सत्य-अहिंसा की चौपाल में अपने प्रतिरोध को प्रखर और मानवीय करें

इस समय ज़्यादातर इलाहाबाद खुदा पड़ा है। कुंभ की तैयारी में चौंक और सड़कें चौडी हो रही हैं। बड़े पैमाने पर पेड़ बेरहमी से काटे जा रहे हैं। पहले से बहुत कुछ बदल गया है। सिविल लाइंस पहले से पूरी तरह बदल कर अपरिचित सी हो गई थी। अब पूरा इलाहाबाद ही हम जैसों के लिए अनपहचाना हो जाएगा। वैसे भी अनैतिहासिक रूप से अब प्रयाग राज होना है।

बहरहाल, वहां एक दिन के लिए खुर्शीद स्मृति संवाद के अंतर्गत ‘गांधी: विचार और स्वप्न’ विषय पर बोलने जाने का अवसर मिला। दिल्ली में बड़े विश्वविद्यालयों में खुले विचार-विमर्श के लिए जैसे सभागार आदि नहीं मिलते। अगर भूल से मिल भी गए तो ऐन वक्त पर उनका ‘एलाटमेंट’ रद्द कर दिया जाता है। इलाहाबाद में भी अब यही हालत है। इंस्टिच्यूट फार सोशल डेमोक्रेसी ‘ और ‘मुहिम’ को हमारी सभा, साधना सदन, सेंट जोसेफ कॉलेज में करनी पड़ी। बड़ी संख्या में श्रोता आए। इनमें युवा काफी थे। पहले लोकप्रिय और आसानी से मिल जाने वाली जगह हिंदुस्तानी अकादमी की होती थी। इस बीच जो सुनते हैं हिंदुस्तानी से हिंदी और अब हिंदू अकादमी हो गई है।

गांधी पर आज विचार इस भीषण और दुखद सच्चाई को हिसाब में लिए बिना संभव नहीं है कि हमारी समय विचार की अवमानना और असहमति के दमन का बुद्धि-ज्ञान के बढ़ते विरोध का, कोसल में ‘विचारों की कमी’ का, राजनीति से नीति के लगभग लोप का, धर्मो में बढ़ती हिंसक कट्टरता और परस्पर विसंवादिता का, सार्वजनिक संवाद के गाली-गलौच में बदल जाने का, छीजती नागरिकता का और हर दिन नए दूसरों के बनाए जाने का है। गांधी किसी न किसी तरह इन सभी मुद्दों पर प्रतिपक्ष बन कर उभर रहे हैं।

ऐसा प्रतिपक्ष जो बिडंबनापूर्ण ढंग से इस माहौल और चकाचौंध में बिलकुल अप्रासंगिक लगते हैं। जिस तरह की बात फैलाई जा रही है कि कोई विकल्प नही है उसके बरक्स गांधी विकल्प की संभावना आज भी, अपने 150 वे वर्ष और हत्या के 70 साल बाद प्रबल संकेत देते हैं।

गांधी का स्वप्न एक क्रांतिकारी उपक्रम था। इसे दुर्भाग्य से कभी पूरी तरह से आजमाया ही नहीं गया। क्रांति के जो महान स्वप्न, इतिहास के धूरे पर पड़े हुए हैं उनसे गांधी स्वप्न अलग है और इसलिए अभी भी अमल में जाया जा सकता है। उसने अपने को अनावश्यक साबित नहीं किया।

हिंसा के उस दौर में जब दो महायुद्ध हो रहे थे हिंसा नरसंहार के समय से अहिंसा का अनूठा प्रस्ताव और व्यवहार गांधी ने किया था। गणेश देवी के अनुसार गांधी ने सत्य की अवधारणा को सार्वजनिक जीवन में स्थापित कर उसे करूणा, पर पीड़ा, अंत:करण और निर्मयता से जोड़ा। मातृभाषा में अटल विश्वास रखने वाले गांधी ने अपने सभी मौलिक गं्रथ गुजराती में लिखे। उन्होंने धर्मों का एक परस्पर संवादी लोकतंत्र प्रस्तावित किया। उन्होंने बिना अर्थ और वित्त का सहारा लिए साधारण का सशक्तिकरण किया। गांधी ने दरअसल सत्य-अहिंसा की एक अनंत चौपाल बनाई जिसमें जाकर हम आज भी अपने प्रतिरोध को प्रखर और मानवीय कर सकते हैं।

परंपरा की पाठशाला

परंपरा के नाम पर आजकल अनेक ऐसी व्याख्याएं हो रही हैं जो अपढ़, अज्ञान या वैचारिक -राजनैतिक बदनीयती से उपजती हैं। तकनॉलॉजी ने एक ऐसा वर्तमान और उसकी सुलभता रच दी है कि कुछ भी याद करना ज़रूरी नहीं रह गया है। गूगल युवाओं के लिए सर्वज्ञ हो चला है। ऐसे में लगभग 45 युवा लेखकों को दो दिनो के ‘युवा-18’ में जो रज़ा फाउंडेशन और कृष्णा सोबती, शिवनाथ निधि द्वारा दिल्ली में आयोजित था। वहां हिंदी परंपरा की कुछ कालजयी कृतियों को फिर से पढऩे-सुनने और अपने समय के लिए उनका अर्थ खोजने की कोशिश करते देखने से मुझ हताश वृद्ध को नए विश्वास और उत्साह से भर दिया।

विश्वास कि आज अवसर हो तो युवा लेखक ध्यान से पढ़ सकते हैं संवेदना और सूक्ष्मता के साथ और उत्साह कि उन्हें यह कोशिश सार्थक और ज़रूरी लगती है। ‘विनय पत्रिका’ (तुलसीदास), भ्रमर गीत सार (सूरदास), देव और घनानंद के काव्य, श्यामा स्वप्न (ठाकुर जगमोहन सिंह) और ‘अंधेर नगरी’ (भारतेंदु हरिश्चंद्र) ऐसी कृतियां नहीं है जिन पर आज के लेखकों का ध्यान सहज जाता हो। अपनी पृष्टभूमि, भाषागत कठिनाइयों, शैलीगत दुरूहताओं आदि के कारण उनसे उलझना आसान नहीं है।

दिलचस्प यह देखना था कि यह चुनौती अधिकांश युवाओं ने स्वीकार कर ली और उसका माकूल जवाब देने में वे कामयाब रहे। जिन युवाओं को इस आयोजन में आमंत्रित किया गया था उनके सामने शुरू से स्पष्ट था कि उनसे क्या अपेक्षा है। उनमें से बहुत कम ने अपनी परंपरा के इस समकालीन अवगाहन से कन्नी काटी।

 हर सत्र डेढ़ घंटे का होता था और एक कृति पर केंद्रित। लगभग सात या आठ प्रस्तुतियां और उन पर टिप्पणी करने के लिए एक वरिष्ठ लेखक जिनमें गोपेश्वर सिंह, सुधीश पचैरी, पुरूषोत्तम अग्रवाल, अपूर्वानंद, रामशंकर द्विवेदी और रंगकर्मी कीर्ति जैन शमिल थे। पर ज़्यादातर प्रस्तुतियों में कोई न कोई नई बात उभरी और आपस में या पूववर्ती आलोचकों के पाठों से असहमति भी रही। बरक्स यह रहा कि एकत्र युवा समाज ने कृतियों के अनेक अंश मौखिक ऊर्जा के साथ पढ़े जाते सुने। हमारे यहां पुरानी कविता के पाठ के। ऐसे सामूहिक पाठ के अवसर अब कितने कम हो गए हंै।

यह स्थिति भी साफ-साफ उभरी कि प्राय सभी युवा लेखक इस समय जिस व्यवस्था का दौर चल रहा है उससे घोर असहमति रखते हैं। उन्होंने कई प्राचीनों जैसे तुलसीदास आदि का जो पुनर्वियोजन किया गया है, उसकी सख्त आलोचना की। भले ही जब किसी ऐसी कृति का कुपाठ होता है तो उस कृति में इसकी संभावना होने का एहतराम भी किया। उनमें से अनेक को यह भी ठीक ही लगा कि परंपरा के हर तत्व को जस का तस स्वीकार नहीं किया जा सकता है। उनमें ऐसा कुछ भी होता ही है जिसे खारिज किया जाना चाहिए।

यह बात भी प्रगट हुई कि जो युवा एकेदेमिक काम में लगे हैं वे पूर्ववर्तियों ने जो लिखा उसे विचार में लिए बगैर अकादमिक भाषा में ही बात करते हैं। जबकि गैर अकादमिक लेखक इन कृतियों से सीधे उलझे और कई ने यह माना कि वे भौंचक भी हुए। एकाध ऐसे भी निकले जिन्होंने तथाकथित राजनीतिक दुष्परिणाम के अंदेशे से तुलसीदास को पढऩे से ही इंकार कर दिया। बहरहाल, कालजयी और युवा ‘शीर्षक से एक पुस्तक छपी जिसमें 32 युवा लेखकों के लेख शामिल हैं। इसका एक संस्करण जल्दी ही प्रकाशित होने जा रहा है। शायद हिंदी में पहली बार इतने सारे युवा लेखकों के लेख कुछ कालजयी कृतियों पर इस संकलन में शामिल होंगे। कुछ युवाओं को पुराने लेखकों – कवियों पर पूरी पुस्तक लिखने को भी कहा गया है। ‘आगे-आगे देखिए होता है, क्या?

गांधीनाम

पहले मुझे इल्म नहीं था कि उर्दू शायर अकबर इलाहाबादी ने गांधी पर एक लंबी नज्म ‘गांधीनामा’ अपनी मौत के कुछ महीने पहले लिखी थी। आलोचक अली अहमद फातमी के सौजन्य से देवनागरी में हिंदुस्तानी अकादमी द्वारा प्रकाशित इसकी एक प्रति मिल गई। यह कविता 1921 में लिखी गई थी और उर्दू में पहली बार 1948 में प्रकाशित हुई।

गांधीनामा की शुरूआत में ही लिखा शेर है-

‘इंकलाब आया नई दुनिया नया हंगामा है

शाहनामा हो चुका अब दौर ए गांधीनामा है।

अकबर ने यह भी स्पष्ट कहा था-

मदखूला-ए- गवर्नमेंट अकबरी अगर न होता

इसको भी आम पाते गांधी की गोपियों में।

उन्होंने गांधी -दर्शन की हिमायत भी की-

लश्करे गांधी को हथियारों की कुछ हाजत नहीं

हों मगर बेइन्तहा सब्र ओ कनाअत चाहिए।

इस कविता में उस समय आ रहे राजनीतिक मुद्दों और घटनाओं पर भी बीच -बीच में परेशान करने वाली जिज्ञासाएं भी हैं-

क्यों दिले गांधी से साहब का अदब जाता रहा?

बोले: क्यों साहब के दिल से खौफ रब जाता रहा है?

कविता का समापन इन पंक्तियों से होता है:

साइंस की तरक्की तो फैजे इर्तेका है

लेकिन ज़हूर गांधी फरमाइए ये क्या है?