फिल्म देसी ब्वॉयज
निर्देशक रोहित धवन
कलाकार अक्षय कुमार, जॉन अब्राहम, दीपिका पादुकोण, चित्रांगदा
ओमी वैद्य यदि उससे बेहतर ढंग से सोचते हों, जिस ढंग से वे फिल्मों में हिंदी बोलते हैं, तो उन्हें एक बिन मांगी सलाह कि थ्री इडियट्स से बाहर आएं. समय वहीं नहीं रुका हुआ है और वे एआर रहमान नहीं हैं कि खुद को दोहराएं, तब भी उतने अच्छे लगें.
इस शुरुआत के बाद हम चाहें तो फिल्म समीक्षकों की उस मजबूरी का रोना एक और बार रो सकते हैं जिनमें उन्हें हर शुक्रवार फिल्में देखनी होती हैं और पूरी देखनी होती हैं. लेकिन यह न करते हुए हम रोहित धवन की इस फिल्म के बारे में बात करेंगे, जिसमें एडिटिंग के साथ सौतेले बच्चे जैसा बर्ताव किया गया है. हम चाहें तो दीपिका पादुकोण की टांगों और उनके ‘लव आजकल’ के किरदार की भी बात कर सकते हैं जिसमें वे ओमी वैद्य जितनी शिद्दत से तो नहीं, लेकिन फिर भी बैठी रह गई हैं और कुछ उनके निर्देशकों ने उन्हें बिठाए रखा है. और चित्रांगदा ‘मैं हूं ना’ की सुष्मिता जैसे किरदार में आती हैं और ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और ‘ये साली जिंदगी’ देखने के बाद यह कोई बहुत खुशनुमा अनुभव नहीं कि वे अक्षय कुमार के एक सही जवाब के बदले अपने बदन का एक कपड़ा उतारने के लिए फिल्म में हों. लेकिन समय अच्छा नहीं है और यह आप उस बच्चे की बच्ची एेक्टिंग देखकर भी समझ सकते हैं जिसे आपको इमोशनल करने के लिए रखा गया है. जॉन के चेहरे पर आजकल मुश्किल से मिलने वाली मासूमियत है लेकिन वे अपनी एेक्टिंग से कई अच्छे दृश्यों को बर्बाद करने का माद्दा रखते हैं. अक्षय ने अपना काम अच्छा किया है, सिवा उस काम के, जिसे वे कई सालों से ठीक नहीं कर रहे और वह है- अच्छी फिल्म चुनना.
ऐसा नहीं कि सब बुरा है. संगीत अच्छा है, फिल्म में आप कई जगह हंसते हैं, फिल्म अपने पुरुषों और स्त्रियों की त्वचा दिखाने में कोई भेदभाव नहीं बरतती और इस तरह समानता का संदेश देती है. एक बात और, जिसे आप पता नहीं तारीफ समझेंगे या बुराई, लेकिन फिल्म के अंत में क्रेडिट्स के साथ आने वाले शूटिंग के दृश्य फिल्म से ज्यादा अच्छे लगते हैं.
जैसा कि अक्षय एक जगह कहते भी हैं, जॉन और अक्षय साथ में अच्छे लगते हैं, जॉन और दीपिका के साथ अच्छे लगने से ज्यादा अच्छे. गाने हिंदी फिल्मों के परंपरागत महान स्टाइल में बेवजह आते हैं और नायिका चाहे नायक से नाराज भी है लेकिन गाने में मेहनत से नाचती है. बाकी बेशुमार गोरी अधनंगी लड़कियां तो हैं ही, जिस तरह रोहित के पिता डेविड धवन की फिल्मों में होती हैं. इसके अलावा कुछ बासी चुटकुले और क्लाइमैक्स में सिर नोचने को मजबूर करने वाला कोर्टरूम ड्रामा है. प्यार है जो प्यार जैसा लगता तो नहीं और पिता अनुपम खेर हैं जो कई और फिल्मों की तरह डीडीएलजे छाप फिल्मी पिता हैं. किरदारों में बहुत सारी सेक्स की चाह है लेकिन सेक्स कहीं नहीं है और आप चाहें तो इसे पारिवारिक फिल्म मान सकते हैं जैसे आप बहुत सारी दूसरी फिल्मों को मानते हैं.