का चोली दामन का साथ है। समय बदला सरकारें बदली, नेता बदले और सुना की विकास की बायर बहने लगी। पर हम तो सामान ढोते रह गए। फिर एक दिन पता चला कि हमारे अच्छे दिन आ रहे हैं। हमारी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। गर्मी से निजात पाने की एक उम्मीद जगी। यह भी बताया गया कि अब हमारी बिरादरी के लोगों को भी एसी बसों में भी यात्रा करने का अवसर मिलेगा। हमने सरकार का कोटि-कोटि आभार जताया। सोचा इस बार बच्चों से मिलने एसी बस में ही जांएगे। लग गए तैयारी में। अपने मालिक धोबी से बात कर चार दिन की छुट्टी ले ली।
दूसरे दिन बस अड्डे जा पहुंचे। लोग हमें अजीब नज़रों से देख रहे थे। उन्हें हम खलनायक नज़र आ रहे थे। एसी बस कांऊटर पर जा हमने दिल्ली की टिकट मांग ली। हमने बताया कि अब हम भी उसमें यात्रा के अधिकारी हैं। वहां बैठे बाबू ने झट से कहा- अपना आधार कार्ड लाओ। ”आधार कार्ड”? हम चैंके -” यह क्या होता है।”? हमने पूछा। वह बोला- ”बिना कार्ड के कैसे पता चलेगा कि आप गधे हो भी कि नहीं”। ”हमारी हरकतों से पता नहीं चलता कि हम क्या है”? हमने प्रश्न किया। वह बोला- ”हमें तो तुम्हारे जैसे ही मिलते हैं, क्या पता चले कौन क्या है हो”? हमने बात खत्म करने के लहजे से पूछा-” यह आधार कार्ड कहां मिलेगा”? वह चकराया- ” अरे, मिलेगा नहीं बनेगा”। फिर उस आधार कार्ड को तुम्हारे बैंक के खाते से लिंक करेंगे। उसके बाद तुम्हारा एसी बस में बैठने का सपना पूरा होगा।
खैर, एक दो हफ्ते की जदोजहद और क्षेत्र के विधायक व मंत्री की सिफारिश के बाद हमारा आधार कार्ड बन गया। खुशी थी कि ‘एसी’ बस में सफर करेंगे। पहुंच गए बस अड्डे। वही सज्जन बैठे थे जो पहले मिले थे। हमने अपनी छाती फुलाकर कहा-” बन गया आधार कार्ड। अब टिकट दो एसी बस का”। वह मुस्कुराया और बोला,” दिखाओ कार्ड।” हमने उसे कार्ड थमा दिया। वह बोला,” तुम्हारे फिंगर प्रिंट इस से मैच होने पर टिकट मिलेगा।” हमने कहा हमारा फोटो तो लगा है इस पर, फिर फिंगर प्रिंटस क्यों? वह बोला,” तुम्हारी सब की शक्लें तो एक जैसी ही होती हैं, पहचान कैसे होगी”? हमने अपना ‘खुर’ आगे बढ़ाया और कहा,” ले लो फिंगर प्रिंट”। ” अरे पैर नही हाथ दिखाओं” वह बोला। ”हमारे तो हाथ भी यही है और पैर भी यही”। हमने सफाई दी। वह बोला फिर तो ‘खुर’ के प्रिंट लेने होंगे। हमने कहा,” साहब हमारे सबके खुर एक जैसे होते हैं”।
काफी बहस के बाद वह हमें टिकट देने पर सहमत हो गया। पैसे ले कर हमें टिकट दिया। सीट नंबर दिया ‘दो’। नंबर देख कर हमारी हंसी निकल पड़ी। वह बोला,’क्यों हंस रहा है’? कुछ खास नहीं बस ‘नंबर दो’ की याद आ गई। हमारे देश में कुछ नंबर खास हंै। जिन्हें कोई लेना नहीं चाहता। जैसे 420, या नंबर 10 और नंबर दो। खैर हम दो नंबरी बन कर सीट पर बैठने का प्रयास करने लगे। वहां कही हमारी टांगे न फंसे न खुर। असल में यह सीट चालक महोदय के कैबिन के बिल्कुल पीछे थी। आगे कैबिन पीछे सीट की बैक। जांए तो जांए कहां। इस पर तुर्रा यह कि वहां ‘एसी’ का कोई असर दिख ही नहीं रहा था। पिछली सीटों पर एसी की हवा थी पर हमें पीछे खाली पड़ी सीटों पर बैठने की मनाही थी। हमारी हालत कुछ ऐसी ही थी जैसे आरक्षण मिले किसी भी बुजुर्ग या दलित की होती है। सुविधा मिलती है, पर देने वाले के तेवर ऐसे होते हैं- जैसे उसका बस चले तो गोली मार दे।
लोग एसी का आनंद ले रहे थे और हम पसीने से तर बतर हो कर सोच रहे थे , काश साधारण बस में बैठते कम से कम खिड़की का शीशा तो खोल लेते। पर यहां तो संास लेने के भी लाले थे। कंडक्टर हमें ऐसे देख रहा था जैसे कह रहा हो- ‘बेटा आज तो बैठ गया फिर कभी बैठने की हिम्मत न करना”। दो घंटे तक भ_ी में जलने के बाद जब बाहर निकले तो वहां की ‘लू’ भी हमें बर्फानी हवा लगने लगी। सांस भी ठीक से चलने लगी। कुछ होश सा आया।कसम खा ली, किसी भी बस में सफर कर लें पर एसी बस में नहीं करेंगे।