शिवेंद्र राणा
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष समलैंगिक विवाह की क़ानूनी मान्यता का प्रश्न मौज़ूद है। इन दिनों यह राष्ट्रीय विमर्श का एक आवश्यक भाग बन चुका है। पहले इस मुद्दे की विवेचना के मूल को समझते हैं। धारा-377 में ग़ैर-प्रजनन यौन कृत्यों अर्थात् अप्राकृतिक यौन सम्बन्धों को अपराध मानते हुए दण्डनीय माना गया है। इस धारा को एलजीबीटी समुदाय अपने प्रति अन्याय समझता है।
नाज़ फाउंडेशन ने वर्ष 2001 में दिल्ली उच्च न्यायालय से धारा-377 को ग़ैर-संवैधानिक घोषित करने की माँग की थी। इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय के बाद समलैंगिक समुदाय को राहत तो मिली। लेकिन दिसंबर, 2013 में सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज़ फाउंडेशन मामले में उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को पलटते हुए पुन: धारा-377 को मूल स्वरूप में प्रतिष्ठित कर दिया। यह द्वंद्व अभी था ही कि इसी मामले की अगली प्रक्रिया के अंतर्गत पिछले माह समलैंगिक विवाह को क़ानूनी अनुमति देने के मुद्दे पर भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में गठित पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 10 दिन की सुनवाई के पश्चात् अपना निर्णय सुरक्षित रख लिया है।
सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार का पक्ष था कि सम्भव है इसे क़ानूनी मान्यता देने वाली न्यायपालिका की कोई संवैधानिक घोषणा सही कार्रवाई न हो। क्योंकि अदालत इसके परिणाम का अनुमान लगाने, परिकल्पना करने, समझने और इससे निपटने में सक्षम नहीं होगी। केंद्र सरकार के अनुसार, समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर सात राज्यों से जवाब प्राप्त हुए हैं, जिनमें असम राजस्थान तथा आंध्र प्रदेश की सरकारों इसे क़ानूनी मान्यता देने का विरोध किया है। जबकि उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर और सिक्किम ने इस विषय को संवेदनशील मानते हुए व्यापक विमर्श की बात कही है। ऊपर से आंध्र से लेकर राजस्थान तक के विभिन्न धर्म-सम्प्रदायों के प्रमुखों ने अपनी धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप आपत्ति दर्ज करायी है।
भारतीय समाज अभी भी बुद्धत्व की प्रक्रिया के अंतर्गत ऐसे विषयों को अव्यक्तानी मानकर ही चल रहा है। परन्तु न्यायपालिका इस विषय पर अतिसक्रिय है। उसने पहले तो तीसरे लिंग को मान्यता दी, फिर लैंगिक अभिरुचि को निजता का मामला बताते हुए मूल अधिकारों की श्रेणी में ला दिया। पुन: समलैंगिकता को आपराधिक एवं अवैध सम्बन्धों की श्रेणी से मुक्त किया। अब वह समलैंगिक विवाहों को क़ानूनी मान्यता देने की ओर अग्रसर है। अदालती संघर्ष की अपनी व्याख्या होगी। अपना प्रभाव होगा। किन्तु मुख्य प्रश्न यह है कि क्या क़ानूनी लड़ाई और उग्र, भौंडे प्रदर्शनों से समलैंगिक समाज एवं उनका समर्थक वर्ग इसे सामाजिक सहमति दिलवा पाएगा? हो सकता है कि न्यायालय उन्हें क़ानूनी मान्यता प्रदान कर दे। हो सकता है कि इससे समलैंगिक समाज स्वयं को उन्मुक्त एवं स्वतंत्र अनुभव करे। लेकिन इस वर्ग की समस्या की क्या इसी परिधि में सुलझ जाएगी?
इसके दूसरे पहलू देखें- अब तक इस बात के प्रमाण मिलना दुष्कर हैं कि भारत में समलैंगिक वर्ग के लोग लगातार क़ानूनी रूप से प्रताडि़त किये जा रहें हों। तक़रीबन डेढ़ सौ वर्षों पूर्व लॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता वाले विधि आयोग के सौजन्य से प्रवर्तित इस क़ानून के तहत अब तक सम्भवत: कुल छ: या सात मुक़दमे दर्ज हुए हैं, जिनमें मात्र सन् 35 में एक व्यक्ति को सज़ा मिली है। इसका सामान्य अर्थ है कि न तो यह क़ानून कभी सख़्ती से लागू हुआ है और न ही इसकी आड़ में किसी चयनित वर्ग का प्रताडि़त किया गया है। अत: इससे सम्बन्धित क़ानूनी उत्पीडऩ की शिकायत वाजिब तो नहीं मानी जा सकती। इसका तात्पर्य है कि समलैंगिक समाज का संत्रास क़ानूनी नहीं, बल्कि सांस्कृतिक एवं सामाजिक है।
अब प्रश्न पुनश्च वही है कि क्या अदालती निर्णय सांस्कृतिक धारणाएँ एवं सामाजिक मान्यताएँ परिवर्तित करने में सक्षम हैं? यदि ऐसा है, तो शारदा एक्ट (1929) के प्रभाव में आने के बाद बाल विवाह एकदम से ख़त्म हो जाने चाहिए थे। लेकिन ऐसा तो नहीं हुआ। बाल विवाह कमोबेश आज भी व्यवहार में हैं। यदि संवैधानिक नियम ही समाज को त्वरित रूप से मर्यादित करने में सक्षम होते, तो संविधान के अनुच्छेद-17 के प्रवर्तित होने के साथ ही समाज को छुआछूत मुक्त हो जाना चाहिए था; लेकिन वह अब भी विद्यमान है। यदि क़ानून ही बदलाव के संवाहक बन सकते, तो मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम-2019 के प्रभावी होते ही इस्लामिक समाज तलाक़-ए-बिद्दत (तीन तलाक़) के दुर्गुण से मुक्त हो जाना चाहिए था; लेकिन यह समस्या तो जस-की-तस है।
समाज के किसी भी वर्ग की निजी रुचि चाहे, वह उसकी यौन अभिरुचि ही क्यों न हो; उसके आधार पर भेदभाव अथवा प्रताडऩा को मर्यादित एवं मानवीयता नहीं माना जा सकता। भारत समेत दुनिया भर समलैंगिक या परालैंगिक हमेशा से मौज़ूद रहें हैं। तात्पर्य यह कि निजी लैंगिक रुचि की एक मर्यादा हमेशा से समाज में मौज़ूद रही है। परन्तु पूर्व में धारा-377 को असंवैधानिक घोषित किये जाने के अदालती निर्णय पर आक्रामक अभिव्यक्तियों की आवश्यकता नहीं थी। ये अभिव्यक्तियाँ अनावश्यक-अवैधानिक उकसावे की क्रिया ही अधिक प्रतीत हुईं, जिसमें समाज के बहुसंख्यक वर्ग को प्रतिक्रिया के उत्तेजित करने का प्रयास किया जा रहा हो। समलैंगिकता को आक्रामकता के साथ सामाजिक रूप से प्रतिष्ठित करने का प्रयास वैचारिक अतिवादी या जागरूकता का विकृत स्वरूप ही माना जाएगा।
समलैंगिकता के सामाजिक स्वीकृति की ज़िद पश्चिमी अतिवादिता से प्रेरित है। यह संघर्ष एक ऐसे उन्नत आधुनिक समाज के अंतद्र्वंद्व की उपज है, जो सामाजिक असमानता, स्वास्थ्य के अधिकार, गरिमापूर्ण जीवन के अधिकार जैसे कई मूलभूत पहलुओं से गुज़रकर भौतिकता और उपभोगवाद से लगभग तृप्त हो चुका है। इस अवस्था तक पहुँचने में उसने अपने संवेदनाओं के दृश्य इतने दूषित कर रखे हैं कि अब उसे इसे जीवित करने के लिए नित नये उपायों की तलाश है। यह वास्तव में उसी पश्चिमी विकास का परिचायक है, जहाँ परिवार के ध्वंस पर आधुनिकता की समाज खड़ी की जाए। अत: ऐसे समाज की समलैंगिकता की सामाजिक स्वीकृति की लड़ाई को फिर भी समझा जा सकता है; लेकिन शिक्षा, स्वास्थ्य, सामाजिक वंचना, आर्थिक विषमता जैसे जीवन के आधारभूत तत्त्वों को समाज में सर्वव्यापी बनाने एवं सँजोने में लगे एक राष्ट्र के लिए क्या समलैंगिकता की क़ानूनी सिद्धि ही मुख्य विषय है?
सम्भवत: ईसाईवाद एवं चर्च का कड़ा रुख़ भी पश्चिमी जगत में इस प्रतिरोध का एक कारण रहा हो। किन्तु भारत के किसी भी धर्म-शास्त्र, स्मृति या मतवाद में समलैंगिकता को दण्डनीय या वर्जित करने के विशेष उल्लेख नहीं है। इसका अर्थ है कि इसे मानव सहजीवन या निजी रुचि का विषय समझकर अनदेखा किया गया होगा। साथ ही इसके आधार पर प्राचीन या मध्ययुगीन समाज में लक्षित उत्पीडऩ के भी प्रमाण नहीं मिलते। समलैंगिकता को किसी भी समाज में सहवास की सहज प्रक्रिया नहीं माना गया है। यह घातक यौन रोगों का भी बड़ा कारक है। समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता देने का सबसे ख़राब प्रभाव भारत के सामाजिक ढाँचे पर पड़ेगा। कैसे? आइए, इसे आँकड़ों से समझते हैं- सर्वोच्च न्यायालय में समलैंगिक विवाह को क़ानूनी मान्यता सम्बन्धित सुनवाई के दौरान पुणे की संस्था- दृष्टि स्त्री अध्ययन प्रबोधन केंद्र ने देश भर में 13 भाषाओं को बोलने वाले विभिन्न जाति-धर्मों के 57,614 लोगों के बीच इस विषय पर एक सर्वे कराया। सर्वे में शामिल 83.9 फ़ीसदी लोगों ने समलैंगिक विवाह का विरोध किया। उन्होंने इसे प्राकृतिक और सामाजिक व्यवस्था के विरुद्ध माना, जिसके कारण अगले कुछ दशकों में पूरा सामाजिक ढाँचा चरमरा जाएगा। लोगों का मानना था कि इसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव महिलाओं और बच्चों पर होगा।
एलजीबीटीक्यू समुदाय के साथ ही न्यायपालिका को समझना होगा कि क़ानून समाज का नेतृत्वकर्ता नहीं, बल्कि अनुगामी ही हो सकता है। इन्हें समझना होगा कि अदालतों के आदेश और संवैधानिक अध्यादेशों से सांस्कृतिक मान्यताएँ और सामाजिक पूर्वाग्रह नहीं बदलते। क़ानून के ज़रिये समाज को निर्देशित ज़रूर किया जा सकता, किन्तु परिवर्तित नहीं। न्यायपालिका के आदेशों के ज़रिये एलजीबीटीक्यू समुदाय अपने लिए सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित कर लेगा, यह केवल एक भ्रम है। सम्भव है कि उसकी निरंतर कोशिशें लम्बे अर्से में फलीभूत होने की सम्भावना पैदा करें। इसी परिपेक्ष्य में भारतीय मीडिया का एक वर्ग, ख़ासकर अंग्रेजी मिडिया समलैंगिकता की क़ानूनी स्वीकृति को ऐसे प्रस्तुत एवं समर्थन दे रहा है; मानो देश में अब यह आधुनिकता एवं विकास का पैमाना हो एवं समलैंगिकता के विरोधी जैसे पुरातनपंथी एवं मध्ययुगीन बर्बरता के प्रतीक हों। इसे वैचारिक विकृति ही कहा जाना चाहिए। दो व्यक्तियों के अपने निजी रुचि पर आधारित लैंगिक चयन एवं सहमति आधारित गोपनीय यौन सम्बन्धों पर समाज को कभी भी आपत्ति नहीं रही हैं। फिर समलैंगिकता आधारित विवाह को क़ानूनी मान्यता की ज़िद समझ पाना कठिन है। इससे कहीं अधिक ज़रूरी था कि ये बुद्धिजीवी वर्ग किन्नरों को मुख्यधारा में शामिल किये जाने को प्राथमिकता देता। अत: अब भी इस विषय पर आधुनिकता के प्रवर्तकों के न्याय की त्वरा, स्वयं की प्रमाणिकता सिद्धि की उत्तेजना और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कुंठित प्रदर्शन का औचित्य समझ पाना कठिन है।
यौन अभिरुचि ज़रूरी हो सकती है। परन्तु यौनिकता का नग्न प्रदर्शन एवं उसकी उन्मुक्तता का प्रसार सहज नहीं हो सकता। मान लेते हैं कि हर व्यक्ति को उसकी निजी लैंगिक अभिरुचि के आधार पर जीने का अधिकार होना चाहिए। ऐसे में क्या हो यदि भविष्य में कोई व्यक्ति किसी जानवर के साथ सहवास या विवाह को क़ानूनी मान्यता देने की माँग करे? यौन इच्छा की पूर्ति की मानवीय गरिमा के अनुकूल यदि कोई व्यक्ति स्कूल, कॉलेज, सरकारी द$फ्तरों या सडक़ पर सहमति के साथ सार्वजनिक आधार पर अपने साथी के सहवास का अधिकार माँगे, तो क्या इसकी इजाज़त दी जानी चाहिए? क्या किसी भी समाज में अधिकारों का वितरण स्वेच्छाचारिता के आधार पर किया जाना चाहिए? निजता के अधिकार एवं स्वतंत्रता के मुखर अलम्बदारों को भविष्य की दृष्टि से ऐसे प्रश्नों के उत्तर तलाश ही लेने चाहिए।
पश्चिम में लैंगिक मतवादिता भी वर्तमान दौर में अतिवाद की ओर अग्रसर है। यहाँ तर्कों के अजीब भँवर हैं। कुछ लोगों की माँग है कि स्त्री, पुरुषों के लिए अलग-अलग शौचालय नहीं होने चाहिए। महिलाओं की खेल प्रतियोगिता में पारलैंगिक पुरुषों के शामिल होने की आज़ादी हो साथ में स्कूलों में लैंगिक पहचान को निजी मामला सिद्ध करने का प्रयास किया जा रहा है। देर-सवेर आधुनिकता का ये कुचक्र भारत तक भी पहुँचेगा। परन्तु भारतीय समाज को सचेत होना पड़ेगा। पश्चिमी उन्मुक्तता की विद्रूपता से प्रेरित आधुनिकता और मानवीय स्वतंत्रता की अतिवादिता के ये अनर्गल सन्दर्भ कहीं तो रुकने चाहिए।
(लेखक पत्रकार हैं और ये उनके अपने विचार हैं।)