[wzslider autoplay=”true” transition=”‘slide'” info=”true” lightbox=”true”]
मार्च के दूसरे हफ्ते खबर आई कि बिहार के मुख्यमंत्री और जदयू के मुखिया नीतीश कुमार ने प्रधानमंत्री पद के लिए खुद को अन्य उम्मीदवारों के मुकाबले ज्यादा योग्य बताया है. एक समाचार चैनल से बात करते हुए और इशारों में भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए उनका कहना था, ‘जितने लोग घूम रहे हैं उनको अगर मेरे जितना एक्सपीरिएंस हो तो बता दीजिए. एक दिन भी पार्लियामेंट का तजुर्बा है? आप संसद का नेतृत्व करना चाह रहे हैं.’
नीतीश की अगुवाई में ही पुराना जनता दल परिवार एक नए मोर्चे के साथ उतरने की तैयारी में है. फेडरल फ्रंट के नाम से बन रहे इस मोर्चे में जदयू के साथ समाजवादी पार्टी और जनता दल (सेकुलर) के प्रमुख भूमिका निभाने की बातें हो रही हैं. बीती फरवरी में सहरसा में एक रैली में नीतीश का कहना भी था, ‘देश का प्रधानमंत्री वही हो सकता है जो सभी धर्म, जाति, वर्ग के लोगों को साथ लेकर चल सके. देश में फेडरल फ्रंट आकार ले रहा है. यही फ्रंट सरकार बनाएगा.’
इससे एक दिलचस्प सवाल उठता है. राजनीति में जो राष्ट्रीय संभावनाएं नीतीश कुमार में थीं या हैं या राष्ट्रीय राजनीति में जो उनकी महत्वाकांक्षाएं रही हैं, इस बार के लोकसभा चुनाव में उनका पटाक्षेप हो जाएगा? या पल-पल बदल रहे सियासी समीकरण उनके लिए संभावनाओं के नए द्वार खोल रहे हैं?
नीतीश के पुराने साथियों में से एक और इन दिनों राष्ट्रीय जनता दल के नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘पहले तो आप सवाल में जरा सुधार कर लें. नीतीश कुमार की राजनीति में कभी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा नहीं रही है. राष्ट्रीय चेतना या राष्ट्र का क्या नक्शा होता है, वे अब तक तो यही नहीं समझ पाए हैं तो राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा उनकी क्या रहेगी? उनके लिए राजनीति में उनकी निजी आकांक्षा-महत्वाकांक्षा ही सर्वोपरि रही है.’ विधान परिषद के सदस्य रहे मणि आगे कहते हैं, ‘पटेल, नरेंद्र मोदी जैसे कई नेता हुए हैं, जिनसे सहमत-असहमत हुआ जा सकता है. लेकिन वे क्षेत्र और प्रांत की राजनीति से होते हुए आगे आए और तब उन्होंने राष्ट्रीय फलक पर अपार विस्तार किया. लेकिन नीतीश कुमार राजनीति में उलटी दिशा के राहगीर बने. केंद्रीय स्तर पर कई बार मंत्री बनने के बाद वे खुद में राष्ट्रीय राजनीति के तत्व नहीं पनपा सके. और अंत में जब उन्हें बिहार की सत्ता मिली तो प्रांतीय और स्थानीय राजनीति को ही मुख्य आधार बनाकर और उसका ही विस्तार करके किसी तरह सत्ता समीकरण साधने में ऊर्जा लगाने में लगे रहे, जो अब भी जारी है.’ मणि कहते हैं, ‘नीतीश कुमार अक्सर बातचीत में कहा करते थे कि जिन क्षेत्रीय नेताओं ने प्रधानमंत्री का सपना देखना शुरू किया उनका राजनीति में डाउनफाल भी शुरू हो जाता है इसलिए वे पीएम का सपना नहीं देखेंगे. लेकिन अब उनके कुछ साथियों ने फिर से उन्हें भ्रमजाल में फंसा दिया है कि वे पीएम बन सकते हैं तो रह-रहकर वे अपनी रणनीति बदलते रहते हैं.’
मणि के बाद शिवानंद तिवारी से बात होती है जो ताजा-ताजा जदयू और नीतीश के दुश्मन हुए हैं. वे नीतीश के संकटमोचक और हनुमान तक कहे और माने जाते थे. तिवारी से भी हम वही सवाल करते हैं. वे कहते हैं, ‘दो-तीन साल पहले तक देश के कई बौद्धिक लोग जिस तरह से नीतीश कुमार का नाम पीएम पद के लिए बार-बार उछाल रहे थे, क्या अब भी वैसा है? क्या हालिया दिनों में किसी ने नीतीश को करिश्माई व्यक्तित्व वाला नेता कहा है?’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘अब अपनी राजनीति के बारे में सर्टिफिकेट या तो नीतीश कुमार खुद देते हैं या उनके चंगू-मंगू, जबकि दो-तीन साल पहले स्थिति ऐसी नहीं थी. 2010 में जब नीतीश कुमार ने विधानसभा चुनाव के पहले भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को दिए भोज को रदद कर दिया था और गुजरात से मिली बाढ़ सहायता की राशि भी लौटा दी थी तब से ही इनकी राजनीति का डाउनफाल शुरू हुआ. राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें अगंभीर नेता की तरह देखा जाने लगा. सत्ता बचाए रखने के लिए वे अति महत्वाकांक्षी नेता के तौर पर स्थापित होते गए.’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘अगर भाजपा के नेताओं के साथ भोज रद्द कर दिया था तो फिर आगे भाजपा के साथ बने रहने का कोई मतलब नहीं था. उसी समय भाजपा से अलग हुए होते तो बिहार में भाजपा एक मामूली पार्टी होती.’ लेकिन नीतीश कुमार ऐसा नहीं कर सके. भाजपा से अलगाव के बाद वे कांग्रेस का गुणगान करने लगे. कांग्रेस सियासत को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होती नहीं दिखी तो फेडरल फ्रंट की कवायद में लग गए. तिवारी कहते हैं, ‘खुद ही सोचकर बताइए कि क्या इस तरह उछल-कूद करने वाले नेता को कभी राष्ट्रीय राजनीति में गंभीर तरीके से लिया जा सकता है?’
प्रेम कुमार मणि या शिवानंद तिवारी इन दिनों नीतीश से दूर हैं, इसलिए कुछ लोग कह सकते हैं कि विरोध में आ गए तो बातें भी वैसी ही कर रहे हैं. लेकिन ये दोनों नेता नीतीश के साथ रहते हुए भी उनको खरी-खोटी सुनाने के लिए जाने जाते रहे हैं. नीतीश कुमार की राजनीति को लेकर ऐसे सवाल जदयू के कई नेताओं के मन में भी हैं, लेकिन कोई खुलकर बोल नहीं पाता. सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि लोकसभा चुनाव करीब आने के बाद भी पार्टी से बिना कोई राय-सलाह किए लगातार इतनी तरह के दांव खेलकर नीतीश क्या जदयू को मजबूत कर रहे हैं. या फिर वे राष्ट्रीय राजनीति में खुद को किसी तरह मजबूत करने के लिए अंधा जुआ खेलते हुए आगे की राह भी खोखली कर रहे हैं?
बिहार में नीतीश कुमार इकलौते नेता हैं और उनकी पार्टी जदयू इकलौती पार्टी है जिसका रुख अब तक साफ नहीं हो सका है कि लोकसभा चुनाव में उसका गणित क्या होगा. लोजपा का निर्णय भला रहा हो या बुरा लेकिन उसने साफ कर दिया कि वह भाजपा के साथ रहेगी. लालू प्रसाद की चाहे जो मजबूरी रही हो लेकिन उनका स्टैंड साफ रहा है कि वे हर हाल में कांग्रेस के साथ बने रहना चाहेंगे. भाजपा ने भी साफ कर दिया है कि उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी और रामविलास पासवान की लोजपा के साथ ही वह लोकसभा चुनाव की वैतरणी पार करेगी. लेकिन जदयू का अब तक कुछ भी स्पष्ट नहीं. प्रदेश में भाकपा और माकपा के साथ उसका तालमेल होगा, यह साफ किया जा चुका है, लेकिन खुद भाकपा-माकपा वाले भी जानते हैं कि आखिरी समय में नीतीश उनका साथ छोड़ सकते हैं. शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘जिस फेडरल फ्रंट की अगुवाई नीतीश कुमार कर रहे हैं, वह टाइम पास अभियान है, उसे वे कभी भी छोड़ सकते हैं, यह सबको पता है.’
फेडरल फ्रंट के कभी भी छोड़ने, कांग्रेस के साथ कभी भी जाने की बातें बिहार के सियासी गलियारे में कोई भी आसानी से कह देता है तो यूं ही नहीं कहता. नीतीश कुमार के बीते 30 साल के राजनीतिक सफर की जानकारी रखने वाले लोग जानते हैं कि वे आसानी से ऐसा करते रहे हैं. नीतीश दांव बदलने मेंे उस्ताद नेता के रूप में देखे जाते रहे हैं और उनके तीन दशकों के राजनीतिक करियर में यह बार-बार देखा जा चुका है कि वे एक रुख पर कभी भी लंबे समय तक कायम नहीं रहते. न ही वे किसी एक मित्र को भरोसेमंद मानकर लंबे समय तक उसके साथ चलते हैं. कभी वे लालू प्रसाद के सिपहसालार माने जाते थे. उनसे अलग हुए तो लालू विरोध का आधार बनाते हुए जार्ज फर्नांडिस के सहयोग से उन्होंने समता पार्टी का गठन किया. समता पार्टी का तालमेल भाकपा माले जैसी घोर वामपंथी पार्टी के साथ हुआ. अक्टूबर, 1994 में समता पार्टी की सात सीटें आईं. नीतीश कुमार ने घोर वामपंथी साथी को छोड़ा और दो साल बाद 1996 में दक्षिणपंथी चरित्र रखने वाली पार्टी भाजपा के साथ जा मिले. 2000 में सात दिन के लिए बिहार की सत्ता में भी आए. भाजपा के साथ बने रहे. 2002 में गुजरात दंगा हुआ. नीतीश कुमार केंद्र में मंत्री थे. लेकिन वे चुप्पी साधे रहे. 2005 में बिहार में फिर विधानसभा चुनाव की बारी आई. नीतीश और भाजपा ने जीत का परचम लहराया. सरकार बनी. 2009 का लोकसभा चुनाव आया. नीतीश के सामने गुजरात दंगे का सवाल आया. उन्होंने कहा कि गुजरात दंगा काठ की हांडी है, एक बार चढ़ाई जा चुकी है, बार-बार नहीं चढ़ाई जा सकती. नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को एक तरीके से क्लीन चिट दी और सरपट आगे बढ़ गए. 40 में से 32 सीटों पर भाजपा-जदयू गठबंधन ने कब्जा जमा लिया. 20 नीतीश की पार्टी के खाते में आईं, 12 भाजपा के खाते में.
लेकिन यह बात 2009 की थी. जानकारों की मानें तो अगले ही साल नीतीश कुमार को यह लगा कि 2010 में प्रदेश की सियासत को साधने के लिए और सत्ता को फिर से प्राप्त करने के लिए कुछ दांव बदलने होंगे. तो उन्होंने भाजपा से दोस्ती जारी रखते हुए नरेंद्र मोदी के विरोध का अभियान शुरू किया. वह अभियान रंग लाया. लालू प्रसाद से छिटककर मुसलमान नीतीश की ओर आ गए. नीतीश फिर से चैंपियन बन गए. 2010 के विधानसभा चुनाव में जब उनकी पार्टी को ठीक-ठाक सीटें मिल गईं तो नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनाव का गणित लगाना शुरू किया और भाजपा से अलगाव के लिए रास्ता तलाशने लगे ताकि सारे पुराने धब्बे दूर हों, राष्ट्रीय राजनीति में उनका महत्व बढ़े और लोकसभा चुनाव आते-आते वे बड़े धर्मनिरपेक्ष नेता के तौर पर उभरें.
एक हद तक वे कामयाब भी रहे. नीतीश, नरेंद्र मोदी को सबसे पहली चुनौती देने वाले नेता के तौर पर उभरे और छा गए. लेकिन वे मोदी की तरह भाजपा को चुनौती नहीं दे सके. नीतीश कुमार आखिरी समय तक नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने से रोकने में लगे रहे. सफल नहीं हुए तो भाजपा से अलग हुए. भाजपा का साथ छोड़ा तो भाकपा और कांग्रेस के सहयोग से राज्य में सरकार बचाने में उन्हें कोई अतिरिक्त कवायद नहीं करनी पड़ी.
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो दरअसल नीतीश की यह खासियत भी रही है कि वे एक साथ दो ध्रुवों की राजनीति साधते रहते हैं. वाम से दक्षिण और दक्षिण से वाम की ओर जानेे में उन्हें महारत रही है. भाजपा से अलगाव के बाद सियासत के गलियारे में उन्होंने जो कहानी लिखनी शुरू की, उसकी अहम परीक्षा अब सामने है. इस अलगाव के बाद नीतीश कुमार और उनकी पार्टी अब तक कोई ठोस रास्ता तय नहीं कर सके हैं. नीतीश जानते हैं कि धर्मनिरपेक्षता का ज्यादा राग उनके लिए नुकसानदाई भी हो सकता है. यही वजह है कि वे सबसे बड़ा दांव विशेष राज्य दर्जे पर लगाना चाहते हैं. इसलिए वे कांग्रेस के प्रति कभी नरम, तो कभी गरम होने की राजनीति लगातार करते रहते हैं. जानकारों के मुताबिक नीतीश मानते हैं कि तमाम बुरे वक्त के बावजूद उनके लिए कांंग्रेस अब भी उम्मीदों वाली पार्टी है, जो भाजपा के अलग होने के बाद उन्हें हुए नुकसान की भरपाई कर सकती है. इसलिए कुछ दिन पहले तक भी स्थिति यह रही कि कांग्रेस अगर विशेष राज्य दर्जे पर सिर्फ आश्वासन भी दे देती तो नीतीश उसके साथ सटकर इस बार का चुनाव पार कर लेना चाह रहे थे. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वे बीच में पासवान की ओर भी टकटकी लगाए रहे, दिल खोलकर उनकी तारीफ करते रहे, कहते रहे कि रामविलास पासवान बहुत ही अच्छे नेता और इंसान हैं. कोशिश थी कि किसी तरह पासवान उनके खेमे में आ जाएं. इसके दो कारण थे. नरेंद्र मोदी का विरोध करने में उन्हें दोगुनी ऊर्जा मिलती. साथ ही महादलितों की राजनीति करने में पासवान जाति जो उनके लिए विरोधी-सी हो गई है और जिसकी आबादी कुल वोटरों की करीब चार प्रतिशत है, उसे भी साधने में सहूलियत होती. लेकिन सत्ता की सियासत में किसी तरह बने रहने के अभ्यस्त रामविलास पासवान उस्ताद निकले. नरेंद्र मोदी का विरोध करते-करते वे खुद ही मोदी के पाले में चले गए. नीतीश कुमार अब कहते हैं कि रामविलास पासवान का राजनीतिक चरित्र शुरू से ऐसा ही रहा है, वे ही ऐसा कर सकते हैं. इस पर लोजपा के प्रवक्ता रोहित सिंह कहते हैं कि नीतीश अब रामविलास पासवान के राजनीतिक चरित्र पर अब उंगली उठा रहे हैं लेकिन कुछ दिन पहले तक तो वे पासवान के साथ जुड़ने के लिए बेचैन से थे.
हालिया दिनों में नीतीश कुमार की राजनीति पर सबसे ज्यादा सवाल तब उठे जब उनकी पार्टी ने सारे नियम-कानूनों को ताक पर रखकर लालू प्रसाद यादव की पार्टी के 13 विधायकों को अपने पाले में करने का खेल किया. अलग गुट के तौर पर राजद के विधायकों को मान्यता देने के लिए कम से कम 15 की संख्या चाहिए थी. लेकिन जदयू नेता व विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी ने 13 को ही मान्यता दे दी. वे 13 भी जदयू के साथ नहीं रह सके. लालू प्रसाद ने खेल बदल दिया. वे नौ को फिर से अपने पाले में लेकर चले आए. लालू प्रसाद को चार विधायकों का नुकसान हुआ लेकिन उससे ज्यादा नुकसान नीतीश कुमार की छवि को हुआ. नीतीश के सिपहसालार व पूर्व राज्यसभा सांसद साबिर अली कहते हैं, ‘हर दल अपनी मजबूती चाहता है. हमारी पार्टी ने किया, क्या गलत किया?’ नीतीश कुमार ने पहले कहा कि उन पर बेजा आरोप मढ़ा जा रहा है, वे कुछ नहीं जानते. इस पर शिवानंद तिवारी का कहना था, ‘नीतीश की ऐसी मासूमियत पर तो कुर्बान हो जाने को जी चाहता है. सभी विधायकों से बात कर वही सेटिंग-गेटिंग किए, अब कह रहे हैं, कुछ नहीं जानते.’ बाद में नीतीश कुमार की ओर से बयान आया, ‘लालू प्रसाद तो जिंदगी भर जोड़-तोड़ ही करते रहे हैं, अब उनको क्यों बुरा लग रहा है?’
प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘नीतीश कुमार अगर ऐसा सोचते हैं कि जो लालू प्रसाद ने किया है, वही वे करेंगे तो फिर यह भी स्वीकार करें कि लालू की तरह ही वे भी सत्ता साधने और सियासत करने के उस्ताद हैं और इसके लिए कुछ भी कर सकते हैं.’
नीतीश कुमार पर ऐसे आरोप इन दिनों लगातार लग रहे हैं. इसका नुकसान उन्हें अगले चुनाव में उठाना पड़ सकता है. अब उनकी पार्टी के कांग्रेस के साथ जाने की संभावना पर बात हो रही है तो जनता दल के कई नेता घबरा भी रहे हैं. एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने तो पेंडुलम की तरह बना दिया है. कभी कहते हैं, कांग्रेस का विरोध करो, कभी इशारा देते हैं, कांग्रेस को पुचकारो. अब लोकसभा चुनाव में एक माह रह गया है, कांग्रेस के साथ गए भी तो जनता को क्या समझाएंगे.’ एक और वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘जैसे रामविलास पासवान ने रातों-रात पलटी मारकर नरेंद्र मोदी का गुणगान शुरू कर दिया, क्या नीतीश कुमार भी वैसे कांग्रेस का गुणगान शुरू करेंगे और अगर ऐसा करेंगे तो क्या जनता हजम कर पाएगी?’
केंद्र की सियासत, राज्य के समीकरण
फिलहाल कई तरह के प्रयोग करके नीतीश कुमार लोकसभा चुनाव में अपनी 20 सीटें बचाए रखने की जुगत में लगे हुए हैं. समानांतर रूप से वे केंद्रीय स्तर पर भी अपनी महत्ता बनाए रखने की कोशिश में लगे हुए हैं. लेकिन सवाल उठता है कि केंद्र में महत्ता बनाए रखने की बात तो बाद में, फिलहाल बिहार में ही जो सियासी समीकरण बने हैं, वे क्या इसकी इजाजत दे रहे लगते हैं. हालिया दिनों में आए चुनावी सर्वेक्षण बता रहे हैं कि नीतीश कुमार की साख तेजी से घटी है और जदयू की सीटों में भारी कमी होने वाली है. लेकिन सर्वेक्षणों को छोड़ भी दें, जिन्हें नीतीश कुमार बुलबुला कहते हैं, तो भी जमीनी हकीकत उनके पक्ष में जाती हुई नहीं दिखती. भाजपा से अलगाव के बाद अपनी ही पार्टी में नीतीश या तो बिल्कुल अकेले पड़ गए नेता के तौर पर दिखे हैं या फिर अकेले ही सारे निर्णय करते हुए नेता के तौर पर. कहने को तो उनकी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हैं लेकिन जदयू में हर कोई जानता है कि पार्टी ‘न खाता- न बही, जो नीतीश कहें, वही सही’ की तर्ज पर चलती है.
अपने इस अकेलेपन की बुनियाद भी नीतीश कुमार ने खुद ही तैयार की है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि पिछले आठ सालों की सत्ता के दौरान उन्होंने बिहार में पार्टी को खड़ा होने का मौका ही नहीं दिया. संगठन के स्तर पर भी दूसरी कतार का कोई ऐसा नेता नहीं पनप सका जो पार्टी की बातों को बिना नीतीश की इजाजत के रख सके. जानकार मानते हैं कि पार्टी का कोई ढांचा नहीं होने की वजह से चुनाव में नीतीश को कई मुश्किलें होंगी. राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव हैं, लेकिन उनके बारे में सब जानते हैं कि या तो वे नीतीश की जुबान बोलने तक का अपना फर्ज निभाते हैं या फिर मौका पाकर नीतीश की हवा निकालने के लिए जुबान खोलते हैं. ऐसा एक बार नहीं, कई बार देखा भी जा चुका है. नीतीश कुमार जब भाजपा से अलगाव के पहले एनडीए पर पीएम पद का उम्मीदवार घोषित करने के लिए दबाव की राजनीति कर रहे थे, तब भी शरद यादव ने उनसे अलग जाते हुए कहा था कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित करने की इतनी हड़बड़ी क्या है. ऐसा कहकर शरद ने नीतीश के मंसूबों पर पानी फेरने वाली राजनीति करने की कोशिश की थी, लेकिन बाद में शरद यादव को अपने ही कहे से पलटना पड़ा था. भाजपा से अलगाव के अगले ही दिन शरद यादव ने एक और बयान देकर नीतीश की हवा निकालने की कोशिश की थी. नीतीश जहां चहुंओर भाजपा से अलगाव को एक मजबूत सियासी कदम बताने के अभियान में लगे हुए थे, वहीं शरद ने यह कहकर सबको चौंका दिया कि अगर आडवाणी के नाम पर भाजपा अब भी विचार करे तो जदयू को फिर से साथ आने में कोई परेशानी नहीं. शरद यादव ही नहीं, जदयू के और कई नेता भी जब तब नीतीश की हवा निकालने की कोशिश में लगे रहे हैं. और नीतीश पार्टी के उन नेताओं का हिसाब-किताब बराबर करने वाले नेता भी माने जाते रहे हैं. अभी हाल ही में जदयू ने पांच सांसदों शिवानंद तिवारी, गोपालगंज के सांसद पूर्णमासी राम, औरंगाबाद के सांसद सुशील कुमार सिंह, झंझारपुर के सांसद मंगनी लाल मंडल और मुजफ्फरपुर के सांसद जयनारायण निषाद को निष्कासित किया. हालांकि इनका निष्कासन तय था, लेकिन ये पांचों ऐसे नेता होने की वजह से जदयू से निष्कासित हुए क्योंकि एक समय में इन्होंने नीतीश का विरोध करने का साहस जुटाया था.
ये तो वे नेता हैं जिन्हें हालिया दिनों में नीतीश ने निष्कासित किया. लेकिन इस कड़ी में कई नेता ऐसे भी हैं जो तेजी से नीतीश कुमार का साथ छोड़कर जा भी रहे हैं. कुछ दिनों पहले उनके मंत्रिमंडल की सदस्य परवीर अमानुल्लाह उनका साथ छोड़कर चली गईं. उन्होंने आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया. परवीन अमानुल्लाह सैयद शहाबुद्दीन की बिटिया हैं. मुसलमानों में उनकी विशेष अपील तो है ही, वे उदार छवि वाली नेता भी मानी जाती हैं. अब वे रोजाना बिहार के मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली पर सवाल उठा रही हैं. कल तक नीतीश कुमार के खासमखास माने जाने वाले देवेश चंद्र ठाकुर भी जदयू को बाय-बाय बोल चुके हैं. लालू के खास रहे रामकृपाल यादव ने बीते दिनों जब राजद छोड़ने के संकेत दिए तो बताया जाता है कि नीतीश ने व्यक्तिगत तौर पर उन्हें अपने पाले में लाने की खूब कोशिश की. लेकिन रामकृपाल ने भाजपा का हाथ थाम लिया.
शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश कुमार किसकी राजनीति साधना चाहते हैं? मुसलमानों की क्या? तो उन्हें याद रखना होगा कि हालिया दिनों में उन्होंने खुद अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारी है. भले ही राजद के दो मुसलमान विधायकों को और लोजपा के इकलौते मुसलमान विधायक को अपने पाले में कर वे दूसरे किस्म का संकेत देना चाह रहे हों, लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी तो है.’ लोजपा से जदयू में साबिर अली इसी उम्मीद में आए थे कि उन्हें राज्यसभा का सीट दे दी जाएगी लेकिन उन्हें राज्यसभा नहीं भेजा गया. आज साबिर अली भले नीतीश के पक्ष में बोल रहे हैं लेकिन उनका स्वर कभी भी बदल सकता है. तिवारी कहते हैं, ‘जदयू से इकलौते अल्पसंख्यक सांसद मोनाजिर हसन हैं जो बेगुसराय के सांसद हैं. लेकिन इन दिनों नीतीश कुमार को कामरेड बनना है तो सिटिंग सीट बेगुसराय को भाकपा को देकर वे इकलौते मुसलमान सांसद मोनाजिर को रुखसत करने में लगे हुए हंै.’
तिवारी ऐसे कई सवाल उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘इस बार नीतीश कुमार को कई सवालों का जवाब देना होगा, उनका भ्रम दूर होगा. मुसलमानों की राजनीति, जिनकी आबादी बिहार में करीब 16 प्रतिशत है, उस पर नीतीश कुमार को जवाब तो देना ही होगा.’
ऐसे कई सियासी समीकरण भी नीतीश के लिए चुनौती की तरह सामने आते जा रहे हैं. लड़ाई सीधे-सीधे भाजपा और जदयू के बीच होने के आसार हैं. दोनों दल 17 साल बाद एक-दूसरे को आजमाएंगे, सो कौन किस पर भारी पड़ेगा, इसका अनुमान लगाने की स्थिति में अभी कोई नहीं है.
भाजपा से टकराने की राह
भाजपा-जदयू ने साथ मिलकर आखिरी चुनाव 2010 में लड़ा था. वह बिहार विधानसभा का चुनाव था. जनता दल यूनाइटेड को कुल 22.61 प्रतिशत वोट मिले थे जो पिछली बार उसे मिले वोट की तुलना में 2.15 प्रतिशत ज्यादा थे. भाजपा को 16.48 प्रतिशत मत मिले थे, जो पिछली बार की तुलना में 0.81 प्रतिशत ज्यादा थे और लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद को 18.84 प्रतिशत मत मिले थे जो पिछली बार की तुलना में 4.61 प्रतिशत कम थे. कुछ विश्लेषक बार-बार यह हवाला देते हैं कि जदयू 141 सीटों पर चुनाव लड़कर 115 सीटों पर जीत हासिल कर सकी थी, लेकिन भाजपा ने 102 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीटों को अपने खाते में किया था. यानी ज्यादा लंबी छलांग भाजपा की रही थी. इसका संदर्भ इतिहास के पन्ने पलटकर समझने की कोशिश करते हैं. 1995 में समता पार्टी का भाकपा माले के साथ गठजोड़ हुआ था. विधानसभा में समता पार्टी की सीटों की संख्या दो अंकों तक भी नहीं पहुंच सकी थी. लेकिन 1996 में केंद्रीय स्तर पर भाजपा से गठजोड़ होने के बाद समता की सीटों में उछाल और उभार का दौर शुरू हुआ. बाद में दो बार विधानसभा चुनाव में खिचखिच होने की वजह से राज्य स्तर पर दोनों दलों में गठजोड़ नहीं हो सका. दोनों को आशानुरूप सफलता भी नहीं मिली. लेकिन जब 2005 में दो बार फरवरी और नवंबर में हुए विधानसभा चुनाव में दोनों ने एक साथ मिलकर लालू का मुकाबला किया तो अभेद्य माने जाने वाले लालू प्रसाद यादव और उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का किला ही ढह गया.
इस पूरी प्रकि्रया में भाजपा की बढ़त गौर करने लायक है. 1990 में भाजपा ने 237 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे. 11.61 प्रतिशत वोट के साथ उसे 39 सीटों पर कामयाबी मिली थी. 1995 में उसे 12.96 प्रतिशत वोट मिले और 41 सीटें उसके खाते में आईं. 2000 में 167 सीटों पर उसके प्रत्याशी उतरे. पार्टी को 14.64 प्रतिशत वोट मिले और 67 सीटों पर सफलता मिली. गौर करें कि यह सब तब हो रहा था जब बिहार-झारखंड एक था और सीटों की संख्या 324 थी. तब यह कहा जाता था कि भाजपा की पकड़ दक्षिण बिहार यानी वर्तमान झारखंड इलाके में ज्यादा है. लेकिन राज्य के बंटवारे के बाद 2005 के अक्टूबर में हुए चुनाव में भी भाजपा ने बिहार में 15.65 प्रतिशत वोट हासिल किए और 55 सीटें जीतीं. 2010 में तो भाजपा ने रिकॉर्ड ही बनाया.
लोकसभा की बात करें तो राज्य की 40 लोकसभा सीटों में आधे यानी 20 पर जदयू का कब्जा है तो 12 सीटों के साथ भाजपा भी मजबूत स्थिति में है. अब दोनों एक-दूसरे से निपटने की तैयारी में हैं. लेकिन मुश्किल यह है कि दोनों दलों में से किसी को भी अभी तक ठीक से नहीं पता कि असल में उनका अपना अलग-अलग कौन सा आधार है, जिसके बारे में वे दावा ठोक सकें कि चाहे कुछ हो जाए, वह हमारा है और रहेगा भी! पिछले 17 साल में यह होता रहा है कि जहां से जदयू चुनाव लड़ती रही है, वहां भाजपा का वोट सीधे जदयू के खाते में आसानी से जाता रहा है और जहां भाजपा लड़ती रही है, वहां जदयू का वोट भाजपा के खाते में. इसीलिए अब भी बिहार के राजनीतिक गलियारे में यह सवाल रहस्य की तरह है कि भाजपा और जदयू में कौन किसकी वजह से मजबूत हुआ है. नीतीश के सामने दूसरी मुश्किलें भी हैं. जैसे चुनौती यह है कि वे एक हद के बाद भाजपा को निशाने पर नहीं ले सकेंगे. अगर सांप्रदायिक पार्टी कहेंगे तो खुद हंसी का पात्र बनेंगे, क्योंकि तब सवाल होगा कि यह दाग तो पुराना है, इतने दिनों तक फिर क्यों साथ रहे. बताते हैं कि भाजपा ने अलग से वीडियो तैयार करवा रखे हैं, जिनमें नीतीश कुमार नरेंद मोदी की तारीफ करते और उन्हें विकास पुरुष कहने के साथ ही यह कहते हुए दिखाई पड़ते हैं कि नरेंद्र भाई मोदी की जरूरत देश को है. नीतीश कुमार या उनकी पार्टी भाजपा को विकास विरोधी पार्टी भी कह सकने की स्थिति में नहीं होगी, क्योंकि कम से कम बिहार में अच्छाइयों या बुराइयों के लिए दोनों की भूमिका समान रूप से रही है. भाजपा में सवर्ण नेताओं की बहुतायत है तो क्या नीतीश कुमार भाजपा को सवर्णों की पार्टी कहने का जोखिम ले सकेंगे? शायद नहीं, क्योंकि उनके खुद के दल में न सिर्फ सवर्ण नेताओं की भरमार है बल्कि वे प्रभावी स्थिति में भी हैं. नीतीश खुद सवर्ण राजनीति साधने में लगातार ऊर्जा लगाए हुए दिखते हैं.
तो क्या अलगाव की स्थिति में सिर्फ नरेंद्र मोदी के विरोध का हथियार ही जदयू के पास बचेगा? सवाल यह भी कि वह हथियार मुस्लिम वोटों को अपने पक्ष में एकजुट करने के लिए कुछ हद तक कारगर तो हो भी सकता है, लेकिन दूसरी ओर क्या उससे उनके अपने वोट बैंक के बिखर जाने का डर नहीं है. जानकारों के मुताबिक मोदी के नाम पर भाजपा की कोशिश हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण की तो होगी ही, नरेंद्र मोदी को अतिपिछड़ा समूह का नेता बताकर भी भाजपाइयों ने बिहार के सुदूरवर्ती इलाके में मोदी को स्थापित करने की कोशिश परवान चढ़ा दी है. नरेंद्र मोदी ने मुजफ्फरपुर की अपनी रैली में कहा भी कि भाजपा अब बनियों और ब्राह्मणों की पार्टी नहीं रह गई है बल्कि वह पिछड़ों की पार्टी हो गई है. दरअसल भाजपा हर हथकंडा अपनाकर नीतीश के अतिपिछड़े समूह को और पिछड़ों में गैरयादव समूह को तोड़ने की कोशिश में है.
अतिपिछड़ा समूह बिहार की राजनीति में सबसे प्रभावी भूमिका में है. इसके अलावा बिहार की राजनीति आखिर में घूम-फिरकर जाति के खोल में समा जाने के लिए भी ख्यात रही है, सो नरेंद्र मोदी को अतिपिछड़ा जाति का बताकर राजनीतिक फसल काटने की कोशिश भाजपा पुरजोर तरीके से कर रही है. इस समूह को लुभाने के लिए एक ओर तो शीर्ष पर नरेंद्र मोदी तो हैं ही, निचले स्तर पर भाजपा ने बूथ मैनेजमेंट में अतिपिछड़ों को तरजीह देने की योजना बनाई है.
बिहार में जातीय राजनीति का ककहरा बहुत साफ है. सवर्ण कुल मिलाकर 12 प्रतिशत के करीब हैं. नीतीश कुमार जिस कुरमी समुदाय से हैं उसकी राज्य में करीब 2.4 प्रतिशत आबादी है. पिछड़ी जाति में ही महत्वपूर्ण कोईरी जाति की आबादी करीब चार प्रतिशत मानी जाती है. यादव 11 प्रतिशत के करीब हैं. दलितों की आबादी करीब 15 प्रतिशत है और मुस्लिम समुदाय की लगभग 16.5 प्रतिशत. आदिवासी लगभग एक प्रतिशत हैं और शेष बची आबादी अतिपिछड़े समूह की है. इस समूह मेंं 119 जातियां आती हैं. यादव, कोईरी, कुरमी और बनिया को छोड़ अमूमन सभी पिछड़ी जातियां इसी समूह मेें शामिल हंै. पिछले चुनाव में इस समूह का सबसे ज्यादा फायदा नीतीश कुमार को मिला था. इनकी आबादी करीब 42 प्रतिशत के करीब है, इसलिए इस दृष्टि से बिहार की राजनीति में फिलहाल यह सबसे मजबूत समूह है. नीतीश ने पिछड़ों और अतिपिछड़ों का बंटवारा किया था, सो स्वाभाविक तौर पर वे इस समूह के उम्मीदों और आकांक्षाओं के सबसे बड़े नेता बने थे. लेकिन अब इसी अतिपिछड़े समूह में नीतीश के प्रति नाराजगी का भाव भी उभरा है. प्रशासन और सत्ता पर सवर्णों का दबदबा और ठेके-पट्टे आदि में पिछड़ों का ही दबदबा कायम रहना अतिपिछड़ा समूह को नाराज किए हुए है.
साफ है कि मात्र 2.4 प्रतिशत आबादी वाले कुरमी समुदाय से आने वाले नीतीश कुमार के लिए भाजपा से अलग होने के बाद अपने बूते आगे का सफर तय करना इतना आसान भी नहीं दिख रहा. नीतीश की नजर अतिपिछड़ा, महादलित और मुसिलम वोटों पर है. अगर सिर्फ अपनी जाति की बात होगी तो लालू प्रसाद सदैव बड़े नेता बने रहेंगे, क्योंकि यादव आबादी करीब 11 प्रतिशत है. भाजपा ने भी पिछले कुछ सालों में कांग्रेस के सवर्ण खेमे में अपनी पकड़ बनायी है और अलगाव की सिथति में 12 प्रतिशत आबादी वाले सवर्णों का भाजपा की ओर तेजी से ध्रुवीकरण हुआ भी है. भाजपा रामविलास पासवान को साथ करके दलितों के वोट में सेंधमारी की कोशिश में है. उपेंद्र कुशवाहा को साथ करके बिहार में फेविकोल टाइप जातीय समीकरण कोईरी-कुरमी को तोड़ने की जुगत में वह लगी हुई है. उधर, नीतीश किसी तरह कोईरी-कुरमी समीकरण बचाने में लगे हैं.
साख का सवाल
संभव है, नीतीश कुमार जातीय समीकरण साधकर बिहार में सियासी गणित फिट भी बैठा लंे. फेडरल फ्रंट या कांग्रेस के सहारे चुनावी नैया को अपने अनुकूल कर भी लंे. नीतीश जानते हैं कि विशेष राज्य दर्जे को चुनावी मसला बनाकर वे इस बार आसानी से बाजी नहीं जीत सकते. इस मुद्दे पर उन्होंने दो मार्च को बिहार बंद भी करवा दिया, सत्याग्रह भी किया, लेकिन उनके लोग इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रहे कि नीतीश विशेष राज्य दर्जे के बजाय आठ साल के सुशासन को क्यों नहीं आधार बना रहे. नीतीश कुमार आठ साल में किए काम को मसला बनाने का साहस क्यों नहीं जुटा पा रहे? जदयू के दूसरे नेता ही नहीं, खुद नीतीश कुमार भी इन सवालों का जवाब देने की स्थिति में नहीं हंै. जानकार मानते हैं कि बावजूद इसकेे वे विशेष राज्य दर्जा, धर्मनिरपेक्षता आदि का कॉकटेल बनाकर एक नई किस्म का समीकरण बनाने की कोशिश करेंगे.
नीतीश कुमार यह भी जानते हैं कि अगर वे अपने ही राज्य में बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाए तो केंद्र की राजनीति में उन्हें कोई नहीं पूछेगा. वे एक माहौल बनाना चाहते हैं, लेकिन मुश्किल यही है कि अब तक उसकी दिशा तय नहीं. उनके सामने लालू प्रसाद, भाजपा, उपेंद्र कुशवाहा, रामविलास पासवान आदि चुनौती के तौर पर हैं. इन सबके खिलाफ नीतीश को अकेले लड़ना है. नीतीश जानते हैं, जो उनके साथ हैं, वे रातों-रात पलटी मार सकते हैं. नीतीश की अपनी तमाम खासियतंे हैं. वे अपने व्यक्तित्व के बल पर सबसे लड़ेंगे. लेकिन कुछ कमियां उन्हें परेशान करेंगी. वे हालिया वर्षोें में जिस स्वभाव के नेता हो गए हैं, क्या वह स्वभाव उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित होने देगा? वे अपनी जरूरत के अनुसार साथी चुनते रहते हैं और मतलब निकल जाने के बाद उसे किनारे भी करते रहते हैं. जार्ज फर्नांडिस, दिग्विजय सिंह से लेकर अब तक कई नेता ऐसे रहे हैं, जो कभी नीतीश कुमार की राजनीतिक पारी को आगे बढ़ाने में मददगार रहे, लेकिन नीतीश सबको दरकिनार करके आगे बढ़ते रहे हैं. समय-समय पर वे अपनी मंडली के साथी भी बदलते रहे हैं और संगी-साथी के तौर पर राजनीतिक पार्टियों का समूह भी. भाकपा माले, भाकपा, माकपा से लेकर भाजपा तक को वे आजमाते रहे हैं. अब कांग्रेस पर उम्मीद टिकाने के साथ ही वे मुलायम, नवीन पटनायक, देवगौड़ा आदि पर नजर जमाए हुए हैं. ये नेता नीतीश का साथ दे भी दें तो क्या जब आखिरी बारी आएगी तो वे नीतीश के साथ खड़े हो सकेंगे? क्योंकि नीतीश कुमार के बारे में यह धारणा अब मजबूत हो चुकी है कि नीतीश के साथ जाने का मतलब है- यूज ऐंड थ्रो की तरह इस्तेमाल होना और इस धारणा की वजह से नीतीश अब जिसको साधने की कोशिश करते हैं, वह भी उनको उतनी ही चतुराई से साधने की कोशिश करता है. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘राजनीति संभावनाओं का खेल है. नीतीश कुमार का राष्ट्रीय राजनीति में क्या होगा, इस पर अभी बात करना उचित नहीं. क्षेत्रीय दलों के क्षत्रप किंगमेकर की भूमिका में आते रहते हैं. संभव है नीतीश किंगमेकर की भूमिका में रहंे और यह भी होता रहा है कि कई बार किंगमेकर लक-बाय-चांस किंग भी बन जाते हैं. अभी से क्या कहा जाए! पहले यह तो तय हो कि नीतीश किसके साथ लड़ेंगे. अकेले, कांग्रेस के साथ या फिर किसी और रास्ते! यह भी तो तय हो कि लालू प्रसाद की क्या रणनीति होगी. इन सब बातों पर नीतीश का भविष्य निर्भर करेगा.’