अनहोनी के डर से बोकारो के एक मन्दिर में ख़ुद प्रवेश नहीं करतीं महिलाएँ
केरल के सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को लेकर मामला सर्वोच्च न्यायालय तक पहुँचा। न्यायालय ने महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दे दी। देश में केवल सबरीमाला मन्दिर में ही महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी नहीं है, बल्कि ऐसे कई मन्दिर हैं, जहाँ महिलाओं को मन्दिरों में नहीं जाने दिया जाता। इससे इतर देश में कुछ ऐसे भी मन्दिर हैं, जहाँ मन्दिरों या समाज की तरफ़ से महिलाओं के प्रवेश पर रोक नहीं है। लेकिन वहाँ मान्यता की वजह से वे ख़ुद ही मन्दिरों में प्रवेश नहीं करतीं। ऐसा ही एक मन्दिर झारखण्ड के बोकारो ज़िले के कसमार प्रखण्ड में है। यहाँ के मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर कोई पाबंदी नहीं है; लेकिन महिलाएँ ख़ुद ही मन्दिर के अन्दर नहीं जातीं। यह प्रथा सैकड़ों वर्षों से चली आ रही है और आज 21वीं सदी में भी बनी हुई है, जो कि महिलाओं की समानता पर भारी है।
लिंग भेद कहाँ-कहाँ?
देश के संविधान में हर क्षेत्र में समानता का अधिकार सभी को है। लेकिन अगर धर्मों की बात करें, तो महिलाओं से कई जगहों पर भेदभाव देखने को मिलता है। मसलन इस्लाम धर्म में महिलाओं को मस्जिद में प्रवेश का अधिकार नहीं है। सनातन धर्म में कई मन्दिरों में उन्हें प्रवेश की अनुमति नहीं दी गयी है। संविधान इस पर कोई पाबंदी नहीं लगाता; लेकिन धार्मिक मामलों में क़ानूनी रूप से कोई हस्तक्षेप भी नहीं करना चाहता। भारत में कई ऐसे मन्दिर हैं, जहाँ प्रवेश को लेकर लिंग भेद किया जाता है।
केरल के सबरीमाला का मामला इसी के चलते जब सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा, तो पूरे देश में चर्चा का विषय बना। इसी तरह केरल के पद्मनाभस्वामी मन्दिर के कक्ष में महिलाएँ प्रवेश नहीं कर सकतीं। इसी तरह राजस्थान के पुष्कर में स्थित कार्तिकेय मन्दिर में, छत्तीसगढ़ के बालौदाबाज़ार ज़िले में माता मावली मन्दिर में, मध्य प्रदेश के गुना में स्थित जैन मन्दिर में, हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर के बाबा बालक नाथ मन्दिर में, उत्तराखण्ड के फ्यूंलानारायण मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक है। हालाँकि सावन में जब फ्यूंलानारायण मन्दिर के पट (द्वार) खुलते हैं, तो भगवान नारायण का शृंगार पुजारी के साथ एक महिला करती है; लेकिन इसके बाद मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगा दी जाती है।
चंडी मन्दिर में प्रवेश क्यों नहीं?
झारखण्ड के बोकारो ज़िले से 40 किमी दूर कसमार में मंगला चंडी देवी मन्दिर है। यहाँ हर मंगलवार को देवी की पूजा होती है। यहाँ आसपास के लोगों के साथ प्रदेश के अन्य हिस्सों से सैकड़ों श्रद्धालु पहुँचते हैं। यहाँ एक बरगद का पेड़ है, जिसके नीचे वृक्ष और माँ चंडी की पूजा की जाती है। यह सैकड़ों साल पुराना है। पेड़ के नीचे के पूजा स्थल को एक चबूतरे से घेरने के अलावा अन्य कोई निर्माण नहीं किया गया है। स्थानीय लोग बताते हैं कि यहाँ के पुजारी को स्वप्न आया था कि पूजा स्थल पर कोई मन्दिर निर्माण नहीं हो। मन्दिर का निर्माण पेड़ के नीचे बने पूजा स्थल से कुछ दूरी पर हो। लिहाज़ा पूजा स्थल से कुछ दूरी पर एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराया गया। कहा जाता है कि मंगला चंडी देवी से लोग जो मन्नत माँगते हैं, वह पूरी होती है। इसकी ख्याति दूर-दराज़ के इलाक़ों तक पहुँची और धीरे-धीरे झारखण्ड के अन्य ज़िलों समेत अन्य प्रदेशों से भी श्रद्धालु यहाँ पहुँचने लगे। इसे आकर्षक बनाने के लिए में पूजा स्थल से मुख्य सडक़ को जोडऩे वाली सडक़ पर तोरण द्वार का निर्माण कराया गया।
मंगला चंडी देवी को जीती-जागती देवियों (महिलाओं) ने आज तक नहीं देखा है। दरअसल वे मन्दिर परिसर में नहीं करतीं, बल्कि उससे 100 फुट दूर रहती हैं। महिलाओं के लिए यह लक्ष्मण रेखा है। मान्यता है कि अगर उन्होंने इसे पार किया यानी देवी के दर्शन किये या पूजा की, तो अपशकुन होगा। इसी डर से वे 100 फुट दूर पूजा का थाल लेकर रुक जाती हैं और वहाँ पुजारी आकर उनसे चढ़ावा (प्रसाद, फूल-पत्ती आदि) लेकर मन्दिर में जाते हैं और मन्दिर में चढ़ाकर प्रसाद (चढ़ायी गयी सामग्री) उन्हें वापस कर जाते हैं। पूजा सामग्री लेकर इस सीमा में आने के लिए भी महिलाओं के लिए दोपहर 12 बजे तक का ही समय निर्धारित है। इसके बाद वे यहाँ तक भी नहीं आ सकतीं। इसके बाद विशेष पूजा-अर्चना और बलि क्रिया शुरू हो जाती है। लिहाज़ा अनहोनी की मान्यता के कारण इस समय सीमा के बाद परिसर के आसपास भी महिलाएँ नहीं जातीं। महिलाएँ न तो बलि होते देख सकती हैं और न ही बलि का प्रसाद (मांस) ग्रहण कर सकती हैं। इसे केवल पुरुष ही ग्रहण करते हैं।
गाँव के लोग और पुजारी की मानें, तो महिलाओं के मन्दिर परिसर में प्रवेश पर रोक नहीं है। लेकिन पिछले 100 वर्षों की मान्यता के मुताबिक, महिलाएँ अगर मन्दिर आएँगी, तो उनके साथ कोई अनहोनी हो जाएगी। गाँव के लोग बताते हैं कि वर्षों पहले एक महिला ने इस मान्यता को तोड़ा था। वह पागल हो गयी। चूँकि यह घटना वर्षों पहले की है, इसलिए महिला या उसके परिवार के बारे में कोई जानकारी नहीं दे पाया। क्योंकि यह मान्यता वर्षों से है और लोग चर्चित है, इसलिए इसे तोडऩे का साहस कोई नहीं कर पाता। जो बुज़ुर्ग हैं, उन्होंने भी महिलाओं को न ही प्रवेश करते देखा-सुना नहीं है। इसलिए सटीक रूप से यह कहना कि महिलाओं के प्रवेश पर अनहोनी हो जाएगी, किसी ठोस प्रमाण का बाइस (गारंटी) नहीं है। लेकिन जो बातें वर्षों से सुनी जा रही हैं और मान्यता के रूप में सर्व स्वीकार्य हैं, उनकी बंदिश आस्था के चलते इतनी मज़बूत लगती है कि कोई उसे डर से तोडऩे का साहस नहीं जुटा पाता।
मंगला चंडी देवी मन्दिर में प्रशानिक स्तर पर या पुजारियों द्वारा महिलाओं के प्रवेश पर किसी तरह की रोक नहीं है। अगर वे मन्दिर जाना चाहें, तो जा सकती हैं। पर मान्यता की वजह से महिलाएँ ख़ुद ही मन्दिर तक नहीं जातीं। इस मान्यता को केवल गाँव के लोग ही नहीं, राज्य के अन्य ज़िलों या दूसरे राज्यों से आने वाले भी मानते हैं। मान्यता सही है या ग़लत इसे साबित करने के लिए उसे कोई भी तोडऩे का साहस नहीं कर पाता है।
अनुराधा चौबे
मुखिया, कसमार
मंगला चंडी देवी मन्दिर में महिलाएँ प्रवेश नहीं करती हैं। यह मान्यता वर्षों से चली आ रही है। यहाँ केवल मंगलवार को पूजा होती है। हाल के दिनों में गाँव के किसी भी महिला को प्रवेश करते नहीं देखा-सुना है। बाहर से आने वाले लोग भी इस मान्यता को मानते हैं। आधुनिक समय में इसे अन्धविश्वास या मान्यता जो कहें; लेकिन इसमें सबका इतना विश्वास है कि इस विश्वास को तोडऩे का साहस कोई भी नहीं कर पाता है।
शेखर शरदेंदु
ग्रामीण, कसमार