सद्भावना में छिपी दुर्भावना

 

जाकिया जाफरी मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा आदेश जारी किए जाने के कुछ दिनों बाद 14 सितंबर को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने राज्य में शांति, एकता और भाईचारे का माहौल मजबूत करने के लिए सद्भावना उपवास की घोषणा की. मोदी ने राज्य में अपनी सरकार द्वारा 2001 से सत्य, शांति और सद्भावना की कोशिशों की सराहना की. उन्होंने इस बात का भी उल्लेख किया कि निहित स्वार्थों के चलते होने वाली आलोचना के बावजूद राज्य निवेश आकर्षित करने में सफल रहा है और सरकार ने विकास की गति बनाए रखी है.

उपवास के दौरान दर्जनों की संख्या में बोहरा मुसलमान मौजूद थे. जुहापुरा और पोरबंदर के मुसलमानों को पूर्व भाजपा सांसद बाबूराम बोखारिया लेकर आए थे. चूना पत्थर के अवैध खनन के मामले में बोखारिया कई बार जेल जा चुके हैं. मंच पर बोहरा धर्मगुरुओं, साधुओं, चार स्वामीनारायण संप्रदाय के प्रमुखों, चर्च के पादरियों और गुरुद्वारों के नुमाइंदों की मौजूदगी थी.

सुशासन के नाम पर गुजरात में जो कुछ भी चल रहा है उसे लेकर लोगों के बीच अपनी छवि चमकाने की कोशिशों में मोदी के लिए उपवास एक नया औजार है. कुछ दिनों पहले चार सितंबर को मोदी ने अहमदाबाद के अजमेरी फाउंडेशन के एक कार्यक्रम में कहा था कि मुसलमानों को मुख्यधारा में आना चाहिए. उन्होंने अपने भाषण में शिक्षा और समावेशी विकास पर भी जोर दिया था.

 मुसलमानों के इलाकों को बैंकों ने क्रेडिट कार्ड देने के मामले में काली सूची में डाल रखा है

मोदी के हालिया भाषण उनके 2007 के चुनावी भाषणों से काफी अलग हैं. उस समय के भाषणों में मोदी मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलते थे. ‘हम पांच और हमारे पच्चीस’ जैसे फिकरे कसते थे. कुछ विश्लेषकों का मानना है कि मोदी के रवैये में यह बदलाव अपनी देशव्यापी स्वीकार्यता बनाने की कोशिशों का नतीजा है. वहीं कुछ जानकार इसे कहीं ज्यादा खतरनाक मानते हुए कहते हैं कि वे अपनी सांप्रदायिक राजनीति को नई तिकड़मों के सहारे आगे बढ़ाना चाहते हैं.अब सवाल उठता है कि क्या मोदी के सुशासन के दावे जमीनी स्तर पर भी सच हैं? क्या मुसलमानों के पास गुजरात में समान अवसर हैं और उन्हें समान बुनियादी सुविधाएं मिल रही हैं?

मोदी पूर्वी अहमदाबाद के मणिनगर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ते हैं. यहां से पांच किलोमीटर की दूरी पर एक जगह है रखियाल. यहां निम्न-मध्य वर्ग के लोग रहते हैं. यहां की तीन प्रमुख कॉलोनियां सुखराम नगर, शिवानंद नगर और सुंदरम नगर हैं. इनमें से तीसरी में मुसलिम समुदाय के लोग रहते हैं. 70 के दशक में विकसित हुई इस कॉलोनी में शुरुआती दिनों में हर समुदाय के लोग रहते थे, लेकिन 2002 के दंगों के बाद से यहां मुसलमान ही रह रहे हैं.

इस इलाके में मुसलमानों और हिंदुओं के मोहल्ले राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या-8 से बंटे हुए हैं. दोनों समुदायों के लोग इस सड़क को ‘बॉर्डर’ कहते हैं. गुजरात में जहां भी हिंदू-मुसलमान आसपास रहते हैं वहां यह शब्द बेहद आम है. यहां इन दोनों समुदायों के बीच के फर्क को सिर्फ सड़क ही नहीं दिखाती बल्कि बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के आधार पर भी आप यह अंतर देख सकते हैं.

मुसलमान बहुल सुंदरम नगर के प्राथमिक स्कूल में 600 बच्चे पढ़ते हैं. यह स्कूल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है और टीन की इसकी छत में भी कई छेद हैं. इस भवन के एक हिस्से में गुजराती माध्यम का स्कूल चलता है जिसमें सातवीं कक्षा तक पढ़ाई होती है. दूसरे छोर पर चारों तरफ से खुला और टीन से ढका एक ढांचा है जहां पहली से लेकर छठी कक्षा तक के 200 छात्रों को एक साथ उर्दू की शिक्षा दी जाती है. यहां से महज दो किलोमीटर की दूरी पर हिंदू बहुल शिवानंद नगर में स्कूल की तीन मंजिला इमारत में पहली से चौथी कक्षा तक गुजराती माध्यम की पढ़ाई होती है. सुखराम नगर में सातवीं कक्षा तक का एक हिंदी माध्यम स्कूल है. यह स्कूल भी तीन मंजिला इमारत में चलता है. इसमें मोजैक का काम भी किया गया है जिन पर हिंदू देवी-देवताओं के चित्र अंकित हैं.

2008 में केंद्र सरकार ने अल्पसंख्यक वर्ग के छात्रों के लिए एक छात्रवृत्ति योजना शुरू की थी. इसमें 75 फीसदी हिस्सेदारी केंद्र की और 25 फीसदी राज्य सरकार की होनी तय थी. इस योजना के शुरू होने के बाद गुजरात ने इस मद में आने वाले फंड को खर्च करने की मियाद खत्म होने दी और केंद्र के पास इस छात्रवृत्ति के लिए कोई प्रस्ताव भी नहीं भेजा.

शुरुआत में तो राज्य सरकार ने इस योजना को गलत बताते हुए कहा कि यह धार्मिक अल्पसंख्यकों को ध्यान में रखकर तैयार की गई है और यह भेदभावपूर्ण है. मामला गुजरात उच्च न्यायालय तक पहुंचा और अदालत ने इस योजना को 2009 के मार्च में संवैधानिक बताया. एक जनहित याचिका के जवाब में इस साल अप्रैल में दायर किए गए हलफनामे में सरकार ने अपना रुख बदलते हुए कहा कि अल्पसंख्यकों को छात्रवृत्ति देने वाली एक योजना तो राज्य में 1979 से ही चल रही है, इसलिए केंद्र की योजना की कोई जरूरत नहीं है. राज्य सरकार ने हलफनामे में यह भी कहा कि केंद्र की योजना का लाभ एक निश्चित संख्या में ही छात्र उठा सकते हैं. इससे उन अल्पसंख्यक छात्रों को बुरा लगेगा जिन्हें यह लाभ नहीं मिल पाएगा. अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय (एमएमए) ने गुजरात में अल्पसंख्यकों की आबादी और आमदनी को ध्यान में रखते हुए राज्य के लिए 52,260 छात्रवृत्तियां तय की थीं.

सवाल यह है कि बचे हुए छात्रों को छात्रवृत्ति देने से राज्य सरकार को कौन रोक रहा है. एमएमए के आंकड़ों के मुताबिक 2010-11 में अपेक्षाकृत कम विकसित राज्य राजस्थान ने लक्ष्य से दोगुनी 60,109 छात्रवृत्तियां बांटीं. बिहार ने भी लक्ष्य से दोगुने 1,45,809 छात्रों को छात्रवृत्ति दी. उत्तर प्रदेश ने लक्ष्य से 130 फीसदी अधिक 3,37,309 छात्रवृत्तियां बांटीं. वहीं सबसे अधिक मुसलिम आबादी वाले राज्यों में से एक पश्चिम बंगाल ने लक्ष्य से 400 फीसदी अधिक 2,22,309 छात्रों को छात्रवृत्ति दी.सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग की प्रधान सचिव सुनैना तोमर से जब पूछा गया कि देश की एक तिहाई जीडीपी का दावा करने वाले गुजरात में इस योजना को क्यों नहीं लागू किया गया तो उनका जवाब था, ‘मामला अदालत में है इसलिए मैं इस पर कुछ नहीं कह सकती.’

छात्रवृत्ति और शैक्षिक सुविधाओं के अलावा आर्थिक लाभ के अन्य माध्यमों का फायदा लेने में गुजरात के मुसलमान काफी पीछे हैं. सच्चर कमेटी के एक सदस्य अबू सालेह शरीफ का विश्लेषण बताता है कि गुजरात के कुल बैंक खातों में मुसलमानों की हिस्सेदारी 12 फीसदी है. यह उनकी आबादी के अनुपात में ही है, लेकिन बैंक से मिलने वाले कर्ज के आंकड़े बताते हैं कि इसमें उनकी हिस्सेदारी सिर्फ 2.6 फीसदी है. इसका मतलब यह हुआ कि जिन मुसलमानों के बैंक खाते हैं उन्हें भी कर्ज नहीं मिलता.

पश्चिमी अहमदाबाद जुहापुरा इलाके को 1972 की बाढ़ में उजड़े लोगों को बसाने के लिए विकसित किया गया था. यहां के लोगों से शुरुआती बातचीत में यह लगता है कि सब कुछ ठीक है, लेकिन हल्का-सा भी कुरेदने पर यह अहसास हो जाता है कि ये लोग किस कदर उपेक्षित और दुखी हैं.
क्रिसेंट स्कूल का प्रबंधन देखने वाले आसिफ खान पठान कहते हैं, ‘यहां नगर निगम के पानी की आपूर्ति नहीं होती. हमें बच्चों को पानी पिलाने के लिए बोरवेल खुदवाना पड़ा है.’ इस इलाके में तकरीबन तीन लाख लोग रहते हैं, लेकिन यहां सिर्फ चार सरकारी स्कूल हैं. हर साल पहली कक्षा में दाखिला लेने वाले छात्रों की संख्या 3,000 होती है और सरकारी स्कूल इन्हें जगह देने के लिए नाकाफी हैं.

जुहापुरा के लोगों की यह शिकायत भी है कि मुसलमानों के इलाकों को बैंकों ने क्रेडिट कार्ड देने के मामले में काली सूची में डाल रखा है. शिकायत की पुष्टि इस बात से भी होती है कि एक बैंक अधिकारी को उसके बैंक ने ही क्रेडिट कार्ड देने से मना कर दिया. निजी बैंक में काम करने वाले एक मध्यम दर्जे के अधिकारी पहचान उजागर नहीं करने की शर्त पर बताते हैं, ‘मैं जिस बैंक में काम करता था उसने ही मेरे क्रेडिट कार्ड आवेदन को खारिज कर दिया. मेरे साथ काम करने वालों ने मुझे ऐसा संकेत दिया कि जुहापुरा का पता होने की वजह से मुझे आवेदन मंजूर होने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए थी.’

वैज्ञानिक डॉ एचएन सैयद की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. 2004 में जब वे हिंदू बहुल मणिनगर इलाके के अपने सरकारी आवास में रहते थे तो स्टेट बैंक के एक कर्मचारी ने उन्हें क्रेडिट कार्ड देने के लिए संपर्क किया था. कुछ महीने बाद ही जब वे रिटायर हो कर जुहापुरा चले गए तो उनका क्रेडिट कार्ड का आवेदन खारिज कर दिया गया. 2004 तक मेडिकल शोध संस्थान ‘नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ऑकुपेशनल हेल्थ’ (एनआईओएच) के निदेशक रहे सैयद बताते हैं, ‘बैंक के एक अधिकारी ने फोन पर इस घटना के लिए अफसोस जताया था और इसे एक निचले अधिकारी की गलती बताया था, लेकिन मैंने अपनी अप्लीकेशन वापस ले ली है. मैं दुबारा कोशिश नहीं करना चाहता.

गुजरात इस बात पर गर्व करता है कि वहां दूर-दराज के गांवों तक भी 90 फीसदी पक्की सड़कें हैं, 98 फीसदी विद्युतीकरण हो चुका है, 86 फीसदी पानी की सप्लाई पाइप के जरिए होती है और संसाधनों के मामले में यह देश में सबसे विकसित है. लेकिन जुहापुरा में सड़कों तक पर बिजली नहीं है, पानी की सप्लाई नहीं है और मोहल्ले के भीतर सड़कें भी नहीं हैं. जुलाई, 2006 में जुहापुरा को अहमदाबाद नगरपालिका में शामिल किया गया था. तब से यहां के बाशिंदों ने नियमित तौर पर संपत्ति और पानी का टैक्स अदा किया है. गयासपुर, मकरबा, जुहापुरा और वसना जैसे मुसलिम बहुल इलाके इन सुविधाओं से कोसों दूर हैं.

अहमदाबाद की जुमा मस्जिद के पेश-ए-इमाम शब्बीर आलम के नेतृत्व में मुसलिम नेताओं, कारोबारियों और चांद कमेटी के सदस्यों का एक प्रतिनिधिमंडल अप्रैल में मोदी से मिला था. प्रतिनिधिमंडल के सदस्य कारोबारी उस्मान कुरैशी बताते हैं, ‘बातचीत सही दिशा में जा रही थी, लेकिन जैसे ही हमने स्कूलों में अल्पसंख्यकों के लिए छात्रवृत्तियों की बात की, मोदी इसे पक्षपातपूर्ण बताने लगे. जब हमने दंगों के दौरान नष्ट किए गए वली दकनी के मजार को फिर से बनाने की बात की, तो उन्होंने मानने से ही इनकार कर दिया कि वहां कभी  मजार था. हम अपमानित होकर लौट आए.’

2002 के दंगों में अपना भाई गंवाने के बाद नरोदा पाटिया से विस्थापित होने के बाद यहां कूड़ा जमा करने के मैदान के पास की जमीन पर आकर बसने वाली अफसाना बानो कहती हैं, ‘यहां गटर भी नहीं है. हमें पीने के लिए खारा पानी मिलता है. वे मैदान में कूड़ा जलाते हैं और हमारे घर धुएं से भर जाते हैं.’ 2002 से ही बॉम्बे होटल कम्युनिटी में स्वयंसेवक की भूमिका निभा रहे शाह नवाज कहते हैं, ‘इससे सिर्फ उन्हीं मुसलमानों को फायदा होगा जिन्होंने उनके मंच पर जाकर सद्भावना दिखाई है. बाकी किसी को कुछ भी नहीं मिलने वाला.’ शाह नवाज के गुस्से का वाजिब कारण भी है. उनका मानना है कि मोदी की सरकार सिर्फ बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराने के मामले में ही मुसलमानों के साथ भेदभाव नहीं करती, वह अपनी संवैधानिक जिम्मेदारियों का भी उल्लंघन करती है.

शाह नवाज रंजरेज समुदाय से आते हैं. अविकसित जनजाति विभाग ने उनका ओबीसी प्रमाणपत्र निरस्त कर दिया था, जिसकी वजह से उन्हें बीच में ही पढ़ाई छोड़नी पड़ी. वे बताते हैं, ‘सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग की सीट पर मैंने बीएड की ट्रेनिंग के सात महीने पूरे कर लिए थे. अचानक अविकसित जनजाति विभाग ने चिट्ठी भेजी कि वे रंगने का काम करने वालों के लिए गुजराती के शब्द ‘गलियारा’ को मान्यता देते हैं, लेकिन ‘रंगरेज’ को नहीं.’ डिग्री पूरी होने के बस दो महीने पहले ही उनका दाखिला खारिज कर दिया गया.

परंपरागत बुनकर जुलाहे, अंसारी भी मोदी सरकार के दुष्चक्र में फंसे हैं और अपने को सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़ी जाति मनवाने की लड़ाई लड़ रहे हैं. अंसारियों का कहना है कि मोदी सरकार उनकी अलग-अलग उपशाखाओं द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पर्यायवाची जातिसूचक नामों को मान्यता न देकर उन्हें उनके अधिकारों से वंचित कर रही है. जबकि मंडल कमीशन ने राज्य सरकारों को निर्देश दिया था कि वे इसे मान्यता दें. राज्य सरकार मुसलमान जुलाहों को तो ओबीसी के रूप में मान्यता देती है, लेकिन इसी जाति द्वारा अंसारी शब्द इस्तेमाल करने वालों को वह मान्यता नहीं देती.

यह भी विडंबना ही है कि डीयूटी ने 2005 में यह स्वीकार कर लिया था कि जुलाहा अंसारी, मुसलमान जुलाहा का ही पर्यायवाची शब्द है. ‘संस्था जुलाहा मुसलमान समाज’ ने सरकार को इस संबंध में एक ज्ञापन दिया था. इसके बाद डीयूटी के निदेशक और सामाजिक न्याय विभाग के मुखिया को लेकर एक जाति पुनरीक्षा समिति बना दी गई. इस समिति ने गुजरात विद्यापीठ ट्राइबल रिसर्च ऐंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट से इस मामले की जांच करवाई. इस समूह के निष्कर्ष एंथ्रोपोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और मंडल कमीशन की गुजरात के लिए बनी केंद्रीय लिस्ट से मिलते हैं. ये सब अंसारियों के इस दावे का समर्थन करते हैं कि वे और मुसलमान जुलाहा एक ही जाति हैं, जिन्हें ओबीसी का दर्जा हासिल है. अपने ही विभागों के इन निष्कर्षों के बावजूद मोदी के ऑफिस ने मामले को 30 अक्टूबर, 2006 और दो जनवरी, 2007 को इस मामले को ओबीसी कमीशन को भेज दिया. लेकिन, कमीशन ने इस मामले से हाथ जोड़ लिया है. उसका कहना है कि कोई नाम किसी जाति का पर्यायवाची है या नहीं, यह तय करना उसके नहीं बल्कि मुख्यमंत्री कार्यालय के प्राधिकार में आता है.

2002 में गुजरात के कुल 26 जिलों में से 16 में 4,500 एफआईआर दर्ज की गई थीं. 12 जिलों में दंगा करने, आगजनी और बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों की शिकायतें थीं. लेकिन दो साल के भीतर ही गुजरात पुलिस ने उनमें से 2,000 मामले यह रिपोर्ट लगाते हुए बंद कर दिए कि घटनाएं तो हुईं, लेकिन आरोपित या तो फरार हैं या फिर उनकी पहचान नहीं की जा सकती.

अगस्त, 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि इन मामलों की गहरी छानबीन होनी चाहिए. पुलिस की दंगा सेल के आंकड़ों के अनुसार जिन 2,017 मामलों पर विचार किया गया उनमें से 1,958 मामले फिर से जांच के लिए खोले गए. इस साल जून तक 117 मामलों में 1,299 लोगों को गिरफ्तार किया गया. उधर सितंबर, 2009 के एक आंकड़े के मुताबिक जिन मामलों में गिरफ्तारियां हुई हैं उनकी संख्या 117 है.  पिछले दो साल में बाकी बचे मामलों में पुलिस ने एक भी गिरफ्तारी नहीं की है.

राज्य सरकार जुलाहा को तो ओबीसी की मान्यता देती है, लेकिन इसी जाति में अंसारी लिखने वालों को नहीं

65 वर्षीय रजाकभाई इस्माइलभाई घाउची साबरकांठा जिले के हलोदर गांव के किसान हैं. उनका घर लिंबादिया चोकरी से 20 किमी दूर है. 2002 में इसी लिंबादिया चोकरी में हुए जनसंहार में 75 लोगों की हत्या कर दी गई थी. उन्हें आज भी याद है कि किस तरह एक दंगाई भीड़ ने उनके घर में आग लगा दी थी. तीन हफ्ते तक छिप कर रहने के बाद जब वे बाहर आए तो उन्होंने 14 लोगों के खिलाफ एफआईआर लिखवाने की कोशिश की. इनमें पड़ोस के कांग्रेसी विधायक का भी नाम था, जिसे उन्होंने लपटों की रोशनी में पहचान लिया था.

घाउची ने इन 14 लोगों के खिलाफ मालपुर पुलिस स्टेशन, मोदासा सर्किल पुलिस स्टेशन, डीएसपी व कलेक्टर के ऑफिस और मानवाधिकार आयोग में एफआईआर लिखवाने की कोशिश की, लेकिन नाकाम रहे. उन्होंने 2003 में गांव में मोदासा के इंस्पेक्टर के दौरे के दौरान एक बार फिर कोशिश की. पुलिस ने एफआईआर तो लिखी, लेकिन उनके भाई रसूल के खिलाफ और बाकी के लिए अज्ञात भीड़ को जिम्मेदार ठहरा दिया. कुछ महीनों के भीतर ही केस फिर से बंद कर दिया. 2004 में जब केंद्र की संस्था सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज ने काम करना शुरू किया तब जाकर मामले को फिर से खोला जा सका. 2007 में गांधीनगर से दंगा सेल की टीम आई और वापस गई. उनका पक्ष सुने बिना ही एक बार फिर से इस मामले को बंद कर दिया गया. जब वे टीम से मिलने पहुंचे तो उन्हें दो गवाह अपने साथ लाने के लिए पुलिस ने वापस भेज दिया. गवाहों के साथ वापस पहुंचने तक टीम जा चुकी थी. लेकिन दंगा सेल के अनुसार, ‘प्रार्थी रजकभाई और दूसरे गवाहों से पूछताछ की गई. उन्होंने आरोपित के बारे में कोई सूचना नहीं दी. दस अप्रैल, 2007 को जांच बंद कर दी गई.

साबरकांठा में फिर से खोले गए 32 मामलों पर निगाह रख रहे न्यायगृह के संयोजक शेख उस्मान भी खुश नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘गवाहों की मौजूदगी  पुलिस की जिम्मेदारी है, न कि शिकायतकर्ता की. शिकायतकर्ता के मौके पर मौजूद होने के बाद भी उससे बातचीत किए बिना वे मामले को बंद कैसे
कर सकते हैं?’

इसी जून में उस्मानभाई ने राज्य सूचना आयोग के जरिए एक सीडी हासिल की है, जिसमें 11 गवाहों से पांच मिनट से भी कम समय में पूछताछ समाप्त करके पुलिस अधिकारी मामले को दोबारा बंद करते दिख रहे हैं. अगस्त, 2008 की एक दूसरी रिकॉर्डिंग में दिखाई पड़ता है कि मुदासा तालुका के तिनतोई गांव के व्यापारी नूर मोहम्मद से पुलिस उन सात लोगों के सामने पूछताछ कर रही है जिन पर उसने 2002 में अपनी दुकान लूटने का आरोप लगाया था.

दंगा पीड़ित न तो इंसाफ पा सके हैं और न ही ये मामले समाप्त हो रहे हैं. मोदी के उपवास के बारे में पूछने पर कई मुसलमानों को लगता है जैसे उन्हें दस साल की मोहलत और मिल गई है. वे इसी की खुशी मना रहे हैं. वहीं कई लोगों का मानना है कि पहले तो मोदी को सजा मिलनी चाहिए. उसके बाद वे मोदी को माफ करेंगे या नहीं, यह तय करना उनका हक है.