अफसोस, सत्य फिर पराजित होता दिख रहा है
आजाद भारत के निर्माताओं ने पता नहीं क्या सोचकर राष्ट्र का आदर्श वाक्य चुना : ‘सत्यमेव जयते’. इसके साथ ही, थाने-कचहरियों से लेकर तमाम सरकारी इमारतों और दफ्तरों पर तीन सिंहों के सिर वाले अशोक स्तंभ के ठीक नीचे यह आदर्श वाक्य चुन दिया गया : ‘सत्यमेव जयते’. यह और बात है कि इन सरकारी इमारतों में सच का गला सबसे ज्यादा घोंटा गया. समय के साथ सच परेशान ही नहीं, पराजित दिखने लगा. कुछ इस हद तक कि लोगों की निराशा और हताशा बेकाबू होने लगी. उनका गुस्सा अलग-अलग शक्लों में फूटने लगा.
इस तरह स्टेज पूरी तरह सेट हो चुका था. ‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत…’ यानी अब भारत को जरूरत थी एक अवतार की जो उसे इस अधर्म से निकाले और सत्य की जीत में खोई आस्था को बहाल करे. लेकिन अब समय बदल चुका है. यह कलियुग यानी मीडियायुग है. इस युग में अवतार पैदा नहीं होता बल्कि गढ़ा जाता है. अब ईश्वरीय गुणों वाले महानायक देवलोक से नहीं आते, टीवी स्टूडियो या ओबी वैन में जन्म लेते हैं. वे आसमान से नहीं उतरते बल्कि आकाश- तरंगों से घर-घर पहुंच जाते हैं.
इस तरह मीडिया के कंधे पर चढ़ पहले अन्ना हजारे और अब आमिर खान आए हैं, एयरटेल और एक्वागार्ड के सौजन्य से स्टार प्लस और दूरदर्शन पर ‘सत्यमेव जयते’ लेकर. यह कहते हुए कि ‘जब दिल पर लगेगी, तभी बात बनेगी’ .जबरदस्त प्रचार और मार्केटिंग अभियान के साथ शुरू हुए ‘सत्यमेव जयते’ के पहले एपीसोड में आमिर ने कन्या भ्रूण हत्या का मुद्दा जोर-शोर से उठाया.
इस शो में क्या नहीं है? एक ज्वलंत मुद्दा है. ओफ्रा विनफ्रे शैली में पीड़ितों की सच्ची आपबीतियां हैं. आमिर का पर्सनल टच और स्टारडम है. डाॅक्टरों की पोल खोलने वाला एक पुराना स्टिंग और उसके पत्रकारों की हकीकत बयानी है. कन्या भ्रूण हत्या के सामाजिक पहलुओं और डाॅक्टरी खेल पर विशेषज्ञों की राय थी. कुछ तथ्य और तर्क थे और बहुत ज्यादा भावनाएं और आंसू थे. सबसे बढ़कर मुद्दे का तुरत-फुरत और आसान ‘फास्टफूड’ समाधान है. इस तरह दर्शकों के लिए विरेचन (कैथार्सिस) का पूरा इंतजाम है.
नतीजा, जैसा कि दावा था, ‘बात दिल पर ही लगी’ और मीडिया पंडितों की मानें तो ‘बात बन भी गई.’ ‘सत्यमेव जयते’ को टीवी का नया गेम चेंजर माना जा रहा है. किसी को यह व्यावसायिक टीवी पर लोकसेवा प्रसारण की वापसी दिखाई दे रही है. कोई इसे टीवी में सामाजिक जिम्मेदारी का अहसास जगना बता रहा है. कुछ अति उत्साहियों को इसमें कन्या भ्रूण हत्या जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ एक नई सामाजिक क्रांति की शुरुआत दिखाई दे रही है. टीवी और आमिर खान को इस सामाजिक क्रांति का माध्यम बताया जा रहा है.
आमिर का ‘सत्य’ उस पितृसत्तात्मक सामंती-पूंजीवादी ढांचे तक नहीं पहुंच पाया जो महिलाओं को समाज में अवांछित या एक वस्तु भर बना देता है
चलिए, मान लिया कि टीवी का ह्रदय परिवर्तन होने लगा है. लेकिन यह भी तो बताइए कि रातों-रात टीवी की अंतरात्मा कैसे जग गई? यह सवाल इसलिए भी है कि कल तक टीवी को उसकी सामाजिक जिम्मेदारी की याद दिलाने पर चैनलों के जो संपादक/प्रबंधक उसे लोगों के मनोरंजन और बहलाव का माध्यम बताते नहीं थकते थे और दुनियावी परेशानियों में उलझे अपने दर्शकों को गंभीर मुद्दों से और परेशान करने के लिए तैयार नहीं थे, उनके अचानक ह्रदय परिवर्तन की वजह क्या है? सवाल इसलिए भी मौजूं है कि महिला अधिकारों और जागरूकता की बातों के बावजूद चैनलों और खुद स्टार पर अब भी सामाजिक रूप से ऐसे अनुदार और प्रतिगामी धारावाहिकों की भरमार है जिनमें महिलाओं की पितृ-सत्तात्मक/सामंती जकड़बंदियों का महिमामंडन होता है.
हैरानी की बात नहीं है कि आमिर के कन्या भ्रूण हत्या पर ‘सामाजिक क्रांतिकारी’ शो का नतीजा शंकराचार्य और धर्मगुरुओं की इस मांग के रूप में सामने आया कि गर्भपात पर पूरी तरह से रोक लगाया जाए. अब यह कौन याद दिलाये कि महिला आंदोलन ने लंबी लड़ाई के बाद अपने शरीर पर अपना हक और बच्चा पैदा करने या न करने का यानी गर्भपात का अधिकार पाया! इस अधिकार का मिलना सामाजिक क्रांति थी. लेकिन यहां तो इसे छीनने की मांग उठने लगी है. लेकिन इसका मौका ‘सत्यमेव जयते’ ने ही दिया है. आखिर कन्या भ्रूण हत्या जैसे जटिल और गंभीर सामाजिक अपराध के लिए आमिर ने कुछ लालची डाॅक्टरों, अल्ट्रासाउंड मशीनों, बेटा चाहने वाले सास-ससुर-पतियों को खलनायक और जिम्मेदार ठहराकर कानून के कड़ाई से पालन और अपराधियों के खिलाफ फास्ट ट्रैक कोर्ट का आसान समाधान पेश कर दिया. गोया जब डाॅक्टर और अल्ट्रा साउंड मशीनें नहीं थीं, बेटियों की हत्याएं नहीं होती थीं! और यह भी कि लोग कुलदीपक क्यों चाहते हैं? जाहिर है कि आमिर का ‘सत्य’ उस पितृसत्तात्मक सामंती-पूंजीवादी ढांचे तक नहीं पहुंच पाया जो महिलाओं को समाज और परिवार में अवांछित या एक वस्तु भर बना देता है. इस ढांचे को तोड़े और चुनौती दिए बगैर कन्या भ्रूण हत्या से लेकर दहेज हत्या तक महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार रोकना मुश्किल है.
लेकिन ‘सत्यमेव जयते’ का सच इससे मुंह चुराता दिखता है? यह व्यावसायिक टीवी की सीमा है. वह सामाजिक क्रांति का नहीं, उपभोक्ता क्रांति का माध्यम है. वह बदलाव का नहीं, यथास्थिति का माध्यम है. वह उसे चुनौती नहीं दे सकता जिससे उसे खाद-पानी मिलता है. इसीलिए वह सत्य में नहीं, आधे-अधूरे और सतही ‘सच’ में हल खोजता है जो वास्तव में हल नहीं, हल का आभास भर होता है.