तीन नदियां, करोड़ों जिंदगियां. मैं इस पंक्ति के साथ मुट्ठी भर राजनेता भी जोड़ना चाहूंगा. जब भी हम इन तीन नदियों और करोड़ों जिंदगियों के बारे में सोचें तो यह भी सोचें कि किस तरह कुछ मुट्ठी भर राजनेता पिछले चार दशकों से उनकी जिंदगी तय या बर्बाद कर रहे हैं. पिछले तीस-चालीस सालों से ये तीनों नदियां बहुत ही बुरे दौर से गुजर रही हैं. तीनों पर ये संकट के बादल विकास की नई अवधारणाओं के कारण छाए हुए हैं. इन नदियों की उम्र कुछ लाख-लाख साल है. इन नदियों को बर्बाद करने का यह खेल करीब सौ साल के दौरान शुरू हुआ है. सबसे पहले हम नर्मदा नदी को लें क्योंकि यह गंगा और यमुना से भी पुरानी है. पौराणिक साक्ष्य और भूगर्भ वैज्ञानिकों के साक्ष्य भी यही बताते हैं कि नर्मदा अन्य दोनों नदियों के मुकाबले पुरानी है. यह नदी जिस इलाके से बहती है वहां भूगर्भ की एक बड़ी विचित्र घटना का उल्लेख मिलता है. उस जगह का नाम लमेटा है. लमेटा के किनारे एक सुंदर घाट भी बना हुआ है. कहा जाता है कि जिस तरह मनुष्य के जन्म के साथ उसके शरीर पर कोई-न-कोई चिह्न होता है जिसे अंग्रेजी में ‘बर्थ मार्क’ कहते हैं. ऐसे ही चिह्न लमेटा में मिलते हैं. इस नदी के साथ आज क्या हो रहा है, इसके बारे में बात करना जरूरी होगा.
विकास की नई अवधारणा के कारण पिछले दिनों एक वाक्य चल निकला कि नर्मदा इतनी-इतनी जलराशि, पता नहीं उसका कुछ हिसाब बताते हैं कि समुद्र में व्यर्थ गिराती है. इसी तर्क के साथ इस नदी पर बांध बनाने का प्रस्ताव सामने आया. यह कहा जाने लगा कि बांध बनाकर इसके व्यर्थ पानी को रोक पाएंगे. इस पानी का उपयोग सिंचाई जैसे कामों में किया जा सकेगा. इससे पूरे देश का या एक प्रदेश विशेष का विकास हो सकेगा. यह माना गया कि गुजरात प्रदेश का विकास होगा. मध्य प्रदेश का विकास हो पाएगा, लेकिन कुछ नुकसान भी उठाना पड़ सकता है. नर्मदा पर बांध बनने से मध्य प्रदेश की एक बड़ी आबादी का और घने वनों का हिस्सा डूब जाएगा. इस नदी को लेकर दो राज्यों के बीच छीना-झपटी भी चली. उस समय केंद्र में इंदिरा जी के नेतृत्व में एक मजबूत सरकार थी. बीच में कुछ सालों के अपवादों को छोड़ दें तो राज्यों में भी कांग्रेस की ही सरकारें रहीं. लेकिन इस विकास के संदर्भ में कभी भी यह तय नहीं हो पाया कि बिजली और पानी के वितरण के क्या अनुपात होंगे. यानी किन राज्यों को कितना-कितना पानी मिल पाएगा. बाद के दिनों में यह झगड़ा इतना बढ़ गया कि इसे एक पंचाट को सौंपना पड़ा. पंचाट ने भी इन सारे पहलुओं पर बहुत लंबे समय तक विचार किया. हजारों पन्नों के साक्ष्य दोनों पक्षों की ओर से सामने आए. बाद में इसमें तीसरा पक्ष राजस्थान का भी आया और यह तय हुआ कि उसकी प्यास बुझाने के लिए उसे भी कुछ पानी दिया जाएगा. इस तरह पंचाट ने इस काम को करने के लिए तीन दशक से भी ज्यादा का समय लिया. नतीजा आया तो लगा कि यह गुजरात के पक्ष में है. मध्य प्रदेश को भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. उन्हीं दिनों इस बांध के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन शुरू हुआ.
लेकिन हमारी यह बहस बांध के पक्ष और उसके विरोध में बंटकर रह गई. इसको तटस्थ ढंग से कोई देख नहीं पाया कि विकास की यह अवधारणा हमारे लिए कितने काम की है. इससे पहले हम देखें तो हरेक नदी के पानी का उपयोग समाज अपने ढंग से करता ही रहा है. हमारा यह ताजा कैलेंडर 2012 साल पुराना है. इसके सारे पन्ने पलट दिए जाएं तो उसके कुछ पीछे लगभग ढाई हजार साल पहले नर्मदा के किनारे मध्य प्रदेश में कुछ छोटे-छोटे बड़े खूबसूरत राज्य हुआ करते थे. उनमें से एक राज्य के दौरान जैन तीर्थंकर की एक मूर्ति बनाई गई और उसका नाम बाद में समाज ने ‘बावन गजा’ के तौर पर याद रखा क्योंकि इसमें मुख्य मूर्ति बावन गज ऊंची है. यह मूर्ति पत्थर से काटकर नदी के किनारे बनाई गई. जो लोग ढाई हजार साल पहले बावन गज ऊंची मूर्ति बना सकते थे, वे पांच गज ऊंचा बांध तो नदी पर बना ही सकते थे. लेकिन उन्होंने नदी के मुख्य प्रवाह को रोकना ठीक नहीं समझा था. आज ढाई हजार साल बाद भी यहां तीर्थ कायम है और हजारों लोग अब भी माथा टेकने पहुंचते हैं. लेकिन इसके किनारे हमारे लोगों ने जो बांध बनाए हैं, उनके हिसाब से भी इनकी उम्र चिरंजीवी नहीं है. बहुत अच्छा रहा तो बांधों की उम्र सौ-सवा सौ साल होती है, नहीं तो ये पचास-साठ सालों में ढहने की तैयारी में आ जाते हैं. पानी रोक कर ले जाने का चिंतन आज का है. पहले हमारी मान्यता थी कि नदी सबसे निचले इलाके में बहने वाली कुदरत की एक देन है. इसलिए उसके ऊपर से तालाबों की श्रृंखला बनाकर नीचे की ओर लाते थे. वे ऐसा करके बाढ़ और सुखाड़ दोनों ही समस्याओं से निजात पाते थे. हमने ऊपर की सब बातें भुला दीं. नीचे नदी पर बांध बनाने की राय के पक्ष में सारी बातें चली गई हैं.
बांध से जिन लोगों को फायदा पहुंचने की बात कही गई थी उन्हें भी इससे नुकसान हुआ. तवा नदी पर बने बांध से होशंगाबाद में दलदल बनने की शिकायतें आने लगीं
पुरानी कहानी में जिस तरह द्रौपदी के चीर हरण की बातें थीं उसी तरह आज जल हरण की बातें हो रही हैं. दुर्भाग्य से नदियों से जो जल हरा जा रहा है, उसे पीछे से देने वाला कोई कृष्ण नहीं है. इसलिए बांध भरा हुआ दिखता है और मुख्य नदी सूखी. उस बांध में जो लोग डूबते हैं, उसकी कीमत कभी नहीं चुकाई जा सकी है. इतिहास के पन्ने पलट कर देखें तो भाखड़ा बांध की वजह से विस्थापित हुए लोगों की आज तीसरी पीढ़ी कहां-कहां भटक रही है, इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है. नर्मदा की इस विवादग्रस्त योजना में लोगों का ध्यान लाभ पाने वाले राज्य यानी गुजरात की एक बात की ओर बिल्कुल भी नहीं गया है. वैज्ञानिकों का मानना है कि नर्मदा घाटी परियोजना के क्षेत्र वाला गुजरात काली मिट्टी का क्षेत्र है. काली मिट्टी का स्वभाव बड़े पैमाने पर सिंचाई के अनुकूल नहीं है. यह आशंका व्यक्त की जाती रही है कि बड़े पैमाने पर सिंचाई इस क्षेत्र को दलदल में भी धकेल सकती है.
थोड़ा पीछे लौटें तो सन 1974 में नर्मदा की एक सहायक नदी तवा पर बांध बनाया गया था. पंचाट विवाद की वजह से फैसला आए बगैर मध्य प्रदेश का सिंचाई विभाग नर्मदा की मूलधारा पर एक ईंट भी नहीं रख सकता था. लेकिन विकास को लेकर एक तड़प थी, इसलिए उसने एक तवा नाम की नदी को चुना और उस पर बांध बनाया. इस बांध के विस्थापितों को लेकर जो अन्याय हुआ वह तो एक किस्सा है ही लेकिन उसे अभी थोड़ा अलग करके रख भी दें तो जिन लोगों के लाभ के लिए ये बांध बनाया गया उनका नुकसान भी बहुत हुआ. तवा पर बनाए गए बांध के कमांड एरिया में, खासकर होशंगाबाद इलाकों से दलदल बनने की शिकायतें आने लगीं. इस तरह तवा पर बना बांध हमारे लिए ऐसा उदाहरण बन गया जिसका नुकसान डूबने वालों के साथ-साथ लाभ पाने वालों को भी हुआ. बाद में यहां उन किसानों ने जिनको पहले लाभ हो रहा था, एक बड़ा आंदोलन किया. लेकिन वह कोई तेज-तर्रार आंदोलन नहीं था. थोड़ा विनम्र आंदोलन था और विपरीत किस्म का आंदोलन था. उल्टी धारा में बहने वाला आंदोलन था, इसलिए सरकारों और अखबारों ने उस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया. लेकिन आंदोलन करने वाले लोगों ने देश और समाज के सामने यह बात पहली बार रखी कि बांध बनाने से लाभ पाने वालों को भी नुकसान हो सकता है. आज करीब 35-36 साल बाद भी यह बांध कोई अच्छी हालत में नहीं है. इसी बांध के बारे में यह बात दोहरा लें कि इसे नर्मदा का रिहर्सल कहकर बनाया गया था. और यह रिर्हसल बहुत खराब साबित हुई. उसके बाद सरदार सरोवर और इंदिरा सागर बांध बनाए गए.
नर्मदा लाखों साल पहले बनी नदी है. तब हम भी नहीं थे और न ही हमारा कोई धर्म अस्तित्व में था. लेकिन बाद में इसके किनारे बसे लोगों ने इसके उपकारों को देखा. अपनी मान्यताओं के हिसाब से इसे अपने मन में देवी की तरह रखा. इसका नाम रखा नर्मदा. नर्म यानी नरम यानी आनंद. दा यानी देने वाली. आनंद देने वाली नदी. लोगों को अपने ऊपर बनने वाली योजना की वजह से आज ये थोड़ा कम आनंद दे रही है. बल्कि परेशानी थोड़ा ज्यादा दे रही है. लेकिन इसमें नदी का दोष कम है और लोगों का ज्यादा है. उन मुट्ठी भर राजनेताओं का दोष ज्यादा है जिन्होंने यह माना कि नर्मदा अपना पानी व्यर्थ ही समुद्र में बहा रही है. नर्मदा के प्रसंग में बात समाप्त करने से पहले व्यर्थ में पानी बहाने वाली बात और अच्छे से समझ लेनी चाहिए. कोई भी नदी समुद्र तक जाते हुए व्यर्थ का पानी नहीं बहाती है. नदी ऐसा करके अपनी बहुत बड़ी योजना का हिस्सा पूरा करती है. वह ऐसा धरती की ओर समुद्र के हमले को रोकने के लिए करती है. आज समुद्र तक पहुंचते-पहुंचते नर्मदा की शक्ति बिल्कुल क्षीण हो जाती है. पिछले 10-12 सालों के दौरान ऐसे बहुत सारे प्रमाण सामने आए हैं कि भरुच और बड़ौदा के इलाके में भूजल खारा हो गया है. समुद्र का पानी आगे बढ़ रहा है और मिट्टी में नमक घुलने लगा है. दूसरी नदी यमुना को लें तो फिर याद कर लें कि यह कुछ लाख साल पुरानी हिमालय से निकलने वाली एक नदी है. बाद में यह इलाहाबाद पहुंचकर गंगा में मिलती है. इसलिए यह गंगा की सहायक नदी भी कहलाएगी. आजकल जैसे रिश्तेदारों का चलन है कि कौन, किसका रिश्तेदार है. उसकी हैसियत उसके हिसाब से कम या ज्यादा लगाई जाती है. उस हिसाब से देखें तो यमुना के रिश्तेदारों की सूची में उनके भाई का नाम कभी नहीं भूलना चाहिए. ये यम यानी मृत्यु की देवता की बहन हैं. यमुना के साथ छोटी-बड़ी कोई गलती करेंगे तो उसकी शिकायत यम देवता तक जरूर पहुंचेगी और तब हमारा क्या हाल होगा यह भी हमें ध्यान रखना होगा.
यमुना के साथ भी हमने छोटी-बड़ी गलतियां की हैं. इन अपराधों की सूची में दिल्ली का नाम सबसे ऊपर आता है. इसके किनारे जब दिल्ली बसी होगी तब इसका पूरा लाभ लिया होगा. आज लाभ लेने की मात्रा इतनी ऊपर पहुंच गई है कि हम इसे मिटाने पर तुल गए हैं. दिल्ली के अस्तित्व के कारण अब यमुना मिटती जा रही है. इसका पूरा पानी हम अपनी प्यास बुझाने के लिए लेते हैं और शहर की पूरी गंदगी इसमें मिला देते हैं. दिल्ली में प्रवेश करके यमुना नदी नहीं रहकर नाला बन जाती है. आने वाली पीढ़ियां इसको नदी के बजाय नाला कहना शुरू कर दें तो किसी को अचरज नहीं होना चाहिए. आज इसके पानी में नहाना तो दूर, हाथ डालना भी खतरनाक माना जाता है. इसके पानी की गंदगी को देखकर सरकार के विभागों ने इस तरह के वर्गीकरण किए हैं. बाद के शहरों में वृंदावन और मथुरा आते हैं. इन्हें हमारे सबसे बड़े देवता श्रीकृष्ण की जन्मभूमि और खेलभूमि माना गया. लेकिन दिल्ली से वहां तक पहुंचते-पहुंचते साफ पानी खत्म हो जाता है और उसमें सब तरह की गंदगी मिल चुकी होती है. मुझे तो लगता है कि कृष्ण जी ने यहां रहना बंद कर दिया होगा और निश्चित ही द्वारका चले गए होंगे. एक समय में यमुना के कारण दिल्ली और संपन्न होती थी. शहर के एक तरफ यमुना नदी बहती है और दूसरी ओर अरावली पर्वत श्रृंखला है जिससे छोटी-छोटी अठारह नदियां वर्षा के दिनों में ताजा पानी लेकर इसमें मिलती थीं. लेकिन 1911 में जब दिल्ली देश की राजधानी बनी तब से हमने इन छोटी-छोटी नदियों को एक-एक करके मारना शुरू कर दिया. नदी हत्या का काम तो दूसरी जगहों पर भी हुआ लेकिन दिल्ली में जितनी तेजी से यह काम हुआ उतना कहीं भी नहीं हुआ. इस दौर में शहर के सात-आठ सौ तालाब नष्ट हुए जिनसे शहर को पानी मिलता था. यमुना के साफ स्त्रोत हमने नष्ट कर दिए. और अब तो इस नदी को भी सुखा डाला. अब इसमें गंगा नदी के मिलने से पहले ही हम इसमें गंगा जल मिला देते हैं. यह साफ गंगा जल नहीं है. भागीरथी से जो नदी हमारी प्यास बुझाने आती है उसमें हम दिल्ली का पूरा मल-मूत्र मिलाकर यमुना में चढ़ा देते हैं. इसलिए यमुना की हालत इलाहाबाद पहुंचते-पहुंचते इतनी खराब हो जाती है कि अगर राजस्थान की ओर से आने वाली चंबल और कुंवारी जैसी नदियां नहीं मिलतीं तो इसमें इतना दम भी नहीं बच पाता कि ये गंगा से कुछ बतिया सकतीं, उनसे संगम कर पातीं.
हम नदियों की सारी जलराशि को निचोड़ कर अपने बल्ब जलाने, अपने कारखाने चलाने, अपने खेतों की सिंचाई करने को ही विकास की योजनाएं मान चुके हैं
भगीरथ के प्रयास से गंगा इस धरती पर आई. भगीरथ का परिवार भी वही है जो रामचंद्र जी का है. सूर्यवंश और रघुवंश. भगीरथ भगवान राम के परदादा थे. उन्हें धरती पर गंगा को लाने की जरूरत क्यों महसूस हुई, उस कारण को भी संक्षेप में देख लें. उनके पुरखों से एक गलती हुई थी. सगर के बेटों ने जगह-जगह खुदाई करके अपने अश्वमेध के घोड़े को ढूंढ़ने की कोशिश की थी. उन्हें लगता था कि उसे किसी ने चुरा लिया था. इसी वजह से उन्हें एक श्राप मिला था जिसे खत्म करने के लिए भगीरथ गंगा को धरती पर लाए. वह किस्सा लंबा है जिसे यहां दोहराना अभी जरूरी नहीं है. लेकिन आज अगर हम भगीरथ को याद करें तो उनसे ज्यादा हमें सगर पुत्रों को याद करना होगा. भगीरथ हमारे आस-पास नहीं हैं लेकिन सगर पुत्र हमारे बीच आज भी मौजूद हैं. वे गंगा में खुदाई भी कर रहे हैं और उनके खिलाफ जगह-जगह आंदोलन भी चल रहे हैं. संतों ने भी आमरण अनशन किए हैं, उनमें से एक ने अपनी बलि भी चढ़ा दी है. यह क्रम जारी है. गंगा पर छोटे और बड़े अनेक बांध बनाए जा रहे हैं. समय-समय पर मुट्ठी भर राजनेताओं का ध्यान इस ओर भी जाता है, शायद वोट पाने के लिए. राजीव गांधी ने 1984 में प्रधानमंत्री बनने के बाद ऐसे ही एक गैरराजनीतिक योजना शुरू की थी – ‘गंगा एक्शन प्लान.’ यह एक बड़ी योजना थी. उस योजना की सारी राशि गंगा में बह चुकी है. पानी एक बूंद भी साफ नहीं हो पाया. विश्व बैंक ने भी अब एक बड़ा प्रस्ताव रखा है जिसके लिए एक बड़ी राशि फिर से गंगा में बहाने की योजना बन रही है. इस बारे में भी जानकारों का मानना है कि कोई ठोस प्रस्ताव नहीं है जिससे गंगा की गंदगी कम हो सकेगी और उसमें मिलने वाले नालों में कोई रुकावट आएगी.
कुल मिलाकर यह दौर बड़ी नदियों से जल राशि हरण करने का है और उसमें उसी अनुपात से गंदगी मिलाने का है. छोटी नदियां सूखकर मर चुकी हैं. बड़ी नदियां मार नहीं सकते, इसलिए उन्हें हम गंदा कर रहे हैं. आने वाली पीढ़ी को भी बिजली की जरूरत होगी, इसकी चिंता नहीं है. हम इन नदियों को अधिकतम निचोड़ कर अपने बल्ब जलाने, अपने कारखाने चलाने, अपने खेतों की सिंचाई करने को ही विकास की योजना मान चुके हैं. इसमें सारी सरकारें एकमत दिखती हैं. और यदि हम कहें कि सर्वनाश में सर्वसम्मति है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी. ये तीन नदियां हमारे देश का एक बड़ा हिस्सा, करोड़ों जिंदगियां को अपने आंचल में समेटती रही हैं. लेकिन हमने अभी इसके आंचल का, चीर का हरण करना शुरू किया है. और ये सारी बातें तब भी रुकती नहीं दिखती हैं जब सभा में सारे ‘धर्मराज’ बैठे हुए दिखते हैं.