मुल्क में राजस्थान के कोटा की मौज़ूदा राजनीतिक पहचान लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला के संसदीय क्षेत्र के रूप में है। वैसे कोटा देश, दुनिया में इंजीनियरिंग, मेडिकल प्रवेश परीक्षा की तैयारी के कोचिंग हब के रूप में मशहूर है; लेकिन इन दिनों इसकी चर्चा की वजह कोटा के ही जेकेलोन अस्पताल में 35 दिन में 110 बच्चों की हुई मौत है। देशवासियों ने जेकेलोन अस्पताल के बाहर सूअर घूमने वाले टीवी फुटेज देखे, अस्पताल की जर्जर हालात बयाँ करने वाली तस्वीरें भी हमारी आँखों से गुज़रीं और जिन बच्चों की जान चली गयी, उनके माता-पिता, रिश्तेदारों के गम को हमने महसूस किया। मगर अफसोस कि बच्चों की मौत पर सियासत होने लगी और भाजपा व कांग्रेस के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है। राजस्थान के स्वास्थय मंत्री रघु शर्मा के अनुसार, राजस्थान में भाजपा के कार्यकाल में 2014 में 1198, 2015 में 1260, 2016 में 1193, 2017 में 1027 और 2018 में 1005 शिशुओं की मौत हुई थी। 2019 में कांग्रेस के कार्यकाल में सबसे कम 940 मौत हुई हैं। सवाल यहाँ पर भाजपा, कांग्रेस, वाम या अन्य किसी राजनीतिक दल के शासनकाल का नहीं है। सवाल बच्चों की मौत का है; ऐसी मौतें, जिन्हें रोका जा सकता था। लेकिन यह मुल्क और राज्य, दोनों यहाँ पर असफल रहे। गौरतलब है कि लोकसभा अध्यक्ष ओम बिड़ला ने कहा- ‘मैं आरोप-प्रत्यारोपों में नहीं जाना चाहता। मैं चाहता हूँ कि बच्चों को कैसे बचाया जा सकता है।’ राजस्थान के उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट ने कहा- ‘इतने सारे बच्चों की मौत हुई है, तो जवाबदेही ढूँढनी होगी।’ सचिन पायलट के इस बयान के राजनीतिक अर्थ भी निकाले गये; लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि इस युवा राजनेता ने अपनी ही सत्तारूढ़ सरकार को खामियाँ दूर करने की जो सलाह दी, वह अहम है। क्यों? यह जानना ज़रूरी है। इस मामले पर जयपुर एसएमएस के दो विशेषज्ञ डॉक्टरों की रिपोर्ट में कहा गया है कि नवजातों की मौत का मुख्य कारण कड़ाके की ठंड में जीप या वैन द्वारा उन्हें एक अस्पताल से दूसरे में ट्रांसफर करना व इससे फैला संक्रमण है। इसके अलावा अस्पताल के नियो-नेटल आईसीयू में ऑक्सीजन पाइप लाइन तक नहीं है। यहाँ पाइप लाइन की जगह सिलेंडरों से बार-बार ऑक्सीजन सप्लाई की गयी। यही नहीं, चिकित्सा शिक्षा के सचिव वैभव गालिरया ने भी कहा- ‘मेरी खुद की जाँच में भी सामने आया है कि बच्चों के चिकित्सा तंत्र में कमियाँ हैं।’ राजस्थान के जिन सरकारी अस्पतालों में बच्चों का इलाज होता है, वहाँ 230 वेंटीलेटर में से 44 तो खराब हैं, 1430 वार्मर खराब हैं, कोटा में 71 में से 44 वार्मर खराब हैं। 35 मल्टी पेरा मॉनीटर खराब हैं। 480 नेबेलाइजर खराब हैं प्रदेश में, इनमें कोटा में 28 नेबेलाइजर में से 22 खराब हैं। राजस्थान में हर साल 28 दिन से कम उम्र में ही 38 हज़ार से अधिक बच्चे दम तोड़ देते हैं।
राजस्थान के साथ-साथ गुजरात पर भी निगाह डालें, तो यहाँ भी एक महीने में दो सरकारी अस्पतालों में 200 बच्चों की मौत के आँकड़े सामने आये हैं। गुजरात में राजकोट और अहमदाबाद के सिविल अस्पताल में पिछले एक महीने में 200 से अधिक बच्चों की मौत के बाद सत्तारूढ़ भाजपा की सरकार आँकड़ों के ज़रिये अपना बचाव करती नज़र आ रही है। भाजपा गुजरात में 22 साल से अधिक समय से सत्ता में है, 200 बच्चों की मौत के सन्दर्भ में वहाँ के स्वास्थ्य मंत्री नितिन पटेल ने पत्रकारों को आँकड़े बताने शुरू किये कि राज्य में शिशु मृत्यु दर 1997 में 62 प्रति हज़ार से घटकर 2017 में 30 पर आ गयी थी। 2019 में 25 के आस-पास आने की सम्भावना है। इस राज्य में हर साल 12 लाख बच्चे पैदा होते हैं। मध्य प्रदेश में अधिकतर सरकारी अस्पतालों में पर्याप्त शिशु विशेषज्ञ और संसाधनों की कमी के चलते बच्चों को अक्सर बड़े अस्पतालों में रैफर करना पड़ता है और हर महीने सैकड़ों नवजातों की असमय मौत हो जाती है। मध्य प्रदेश के धार ज़िले में हर महीने 100 बच्चे मर जाते हैं। बीते 9 महीनों में यहाँ 908 बच्चों की मौत हो चुकी है। इस ज़िले में 13 विकासखंड हैं, जिनमें से 12 में डॉक्टर नहीं हैं। रतलाम में बीते 40 दिनों में 61 नवजात की मौत हो गयी। इन 61 में से 21 बच्चों की मौत श्वसन संकट (सिंड्रोम) के कारण हुई। झाबुआ में 2019 में ज़िला अस्पताल के शिशु गहन चिकित्सा इकाई में 195 बच्चों की मौत हो गयी।
भारत में बच्चों की असमय मौतों को रोका जा सकता है और उसके लिए कई मोर्चों पर प्रतिबद्धता के साथ काम करना वक्त की माँग है। गौरतलब है कि भारत में हर साल 2.6 करोड़ बच्चे जन्म लेते हैं और हर रोज़ एक साल से कम आयु के अंदाज़न 2,350 बच्चे दम तोड़ देते हैं। इनमें से औसतन 172 राजस्थान व 98 गुजरात से हैं। इस पर भी ध्यान देना चाहिए कि विश्व में सबसे अधिक बच्चों की मृत्यु भारत में ही होती है। 2017 में यूनिसेफ का अनुमान 8,02,000 बच्चों की मौत का था। देश में हर साल 5 साल से कम आयु के 10 लाख बच्चों की मौत हो जाती है। इन मौतों का प्रमुख कारण निमोनिया व डायरिया है और करीब 25 प्रतिशत बच्चों की मौत का कारण भी यही है। 2015 में 5 साल से कम आयु के 1,40,649 बच्चों की मौत निमोनिया के कारण हुई यानी हर घंटे 16 से भी अधिक बच्चे। सरकार का लक्ष्य निमोनिया से होने वाली मौतों को 2025 तक घटाकर 3 प्रति हजार पर लाना है। 2017 में निमोनिया वैक्सिन को शुरू किया गया। लेकिन निमोनिया होने की कोई एक वजह नहीं होती, लिहाज़ा निमोनिया होने के कई ऐसे कारण भी हैं, जिनके लिए अभी तक टीका नहीं बन पाया है। यही नहीं पूरे मुल्क में बच्चों के डॉक्टर करीब 25 हज़ार ही हैं, जबकि देश को ज़रूरत दो लाख से अधिक की है। 2018 तक के आँकड़ों के अनुसार देश में करीब 1500 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ऐसे हैं, जिसमें एक भी डॉक्टर नहीं है, जबकि 1500 ऐसे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं, जिनमें सिर्फ एक डॉक्टर है। स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के स्रोतों के अनुसार (2017) भारत में मौज़ूदा शिशु मृत्यु दर 33 प्रति हज़ार है, जो कि 2014 में 39 थी। इस दौरान शिशु मृत्यु दर में 15.4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गयी। मध्य प्रदेश में शिशु मृत्युदर 47 है, जो कि देश में सबसे अधिक है। वहीं असम में मृत्यु दर 44 और उत्तर प्रदेश में 41 है। अरुणाचल, त्रिपुरा व मणिपुर ऐसे राज्य हैं, जहाँ शिशु मृत्यु दर कम होने की बजाय बढ़ी है। अरुणाचल में 2014 में 30 थी, जो कि 2017 में 42 पर आ गयी, त्रिपुरा में 21 से 29 तक पहुँच गयी और मणिपुर में 11 से 12 हो गयी। भारत सरकार व राज्य सरकारों की चिन्ता बच्चों की ऐसी मौतों से बचाना है, जिनकी रोकथाम सम्भव है। इसके लिए अधिक संवेदनशीलता, तंत्र की खामियों को दूर करने के साथ-साथ बजट बढ़ाने की भी ज़रूरत है।