यह सच है कि हर इंसान दुनिया में अकेला आया है और अकेला ही जाएगा। लेकिन यह अधूरा सच है। दुनिया में जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तो उसी क्षण और भी कई बच्चे भी जन्मते हैं। इसी प्रकार जब कोई इंसान मरता है, तो उसी क्षण और भी कई लोगों की मौत होती है। यह अलग बात हो सकती है कि जन्मने और मरने की घटनाएँ एक स्थान पर नहीं होती हों। फ़र्क़ यह है कि सबके शरीर अलग-अलग होने के चलते सबके अहसास, अनुभव, अनुमान, तौर-तरीक़े भी अलग-अलग ही होते हैं। इसीलिए हम एक-दूसरे की संवेदनाओं को तो समझ सकते हैं; लेकिन एक पर जो बीत रही हो, वह दूसरा अपने ऊपर नहीं ले सकता; चाहे कितना भी क़रीबी क्यों न हो।
कहने का अर्थ यह है कि कोई इंसान उसी क्रिया से पूर्णतया वाक़िफ़ हो सकता है, जो उसके शरीर में हो रही हो। दूसरे पर बीतने वाली क्रियाओं का दूसरा इंसान केवल अहसास ही कर सकता है। मसलन अगर कोई भूखा है, तो दूसरे इंसान को उसकी भूख का अहसास तो हो सकता है; लेकिन उसकी भूख उस दूसरे इंसान को नहीं लग सकती, जब तक कि वह स्वयं भूखा न हो। लेकिन यह सच है कि आख़िरकार भूख तो उसे भी लगती ही है। इसी तरह सुख-दु:ख, ख़ुशी-ग़म और अन्य कई चीज़ें भी हर इंसान पर नाज़िल होती हैं। इसके अलावा सांसारिक जीवन में कोई भी अकेले अपने दम पर जी नहीं सकता। उसे अपने आसपास के लोगों से कई तरह के सम्बन्ध रखने ही पड़ेंगे। किसी के साथ मिलकर रहने का, किसी के साथ मिलकर काम करने का, किसी के साथ दोस्ती रखने का, किसी के साथ चीज़ों के लेन-देन का। कुल मिलाकर इंसान स्वार्थ के सहारे ही सही, पर एक-दूसरे से जुड़े हैं। यही वजह है कि इंसान बस्तियों में रहते हैं। एक सभ्य और सुरक्षित समाज की इस स्थापना को बनाये रखने के लिए इन रिश्तों को जोड़े रखने की अति आवश्यकता है। इसीलिए गुणीजन इंसानियत और सद्भाव की वकालत करते हैं, जो रहनी भी चाहिए। सद्भाव के बग़ैर अपना तथा अपनों का न तो कोई भला सोच सकता है और न सोच सकता है। अगर कोई इंसान किसी इंसान से या परिवार से या समुदाय से या समाज से नफ़रत करता है, तो उसे अपने विचारों के लोगों से या समाज से या समुदाय से सद्भाव रखना ही पड़ेगा। इसी वजह से लोगों में कई तरह के मतभेद दिखायी देते हैं। इनमें दो भाग स्पष्ट नज़र आते हैं- अच्छे लोग और बुरे लोग।
इतिहास गवाह है कि बुरे लोग ज़्यादातर समय दुनिया पर हावी रहते हैं। लेकिन यह एक बड़ा सच है कि दुनिया में अगर सब सुरक्षित हैं, तो यह उन लोगों की वजह से ही सम्भव है, जो अच्छे हैं और इंसानियत के पैरोकार हैं। क्योंकि बुरे लोग तो उत्पाती होते हैं और कभी भी मरने-मारने पर आमादा रहते हैं। अगर इंसानियत के पैरोकार मध्यस्ता न करें, तो ये लोग कभी भी लडक़र मर जाएँगे। इस बार होली पर दो तस्वीरें देखने को मिलीं। एक तस्वीर में ‘दि कश्मीर फाइल्स’ जैसी फ़िल्म के सहारे देश को नफ़रती आग में झोंकने पर आमादा लोग दिखे और दूसरी तस्वीर में उत्तर प्रदेश के देवाशरीफ़ में मुसलमान होली मनाते दिखे। वहाँ बिना किसी ऐतराज़ के जितनी सिद्दत से मुस्लिम होली मनाते हैं, वह तस्वीर देखते ही बनती है। यह तस्वीर उन लोगों को शर्मिंदा करने के लिए काफ़ी है, जो मज़हबों की आड़ लेकर नफ़रतें फैलाने की घिनौनी हरकत करने में लगे हैं। वैसे देवाशरीफ़ में सदियों से होली मनायी जाती है। वहाँ एक दरगाह है, जहाँ सभी मज़हबों के लोग एक अपनी फ़रियाद लेकर माथा टेंकने जाते हैं। देश में कई ऐसे स्थान हैं, जहाँ इस तरह की एकता देखने को मिलती है। कश्मीर में पंडितों पर हुए ज़ुल्म का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि वह काम भी नफ़रत के पैरोकारों और इंसानियत के दुश्मनों ने ही किया। लेकिन सच तो यह है कि ऐसी कलुषित घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है और कहीं-न-कहीं हर समुदाय के लोगों पर इस तरह के ज़ुल्म हुए हैं।
तो क्या हम उन काले अध्यायों को फिर से उजागर करके एक बार फिर से लडक़र मरें? इससे क्या हासिल होगा? बेहतर यह हो कि सरकार पीडि़तों के साथ आगे से अन्याय न होने दे। अगर किसी ने किसी की कभी हत्या कर दी हो, तो क्या मारे गये व्यक्ति की तरफ़ से रुदाली रोना रोकर उसका समाधान किया जा सकता है? इसका समाधान शान्ति स्थापित करके ही हो सकता है। इससे भी सन्तुष्टि न मिले, तो दोषी को सज़ा देनी चाहिए या फिर पीडि़तों के ज़ख्मों पर मरहम लगाना चाहिए। अगर मृतक की किसी पीढ़ी को भडक़ाया जाएगा, तो उसका परिणाम तो ख़ून-ख़राबा ही होगा। क्योंकि नफ़रत से तो बर्बादी और मातम ही पसरेंगे। उद्धार तो सद्भाव से ही होगा। मशहूर शायर मरहूम राहत इंदौरी का एक शेर है :-
‘लगेगी आग तो आएँगे कई घर ज़द में,
यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है।’