‘शंघाई’ ऐसी फिल्मों में से है, जो बहुत से लोगों को सिर्फ इसीलिए बुरी लग जाती है कि वह क्यों उन्हें झकझोरती है, उनकी आरामदेह अंधी-बहरी दुनिया में क्यों नहीं उन्हें आराम से रहने देती, जिसमें वे सुबह जगें, नाश्ता करें, काम पर जाते हुए एफएम सुनें जिसमें कोई आरजे उन्हें बताए कि वैलेंटाइन वीक में उन्हें क्या करना चाहिए, किसी सिग्नल पर कोई बच्चा आकर उनकी कार के शीशे को पोंछते हुए पैसे मांगे तो उसे दुत्कारते हुए अपने पास बैठे सहकर्मी को बताएं कि कैसे भिखारियों का पूरा माफिया है. फिर ऑफिस पहुंचें और वे काम करें जिनके बारे में उन्हें ठीक से नहीं पता कि किसके लिए कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं, थककर बड़ी-सी गाड़ी में अकेले लौटें – ट्रैफिक को कोसते हुए, टीवी देखते हुए हंसें रोएं और वीकेंड पर उम्मीद करें कि जब किसी बड़े रेस्तरां से पिज्जा खाकर निकलें तो एक मल्टीप्लेक्स में ऐसी कोई फिल्म उनका इंतजार कर रही हो, जो उनकी सारी कुंठाओं, निराशाओं, पराजयों को जादू से चूसकर उनके जिस्म और आत्मा से बाहर निकाल दे. फिल्म ही उनकी रखैल बने, उनकी नौकर, उनका जोकर.
लेकिन तब भी एक समय तक पलायन का पर्याय बन चुके हिंदी सिनेमा में ‘शंघाई’ का सच कहने का मुस्कुराता हुआ हौसला हम सबका हौसला बढ़ाने वाला है. इसीलिए हम उसके निर्देशक दिबाकर बनर्जी, उनकी सह-लेखिका उर्मि जुवेकर और उन सब नींव की ईंटों से मिलना चाहते हैं जो इस विचार को अंदर की बेचैनी से परदे तक लेकर आए हैं. हम लालबाग की एक इमारत की पहली मंजिल पर स्थित दिबाकर बनर्जी प्रोडक्शंस के दफ़्तर पहुंचते हैं. यहां कभी एक पुर्तगाली चर्च हुआ करता था. यहीं हम घुंघराले बालों वाली वंदना कटारिया से मिलते हैं, जो फिल्म की प्रोडक्शन डिजाइनर हैं और जिन्हें ‘ओए लकी..’ के लिए फिल्मफेयर मिल चुका है. कम बोलने वाले जुल्फी सहायक प्रोडक्शन डिजाइनर हैं और वे और वंदना हमें फिल्म के जोगी के स्टूडियो-कम-घर के सेट के बारे में बताते हैं, जो 110 साल पुरानी एक इमारत में बनाया गया था जो स्क्रिप्ट के हिसाब से आदर्श थी. उन्हें अपना सेट बनाने के लिए उसकी एक दीवार तोड़नी थी. यह फिल्म को प्रामाणिक बनाए रखने की उनकी जिद ही थी कि वह दीवार तोड़ी गई और उस घर की हर चीज अपने मुताबिक बनाई गई, भले ही इस दौरान हर दीवार हिलती रही हो. हम फिल्म के कार्यकारी निर्माता वसीम खान से मिलते हैं, जिनके पास अपने कैमरा उपकरण बनाकर और बहुत सारे नए और सस्ते तरीकों से, दंगे जैसे मुश्किल दृश्यों को शूट करने के बारे में बताने को इतना कुछ है जो बताता है कि बड़ी फिल्म बड़े बजट की नहीं, बड़े दिमाग की मोहताज होती है.
‘ दरअसल हम बौनों का समाज चाहते हैं. ताकि हम सब सुरक्षित रहें कि हम सब चार फुटिया हैं, कोई छ: फुट का नहीं है ’
इसके बाद मैं उर्मि और दिबाकर बचते हैं. यूं तो हमें ‘शंघाई’ और उसके विचार पर ही बात करनी थी, लेकिन एक घंटे बाद हम पाते हैं कि हम महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह से लेकर सफदर हाशमी और उड़ीसा के जलते हुए मिशनरियों तक पहुंच गए हैं, हम ‘घिसे हुए कॉरपोरेट क्लास’ के लिए भी परेशान होते हैं और एक बुलबुले में रहने की आदत पाल चुके हम सब के लिए भी. यह बातचीत एक फिल्म की बात के अलावा यह समझने की भी कोशिश है कि हम सब किधर जा रहे हैं. मैं इसमें कम से कम दखल देता हूं और उर्मि और दिबाकर को बात करने देता हूं कि ‘शंघाई’ कैसे बनी, और कैसे वे ऐसे बने कि ‘शंघाई’ बनाएं.
दिबाकर : ‘ओए लकी’ के समय से ही मैं ‘ऑल द प्रेजिडेंट्स मैन’ और ‘ज़ी’ जैसा कुछ बनाना चाहता था. उर्मि नॉवल पढ़ चुकी थी. मैंने तब तक नहीं पढ़ा था.
उर्मि: डेढ़ साल पहले हमने लिखना शुरू किया. हमारा पहला ड्राफ्ट बहुत खराब-सा था. क्योंकि उसमें सब कुछ बहुत स्पष्ट था, सारी राजनीति. उसे देख कर लगा कि ये करना नहीं है हमें.
दिबाकर : वो क्यों लगा? मैं इंटरव्यू लूंगा.
उर्मि: वो इसलिए लगा कि…कहानी वही होती है, लेकिन जिस तरह से आप उसे कहते हो, उसी से वो बदलती है. पहला ड्राफ्ट बहुत इवेंटफुल था, लेकिन कहानी नहीं थी.
दिबाकर: दो तरह की कहानियां होती हैं. एक आपको बताती हैं- व्हॉट! – (आंखें बड़ी-बड़ी करके फुसफुसाते हुए) ओह्हह! उसका ब्रदर इन लॉ मर्डरर है! दूसरी होती हैं – हाऊ कहानियां. कि कैसे हुआ. तो ‘हाऊ’ कहानी मुझे सुपीरियर लगती हैं. तो पहले हमने व्हॉट कहानी लिखी थी. ‘क्या’ तो बड़ी क्लीशेड-सी स्टोरी होती है – (स्वर में दिल्ली वाली हैरत और आनंद) ओ बेटा जी, ट्विस्ट आ गया! तो मैंने जब अपना ड्राफ्ट लिखने के बाद उसे देखा तो थूSSका! उस ‘क्या’ की कहानी में भी सब फेक ट्विस्ट आ रहे थे.
उर्मि : दिबाकर और मैं बार-बार ये भी सवाल कर रहे थे कि हम कर क्या रहे हैं. जो हमारे आसपास हो रहा है, उस पर कैसे रिएक्ट कर रहे हैं हम. दिबाकर की सारी फिल्मों में यह दरअसल उसकी कहानी है, जिस पर असर हो रहा है और जो उस पर रिएक्ट करेगा. साथ ही मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण रहा कि कुछ लोग बदलाव लाने की कोशिश क्यों करते हैं? आपके फादर को मारा नहीं है, आपकी बहन का भरे चौराहे पर नंगा करके रेप नहीं किया गया. तब आप क्या करेंगे? इसीलिए फिल्म न्याय की कहानी है, न कि बदले की. न्याय बौद्धिक है, जबकि बदला इमोशनल है. मैं इसके लिए दिबाकर को क्रेडिट देती हूं क्योंकि ये सारी चीजें स्क्रिप्ट में नहीं थंीं, इमोशनलीं थी, सबटेक्स्ट में थी.
गौरव : कोई ख़ास तरीका रहता है इस तरह सबटेक्स्ट ऐड करने का?
दिबाकर : इसका काफी फूहड़ तरीका होता है. सारे निर्देशक अपने पसंदीदा सीन, चाहे फिल्म कोई भी हो, अपने एक पिटारे में रखते हैं, और कहीं भी मौका और जगह देखकर उसे घुसाने की कोशिश करते हैं. ये निर्देशक के श्याणेपन पे डिपेंड करता है कि वह किस तरह अदृश्य रूप से इसे सीन में घुसा दे और उसी सीन में घुसाए, जहां पर इसका मतलब है.
उर्मि : क्योंकि शंघाई को प्लॉट नहीं बताना था. वह दो बिंदुओं पर हमला करती है. एक न्याय की बात, कि आप प्रूव कैसे करोगे? बदला नहीं लेना है तो प्रूव तो करना पड़ेगा. और प्रूव करने के दौरान आप पर क्या बीतती है? और वो बीतनी वो नहीं थी हमारी, कि दो पड़ोसी हंस रहे हैं, आपकी नौकरी चली गई, आपकी बिजली बंद कर दी. वो नहीं, वो कि बस आप हो अपने साथ.
गौरव : एक कमी मुझे लगती है कि डॉक्टर अहमदी जितना बड़ा किरदार है, उसका असर उतना दिख नहीं पाता. ‘ज़ी’ में वह किरदार ज़्यादा पब्लिक से जुड़ा लगता है, उसके मरने से पहले उसके विरोध और समर्थन में ज़्यादा भीड़ होती है..
दिबाकर : ज़ी में वो डेमीगॉड है. हमारे यहां कोई डेमीगॉड है नहीं. अन्ना हजारे भी कोई बड़ी चीज नहीं है. हमको मौका मिलते ही हम उसे नीचे कर देते हैं. हम बौनों का समाज चाहते हैं. ताकि हम सब सुरक्षित रहें कि हम सब चार फुटिया हैं, कोई छ: फुट का नहीं है. मुझे अहमदी करिश्माई नहीं लगते. उनके पीछे बहुत लोग हैं, लेकिन वो महात्मा गांधी नहीं हैं.
उर्मि : और कोई हो भी, तो हम आज के टाइम में नहीं मानते. मेधा पाटकर भी सीआईए की एजेंट, अरुंधती रॉय भी सीआईए या चीन की एजेंट.
दिबाकर : जैसे फिल्म में हो रहा है, मेधा पाटकर के साथ कुछ हो, तो हूबहू यही प्रतिक्रिया होगी हमारे यहां. अगर आप सफदर हाशमी की मौत देखें या ऐसा ही कुछ देखें, तो ये अचानक यहीं पे इसी तरह मोहल्ले के बीच में होती हैं. दस हजार की भीड़ में कभी कोई नहीं मारता. जब सफ़दर हाशमी मरते हैं, या उड़ीसा में जैसे मिशनरी मरे थे, उन्हें बच्चों के साथ जला दिया था, इस तरह की हत्याएं 300-400 लोगों के बीच होती हैं.
दिबाकर : उर्मि, हमें आपकी पूरी प्रोसेस की बात करनी चाहिए. कहां असंतुष्ट थीं आप, कहां संतुष्ट थीं, हर चीज तक…असल ख़ून, पसीने, आंसुओं तक ले जाइए इन्हें..
उर्मि : जब पहले दो ड्राफ़्ट हुए, तो न ये एक सोशल क्रिटिक था, न अच्छा ड्रामा था. एक बात से दिबाकर बहुत कतराता है कि उसके लिए सेंटीमेंट और इमोशन का बड़ा इश्यू है. कि कोई ऐसे उदास बैठा है और 500 वॉयलिन बज रहे हैं, तो आप सेंटीमेंटली लोगों को मजबूर कर रहे हो बुरा मानने के लिए.
दिबाकर : रामायण और रामचरितमानस में यही फर्क है. मेरे हिसाब से रामायण एक क्लासिक कहानी है जो स्पष्ट रूप से बताई गई है कि ये बंदा, इसने इसको मारा, इसे फॉलो करो, इसे नहीं करो. रामचरितमानस में राम जी के बचपन को लेकर इतना रुलाओ, इतना रिझाओ दर्शकों को, कि वे भावनाओं से लहूलुहान हो जाएं. उसके बाद कहानी अपने आप आगे चल पड़ेगी. दोनों के बीच यही सेंटीमेंटेलिटी का फर्क है. शंघाई इमोशनल कहानी है लेकिन इसमें किसी किरदार को इमोशनली मेकअप नहीं किया गया. मेरे को सेंटीमेंटल नहीं करना. ट्रू इमोशनल करना है.
उर्मि : इस संतुलन को पाने में बहुत देर लगी. मेरे ख़याल से शूट से बस एक महीने पहले ही यह पूरा हुआ. जब हम गोआ गए थे आखिरी ड्राफ्ट करने के लिए.
दिबाकर : कॉरपोरेट क्लास जो है ना, सबसे ज्यादा घिसा हुआ क्लास है. उनको किसी चीज का कुछ फर्क नहीं पड़ता. लेकिन उसी सबसे ज्यादा मैसेज मिले मुझे, कि हम फिल्म देख कर हिल गए. अब तक मेरी किसी फिल्म को ऐसी प्रतिक्रिया नहीं मिली थी. मैं चार गुना उत्साहित हूं अब.
उर्मि : दरअसल गुस्सा था हमारे मन में. ये किसी बड़ी चीज की कहानी नहीं है. यह उन रोज़मर्रा के चुनावों की कहानी है, जो हम करते हैं अपनी जिंदगियों में. हमने कूल होने के चक्कर में वे छोटे छोटे चुनाव करने बन्द कर दिए हैं. कुछ हो गया है कि हमने ऐसे रहना स्वीकार कर लिया है कि आपके पड़ोसी न हों.
‘मैंने किसी को देखा ही नहीं सौ प्रतिशत ठीक रहकर जीतते. जो सबसे बड़ी हस्तियां होती हैं, उनमें ग्रे का बड़ा हेल्दी मिश्रण होता है’
मैं जब बड़ी हुई थी, तब ऐसा नहीं था. हम अपनी दुनिया का हिस्सा थे. मुझे याद है, गणपति के टाइम पे ये था ही कि आप कुछ प्ले करो, बच्चों को लेके कुछ करो. और ये फिल्मों की नकल नहीं होता था. तरह तरह के कॉम्पीटिशन होते थे. आज जब मैं उसी जगह वापस जाती हूं लोग मिलते नहीं हैं एक दूसरे से. और जहां मिलते भी हैं, वहां हिंदी फिल्म के गाने पर नाचते हैं. तो मैं समझने की कोशिश कर रही हूं कि यह क्यों हुआ, कैसे हुआ. हममें असहाय मोड बहुत ज्यादा है. और अन्ना हजारे के साथ खड़े होकर लड़ने से कुछ नहीं होगा. हर दिन आपको सही चीजें चुननी होंगी. और ये किया जा सकता है.
गौरव : आईबीपी को यानी कॉरपोरेट के इस विकास को ख़त्म करने की, या बदलने की, फिल्म कहीं बात नहीं करती..
उर्मि : विकास बहुत जटिल मुद्दा है. मैंने भूटान में देखा, जहां कोई विकास नहीं है, कुछ नहीं बदलेगा. सारे लोग वही कपड़े पहनेंगे. वो उनका ग्रॉस नैशनल हैप्पिनेस का कोशेंट है. तो वहां के बच्चे टीवी देखते हैं, लेकिन उन्हें पुराने कपड़े पहनने पड़ रहे हैं. शिक्षा नहीं है. तो यह भी कोई रास्ता नहीं है कि विकास ही न हो. लेकिन किसकी प्रगति, किसका देश, यह सवाल है.
दिबाकर : वो फिल्म जब बनेगी ना, उसे जेनुइनली सड़क पर जाकर दिखाना पड़ेगा. राजनीति को सड़क पर बहुत लोग दिखा चुके, इसलिए हमने अलग मनोवैज्ञानिक ढंग से दिखाया. लेकिन कॉरपोरेट को सीधा अंकुश के लेवल पे बिल्कुल सच दिखाना पड़ेगा. क्योंकि कॉरपोरेट वालों को तो वो सब दिखाकर कोई फायदा नहीं है. उन्हें तो सब पता है और वो तो उसी का खा रहे हैं. इसलिए वह सिंगल स्क्रीन वालों को दिखाना पड़ेगा. मेरे दिमाग में ये बहुत दिन से घूम रहा है.
गौरव : दिबाकर, आपके किरदार आखिर में किसी चतुराई से जीतते हैं. यह परंपरागत नायक से अलग तरीका है कि सिर्फ परंपरागत रूप से अच्छा रहने से कुछ नहीं होगा. क्या यही एक तरीका बचा है इस व्यवस्था से पार पाने का?
दिबाकर : मैंने किसी को देखा ही नहीं सौ प्रतिशत ठीक रहकर जीतते. और यह होना भी नहीं चाहिए. जब गांधी जी ही..पैंतरा चलते थे, राजनीति की चाल होती थी ना? अगर आप गांधीजी के ऊपर लिखे गए लॉर्ड इरविन के मेमोज देखें तो वे मेमोज पे मेमोज लगातार लिखे जा रहे हैं कि इस बदमाश को अंडरएस्टिमेट मत करो, ये गुजराती बनिया, श्याणा, बहुत काइयां है..तो इरविन के हिसाब से तो गांधीजी बहुत श्याणे हैं, बहुत ग्रे कैरेक्टर हैं. तो जो सबसे बड़ी हस्तियां होती हैं, उनमें ग्रे का बड़ा हेल्दी मिश्रण होता है.
उर्मि : और देवता तो कोई है नहीं. जो अरुणा की पूरी लाइन है, वो तो पूरी फिल्म को लेकर होती है- सबको देवता चाहिए, मरने और मारने के लिए.
दिबाकर : हम एक को चुन लेते हैं. कि इसको देवता बनाएंगे. उसको बनना पड़ेगा. तभी कुछ लोग जानबूझकर बन जाते हैं. और जो भी आसुरिक होता है, वह छिपकर करते हैं फिर.
गौरव : फिल्म की शुरुआत में जो कालिख पोतने का सीन है, बहुत स्लो मोशन में, वह बाद में आया या स्क्रिप्ट में था?
दिबाकर : इस पर बहुत बहस हुई थी. शुरू में उर्मि इसके खिलाफ़ थीं. लेकिन ये मेरा पसंदीदा सीक्वेंस था. शूट करने के बाद मुझे लगा कि ये सीन एक्स्ट्रा है. ये दिखा रहा है कि देखो…, मैं कितना अच्छा डायरेक्टर हूं, स्लो मोशन में मुंह काला करते दिखा रहा हूं. तब मैंने उसे काट दिया और फिर पूरे ग्रुप को दिखाया. मैंने ऐसे 3-4 बार काटने की कोशिश की और हर बार ग्रुप ने कहा कि नहीं, यह होना चाहिए.
उर्मि : जिस समय में हम रह रहे हैं, यह उसकी बेहद व्यक्तिगत हिंसा है. एक खून वाली हिंसा होती है, एक होती है आपके ज़मीर पे, आपके विचारों पर.
दिबाकर : मैं अपनी जिंदगी का कीमती लम्हा बताता हूं किसी फिल्म का..पाथेर पांचाली में अपु की मां है..वह खाना-वाना खाके..जैसे ही कांसे के कटोरे से दूध पीने लगी, इन्दी ठाकरुन, बूढ़ी औरत, जो उनके घर में आश्रित है..वो उसके सामने आकर मुंह खोलकर बैठ गई कि मेरे को भी दे दो. वैसे तो ये कॉमिक सीन है. और तब, अपु की मां दूध पीती जाती है..और उस बूढ़ी औरत का चेहरा छोटा होता जाता है..और जो लालच है ना..और दूध की धार कटोरे के दोनों तरफ से उसके होठों से बह रही है..यह बहुत डराने वाला है. मेरे लिए वह हिंसा बहुत बड़ी हिंसा है.