बहुत बरस पहले स्व. अनुपम मिश्र ने अपने एक लेख का शाीर्षक दिया था, नर्मदा घाटी सचमुच कुछ घटिया विचार। वे बांध निर्माण को घटिया न बताते हुए बेहद व्यग्यांत्मक तरीके से उन पर्यावरणविदों को जिन्होंने सन 1983 में इस बांध के पहले चरण की डूब आने से भी पहले इससे होने वाली हानियों की घोषणा कर दी थी, को घटिया विचार की संज्ञा दे रहे थे। वे सारे घटिया विचार आज मुंह बाये खड़े हैं और किसी के पास कोई जवाब नहीं है, केरल की तबाही के बावजूद। हम सभी जानते हंै कि केरल के हालिया विनाश में सबसे सक्रिय भूमिका वहां के बड़े बांधों की रही है। अपने इस लेख में मध्यप्रदेश के पूर्व सिंचाई सचिव के एक पत्र, जिसे उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को लिखा था, का उल्लेख भी करते हैं, जिसमें लिखा है,” इसके कारण उजडऩे वाले लोगों से जो वादा किया है, वह निभाया नहीं जा सकेगा और कुल मिलाकर नुकसान इतना ज़्यादा होगा कि 21 वीं सदी के किसान के लिए तैयार की जा रही नर्मदा घाटी कहीं बीस हजार साल पीछे न धकेल दी जाए’’। आज यह बातें सही साबित हो रही हैं।
गौरतलब है इस 17 सितंबर को अधूरे बने सरदार सरोवर बांध के उद्घाटन को पूरा एक साल हो जाएगा। इस बांध से विस्थापित हो रहे करीब 35-40000 परिवार आज भी पुनर्वास की बाट जोह रहे हैं। फरवरी 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में कुछ महत्वपूर्ण निर्देश दिए थे, पुनर्वास व मुआवजे को लेकर। 31 जुलाई 2017 तक राज्य सरकारों द्वारा इनका क्रियान्वयन किया जाना था। वह आज दिन तक नहीं हो पाया। पुनर्वास स्थलों की स्थिति बदहाल है। इस बार भी नर्मदा बचाओ आंदोलन की अगुवाई में डूब में आने वाले 197 गांवों के निवासी, जो अभी तक गांवों में डटे हुए हैं, पिछले एक महीने से क्रमिक अनशन पर हैं, परंतु मध्यप्रदेश शासन की ओर से कोई पहल दिखाई नहीं दे रही। उस पर स्थिाति यह है कि मानसून विदाई की तैयारी में है और सरदार सरोवर जलाशय अभी तक भरा ही नहीं है। जो पानी आया भी है, सुना है कि वह बिना मांग के भी बिजली बनाने के नाम पर पीछे के अधूरे भरे बांधों में छोड़ा गया है। इसका अर्थ यह है कि यदि पीछे के क्षेत्रों में और वर्षा नहीं हुई तो ये तीनों बांध, इंदिरा सागर, ओंकारेश्वर और महेश्वर खाली रह जाएंगे और मध्यप्रदेश के निमाड़ व आलवा अंचल में आने वाल समय में त्राहि-त्राहि मच सकती है।
वास्तविकता तो यह है कि पिछले मार्च में ही गुजरात के किसानें को जलाशय से सिंचाई के लिए पानी दिया जाना बंद कर दिया गया था और जून में तो नहरों पर सशस्त्र पुलिस बैठा दी गई थी, जिससे कि कोई किसान खेतों में सिंचाई नही कर पाए। जलाशय का जलस्तर निर्धारित न्यूनतम से भी कम हो गया था। यह स्थिति इस बांध के उद्घाटन के एक माह बाद से यानी पिछले अक्तूबर से ही बननी शुरू हो गई थी। परंतु गुजरात के अधिकांश किसान अब भी इस भ्रम के हैं कि सरदार सरोवर बांध उनको पार लगा देगा। कुछ किसानों खासकर आदिवासी किसानों को बहुत पहले ही यह षडयंत्र समझ में आ गया था, परंतु विवशता यह है कि गुजरात की किसान राजनीति का अधिकांश दारोमदार पटेलों पर है। वे अभी भी आंखों पर पट्टी बांधे हैं और उसे उतारना भी नहीं चाह रहे हैं। हालिया घटना पर गौर करिए पटेल/पाटीदार नेता हार्दिक पटेल अनिश्चितकालीन अनशन पर बैठे हैं। एकाएक उन्होंने तय कर लिया कि वे अब जल भी त्याग देंगे। इससे उनके समर्थकों में खलबली मच गई। उन्हीं के एक करीबी ने नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर को फोन कर कहा कि वे व अन्य लोग हार्दिक पटेल को राजी करें कि वे पानी न छोडें़। अत्यधिक व्यस्तता के बावजूद वह अनशन स्थल पर पहुंची। वहां पहुंचने पर उपस्थित एक वर्ग ने उनका विरोध किया। मेधा ने उन्हें समझाने का काफी प्रयास किया कि वे लोग अब तो असलियत को पहचाने और जो सच है उसका साथ दें। गौरतलब है बड़ौदा स्थित सरदार सरोवर बांध कार्यालय पर प्रभावित आदिवासी लगातार प्रदर्शन कर रहे हैं कि उन्हें पिछले 50 वर्षों से विस्थापित की तरह रहना पड़ रहा है, परंतु हार्दिक पटेल के साथियों ने अंतत: मेधा पाटकर व उनकी भेंट नहीं होने दी। इससे यह भी साबित हो गया कि गुजरात में छोटे किसानों व आदिवासियों को अपनी लड़ाई अलग से ही लडऩी पड़ रही है क्योंकि आज सरकार व बड़े किसान दोनों ही उनके बारे में कुछ भी नहीं सोच रहे हैं। यह बात राष्ट्रव्यापी किसान आंदोलन के हित में भी नहीं है। बहरहाल यही आज की सच्चाई है और इस अज्ञानता का खमियाजा आने वाली पीढ़ी को भुगतना पड़ सकता है। वहां के किसान गुजरात सरकार से इस बात पर नाराजग़ी नहीं दिखा रहे हंै कि इतने वर्षों में नहरों का जाल नहीं बना पाया और जो निर्माण हुआ वह भी स्तरीय नहीं है। इसकी वजह से पिछले वर्षों में मुख्य नहर कई बार टूट चुकी है और किसानों को जबरदस्त नुकसान उठाना पड़ा है।
परंतु गुजरात व मध्यप्रदेश सरकारों की रुचि पुनर्वास और ंिसंचाई से ज़्यादा पर्यटन में हैं। गुजरात में बांध स्थल से करीब तीन किलोमीटर दूर वल्लभ भाई पटेल की 168 मीटर ऊँची मूर्ति स्थापित की जा रही है। इस पूरी परियोजना पर दो हजार करोड़ रुपए से ज़्यादा का खर्च आएगा। इससे कम में सभी विस्थापितों का पुनर्वास और पुर्नस्थापन हो सकता था। परंतु यह गुजरात सरकार की प्राथमिकता में नहीं है। इतना ही नहीं सीएजी ने इस मूर्ति निर्माण में लग रहे धन को लेकर गंभीर टिप्पणियां की हैं। उनके अनुसार सीएसआर का धन इसमें लगाना गलत है और इसके लिए तेल कंपनियों से सवाल जवाब किया जाना चाहिए। परंतु राज्य का राजा कौन? सवाल पूछना और वह भी सरदार सरोवर बांध – या मूर्ति पर पूर्णतया निषिद्ध है। सरदार सरोवर जलाशय के दूसरे छोर पर बड़वानी के पास बावनगजा में आज से करीब 2000 साल भगवान बाहुबली की 52 गज अर्थात 152 फीट ऊँची मूर्ति बनी थी। यह पत्थर की मूर्ति है। इसे हमारे यहां के शिल्पकारों एवं मूर्तिकारों ने बनाया था। बीस शताब्दियों के बाद जब भारत को विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था बताया जा रहा है। हम मानते हैं कि हमने तकनीक में असाधारण तरक्की की है। प्रधानमंत्री मेक इन इंडिया की और उनका बौद्धिक सलाहकार संगठन -”स्वदेशी’’ की बात करता है, तो दूसरे छोर पर जो मूर्ति बन रही है उसका निर्माण चीन की एक कंपनी कर रही है और बात यहीं खत्म नहीं होती, सुना है वहां पर चीनी श्रमिक भी कार्य कर रहे हैं। यह वास्तव में अचंभित कर देने वाला परिदृश्य है। सवाल तो प्राथमिकताओं का है और समझ में स्पष्ट तौर पर आ रहा है कि आम नागरिक या सीमांत नागरिक अब नीति निर्माताओं की आंख से ओझल हो चुका है। क्या वल्लभ भाई पटेल इन अपव्यय की अनुमति देते? पर उनकी किसे फिक्र है।
अधूरे बांध के उद्घाटन की बरसी होने को आई। मध्यप्रदेश के शिकायत निवारण प्राधिकरण (सरदार सरोवर बांध) में हजारों बांध प्रभावितों की शिकायतें लंबित हैं और मध्यप्रदेश सरकार इस प्राधिकरण को ही समाप्त कर देना चाहती है। सुनवाई की गुंजाइश ही नहीं बचेगी तो शिकायतकत्र्ता भी धीरे-धीरे अपनी गति को प्राप्त हो जाएंगे। लेकिन सरकारें तो शाश्वत होती है, वे तो हमेशा अनंत तक सक्रिय ही रहेंगी। डूब में आए गांव जलसिंधी के बाबा महरिया कहते हैं,” पीढिय़ों से हम जंगलों में रहते आए हैं। जंगल ही हमारा साहूकार और बैंक हैं। संकट के दिनों में हम उसी के पास जाते हैं। अब तो उनके जंगल भी डूब गए हैं। साहूकार और बैंक तो सरकार के कब्जे में है, तो फिर ये पीडि़त कहां जाएं? इसीलिए उन्होंने अब नर्मदा घाटी को खाली करने से इंकार कर दिया है और सरकारों और सर्वोच्च न्यायालय दोनों से यह सवाल पूछ रहे हैं कि नर्मदा घाटी के निवासी भारत के नागरिक हैं भी या नहीं? जवाब नहीं मिल पा रहा है।