किसान आन्दोलन को लेकर अब दिन–ब–दिन सियासत होती जा रही है। क्योंकि जिनके कन्धे पर दायित्व होना चाहिए वे सिर्फ़ अधिकारों की बात कर रहे हैं और जिनको सही मायने अधिकार मिलने चाहिए उन पर दायित्व सौंपा जा रहा है। इससे मामला सुलझने के बजाय उलझता ही जा रहा है। दिल्ली की सीमाओं पर 10 महीने से अधिक समय से संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले देश भर के किसान तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध में और अपने अधिकारों की माँगों को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं। लेकिन केंद्र सरकार किसानों की माँगों को मानने को तैयार ही नहीं है। इन्हीं मुद्दों पर विशेष संवाददाता राजीव दुबे की पड़ताल :-
बात दायित्व और अधिकार की करें, तो सबसे पहले सरकार का कर्म और धर्म यही बनता है कि जो भी किसानों की समस्या है, उनको सुलझाए और समाधान करे; ताकि देश का किसान अन्नदाता खेती–किसानी का काम आसानी से करता रहे और देश की अर्थ–व्यवस्था में बढ़ोतरी और विकास में सहयोगी बने। पर ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि सरकार किसानों के अधिकारों नज़रअंदाज़ कर रही है। उनके जो अधिकार हैं, उन्हें वह अपने पास रखना चाहती है। और जो दायित्व सरकार को निभाने चाहिए, वो न निभाकर किसानों से चाहती है कि वे चुपचाप खेती–किसानी करें। उनकी मेहनत का फ़ैसला वह करे कि किस भाव में उनके खाद्यान्न बिकेंगे। इसके चलते किसानों का ग़ुस्सा दिन–ब–दिन बढ़ता ही जा रहा है। सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि किसानों की माँगों को लेकर सरकार की कोई सार्थक पहल अभी तक नहीं हुई है।
किसान नेता राकेश टिकैत का कहना है कि सरकार ने कई बार किसानों के साथ धोखा किया है। इसलिए कृषि क़ानूनों और एमएसपी की गारंटी मिलने के बाद भी किसानों की जंग जारी रहेगी। क्योंकि किसानों की अन्य समस्याएँ भी हैं, जिन पर सरकार अभी तक बात करना तो दूर, उनकी बात तक सुनने को तैयार ही नहीं है। अब जो भी माँगों को सरकार मानेगी, उसकी लिखित में सार्वजनिक रिपोर्ट जारी होनी चाहिए, ताकि किसानों के साथ कोई धोखा न हो सके। क्योंकि हाल ही में सरकार ने सीजन 2022-23 की ख़रीद के लिए जो न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित किया है। वह किसानों को गुमराह करने वाला है। किसानों को आँकड़ों में उलझाने वाला है। क्योंकि सरकार सियासी दाँव–पेच में माहिर है, जो एमसीपी को बड़ा क़दम बता रही है। उसने किसानों की जेब काटने का काम किया है। हाँ, किसानों को सिसायी दाँव में फँसाने के लिए कुछ फ़सलों में मामूली–सी बढ़ोतरी की है, जिससे किसानों को खुले बाज़ार में अपनी फ़सल बेचने में दिक़्क़त होगी। किसान नेता व एडवोकेट बिट्टू तिवारी का कहना है कि जैसे–जैसे उत्तर प्रदेश और पंजाब विधानसभा चुनाव नज़दीक आते जाएँगे, वैसे–वैसे किसानों को गुमराह करने वाले सरकार के फ़ैसले आते जाएँगे। इसमें देश के मेहनतकश व सीधे–सादे किसानों को जुमलों में फँसाये जाने का प्रयास किया जाएगा। लेकिन किसान अब सरकार के जुमलों में फँसने वाले नहीं हैं।
किसान युद्धवीर सिंह का कहना है कि भारत कृषि प्रधान देश है और रहेगा। सरकार पूँजीपतियों के हवाले किसानों की ज़मीन करके उनके अधिकारों को हड़पना चाहती है। लेकिन देश के किसान ये नहीं होने देंगे। उनका कहना है कि इस बात से साफ़ अंदाज़ लगाया जा सकता है कि तत्कालीन सरकार किसानों की कितनी विरोधी है। क्योंकि अभी तक 600 से ज़्यादा किसानों की मौत किसान आन्दोलन में हुई है। लेकिन सरकार और सरकार के प्रतिनिधियों तक ने मृतक किसानों के परिजनों की सुध लेने की बात तो छोड़ो, मृतकों के प्रति दु:ख तक नहीं जताया। इससे किसानों को यह साफ़ लगने लगा है कि सरकार पूरी तरह किसान विरोधी है। भले ही सरकार सियासी लाभ लेने के लिए किसानों को लाभ देने की बात करती है। लेकिन देश के किसान सरकार की मंशा और नीयत से परिचित हैं कि उनके साथ खेल हो रहा है। किसान युद्धवीर का कहना है कि किसानी छोड़ अन्य क्षेत्रों में लोगों ने काफ़ी लाभ कमाया है। दिन–ब–दिन विकास भी किया है। लेकिन देश के किसान दिन–ब–दिन पिछड़ता ही जा रहे हैं। इसकी बजह साफ़ है कि अभी तक की जितनी भी सरकारें आयी हैं, उन्होंने किसानों के हितों को अनदेखा किया है। मौज़ूदा दौर में किसानों का आन्दोलन देश के किसानों का स्वाभिमानी आन्दोलन बन गया है। किसान अब स्वाभिमान से कोई समझौता को तैयार नहीं हैं। वे हर हाल में तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने तक आन्दोलन करने की बात पर अडिग हैं। चाहे यह आन्दोलन कितने ही साल क्यों न चले।