बार काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा पारित एक प्रस्ताव में सर्वोच्च न्यायालय से समान-लिंग विवाह के लिए क़ानूनी मान्यता प्राप्त करने वाली याचिकाओं पर निर्णय लेने से बचने का आग्रह किया गया है, जिसमें कहा गया है कि ऐसे मामलों से निपटना विधायिका की ज़िम्मेदारी है। संकल्प का दावा है कि देश के 99.9 फ़ीसद से अधिक लोग ‘समान सेक्स विवाह के विचार’ के विरोध में हैं।
हालाँकि इसके विपरीत विचार यह है कि समान-लिंग विवाह को वैध करके भारत उन 30-विषम देशों में शामिल हो सकता है, जो इसे अनुमति देते हैं, और एशिया में नेतृत्व कर सकते हैं; जहाँ केवल ताइवान ने इसे वैध बनाया है। वास्तव में रुत्रक्चञ्जक्तढ्ढ्र+ (अर्थात लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर, क्वीर/और क्वेस्चनिंग, इंटरसेक्स, असेक्सुअल, टू-स्पिरिट) समुदाय सर्वोच्च न्यायालय से इस पर एक निश्चित निर्देश की तलाश करेगा।
इससे पहले केंद्र ने सुनवाई के दौरान कहा था कि न्यायालय के समक्ष याचिकाएँ सामाजिक स्वीकृति के उद्देश्य से शहरी अभिजात्य विचारों को दर्शाती हैं। केंद्र ने अपनी अर्ज़ी में कहा- ‘समान लिंग विवाह के अधिकार को मान्यता देने के न्यायालय के एक निर्णय का मतलब क़ानून की एक पूरी शाखा का एक आभासी न्यायिक पुनर्लेखन होगा। न्यायालय को इस तरह के सर्वव्यापी आदेश पारित करने से बचना चाहिए। इसका अधिकार विधायिका को है। इन क़ानूनों की मौलिक सामाजिक उत्पत्ति को देखते हुए इनके वैध होने के लिए किसी भी बदलाव को निचले स्तर से ऊपर आना होगा और क़ानून के माध्यम से एक बदलाव को न्यायिक व्यवस्था पत्र से मजबूर नहीं किया जा सकता है और परिवर्तन का सबसे अच्छा न्यायाधीश स्वयं विधायिका है।’
आवेदन में आगे कहा गया है कि ‘चुने हुए प्रतिनिधियों के लिए पूरी तरह से आरक्षित विधायी शक्तियों पर कोई भी अतिक्रमण शक्तियों के पृथक्करण के सुस्थापित सिद्धांतों के ख़िलाफ़ होगा, जिसे संविधान की मूल संरचना का एक हिस्सा माना जाता है। शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा से इस तरह का कोई भी विचलन संवैधानिक नैतिकता के विपरीत होगा।’
केंद्र की याचिका के बाद बार काउंसिल ऑफ इंडिया का एक प्रस्ताव आया, जिसमें कहा गया है कि ‘समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने का मुद्दा बार के लिए गम्भीर चिन्ता का विषय है और ऐसे संवेदनशील मामले में शीर्ष न्यायालय का कोई भी फ़ैसला आने वाले दिनों में देश के सामाजिक ढाँचे को अस्थिर कर सकता है। संकल्प न्यायालय से आग्रह करता है कि वह समलैंगिक विवाह को मान्यता देने के सवाल को विधायिका पर छोड़ दे; क्योंकि यह देश के लोगों के सामाजिक विवेक और जनादेश के अनुसार उचित निर्णय पर पहुँच सकता है।’
समलैंगिक शादियों को क़ानूनी मान्यता देने की माँग वाली 15 याचिकाओं को सुप्रीम कोर्ट ने साथ जोड़ दिया है। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी.एस. नरसिम्हा और जे.बी. पार्दीवाला की पीठ ने केंद्र से सभी याचिकाओं पर अपना जवाब दाख़िल करने को कहा। याचिकाकर्ता समान-लिंग विवाह को वैध बनाने के लिए एक आधिकारिक निर्णय की तलाश कर रहे हैं, विशेष रूप से इस सवाल पर कि क्या इसे 1954 के विशेष विवाह अधिनियम के दायरे में लाया जाएगा, जो उन जोड़ों के लिए नागरिक विवाह की अनुमति देता है, जो अपने व्यक्तिगत क़ानून के तहत शादी नहीं कर सकते।
याचिकाकर्ताओं का तर्क है कि समुदाय को विषमलैंगिक जोड़ों के समान अधिकारों से वंचित करना संविधान के अनुच्छेद-14, 19 और 21 और मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के अनुच्छेद 16 सहित जीवन और स्वतंत्रता पर मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, जिसका भारत एक हस्ताक्षरकर्ता है।
शीर्ष न्यायालय को पहले केंद्र और अब बार काउंसिल ऑफ इंडिया की प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ेगा, जिसने यह कहते हुए कि न्यायिक हस्तक्षेप व्यक्तिगत क़ानूनों के नाज़ुक संतुलन के साथ पूर्ण विनाश का कारण बनेगा, समान-लिंग विवाह का विरोध किया है।