संवैधानिक प्रमुखों में निम्नस्तरीय संवाद दु:खद
पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान सिंह ‘मान’ और राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित के बीच हुए विवाद ने एक बार फिर दो संवैधानिक संस्थाओं के बीच की नाजुक कड़ियों को उजागर कर दिया है। इसी तरह अन्य राज्यों में मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच तनाव का माहौल एक चलन-सा हो चुका है। बता रही हैं कुमकुम चड्ढा :-
जब सर्वोच्च न्यायालय ने नीति निर्माताओं को आगाह किया कि वे विमर्श के स्तर को निचले स्तर की दौड़ में न बदलें, तो यह देश में इस तरह के मुद्दे की निराशाजनक स्थिति को प्रतिबिंबित करता था। सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य विधानसभा का बजट सत्र बुलाने पर एक मुख्यमंत्री और एक राज्यपाल के बीच टकराव पर अपने फैसले में यह टिप्पणी की।
सवाल के घेरे में पंजाब
नाटकीय व्यक्तित्व : राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित और मुख्यमंत्री भगवंत सिंह मान। न्यायालय पंजाब विधानसभा का बजट सत्र 3 मार्च से बुलाने से राज्यपाल पुरोहित के इनकार के खिलाफ पंजाब सरकार की याचिका पर सुनवाई कर रहा था। कई तर्कों के बीच मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच संचार में परिपक्व राजनीतिक कौशल और शिष्टाचार की आवश्यकता पर न्यायालय की तरफ से की गयी टिप्पणियाँ सामने आयीं- ‘लोकतांत्रिक राजनीति में राजनीति मतभेद स्वीकार्य हैं और मुद्दों की इस दौड़ को निचले स्तर पर न ले जाएँ। संवाद के स्तर को घटिया होने की अनुमति दिये बिना संयम और परिपक्वता की भावना के साथ काम किये जाने की जरूरत है।’ बेंच ने कहा कि जब तक इन सिद्धांतों को ध्यान में नहीं रखा जाता, तब तक संवैधानिक मूल्यों का प्रभावी कार्यान्वयन खतरे में पड़ सकता है।
ऐसा करते समय न्यायालय ने मान और पुरोहित, दोनों की भूमिका की आलोचना की कि वे दोनों अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में समझदार नहीं हैं। यदि मान को कुछ मुद्दों पर राज्यपाल को जानकारी देने में विफल रहने के लिए फटकार लगायी गयी, तो समान रूप से पुरोहित द्वारा विधानसभा सत्र बुलाने से इनकार करने के फैसले को भी अस्वीकार किया गया।
राज्यपाल को यह याद दिलाते हुए कि वह विधानसभा का सत्र बुलाने के लिए कर्तव्यबद्ध थे, क्योंकि उनकी यह शक्ति विवेकाधीन नहीं थी। न्यायालय ने रिकॉर्ड किया कि ट्वीट की भाषा, तेवर और मुख्यमंत्री के पत्र ने बहुत कुछ वांछित होने के लिए छोड़ दिया।
मान ने पहले राज्यपाल के सवालों का जवाब देने से इनकार कर दिया था और पंजाबी में ट्वीट किया था कि वह राज्यपाल के प्रति जवाबदेह नहीं हैं- ‘संविधान के अनुसार, मैं और मेरी सरकार 3 करोड़ पंजाबियों के प्रति जवाबदेह हैं; न कि केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त किसी राज्यपाल के प्रति। इसे मेरा जवाब समझिए।’ मान ने राज्यपाल को लिखे अपने पत्र और अपने ट्वीट दोनों में जिस भाषा का इस्तेमाल किया, उसका उल्लेख करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने असंयमित शब्द का इस्तेमाल किया था।
न्यायालय के अलावा विधानसभा में भी राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच राजनीतिक खींचतान चली थी। यह बजट सत्र का पहला दिन था, जिसमें विधायकों और राज्यपाल के बीच तीखी नोकझोंक हुई। और इस बार मुख्यमंत्री या उनकी पार्टी नहीं, बल्कि विपक्ष के नेता प्रताप सिंह बाजवा थे; जिन्होंने राज्यपाल द्वारा राज्य सरकार को मेरी सरकार के रूप में संदर्भित करने पर आपत्ति जतायी थी।
आधार : आम आदमी पार्टी सरकार ने आपको उनमें से एक के रूप में स्वीकार नहीं किया है और आपके द्वारा उठाये गये मुद्दों पर प्रतिक्रिया नहीं दी है। एक बार जब राज्यपाल ने ‘मेरी सरकार’ का उपयोग करने से मना कर दिया, तो मान ने जोर देकर कहा कि उन्हें इस शब्द का उपयोग करना चाहिए। चाहे जो भी हो, कटुता आज का क्रम है, जैसा कि यह था। और यह पंजाब, मान या पुरोहित तक सीमित नहीं है। ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ राज्यपालों का निर्वाचित मुख्यमंत्रियों के साथ टकराव होता है। जहाँ तक आम आदमी पार्टी की बात है, तो वह दो राज्यों में शासन करती है और दोनों में उसका राज्यपाल से मतभेद है।
हालाँकि पंजाब मुख्यमंत्री बनाम राज्यपाल के इस तरह के भद्दे झगड़ों में नवीनतम उदाहरण है, इसका मंच आप के प्रमुख अरविंद केजरीवाल द्वारा निर्धारित किया गया था, जिन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में केंद्र शासित प्रदेश के उप राज्यपाल के साथ कई मुद्दों पर तलवारें खिंची हैं। राजभवन के रहने वाले बदल गये हैं; लेकिन स्थिति वैसी ही है। नजीब जंग हों, अनिल बैजल हों या विनय कुमार सक्सेना, आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं। जहाँ उप राज्यपाल के कार्यालय ने मोहल्ला क्लीनिक सहित आम आदमी पार्टी की कुछ पहल पर सवाल उठाये हैं, वहीं आम आदमी पार्टी ने उप राज्यपाल के कार्यालय पर भ्रष्टाचार और नौकरशाहों के बीच अवज्ञा को प्रोत्साहित करने और सरकार के साथ असहयोग करने का आरोप लगाया है।
नजीब जंग को याद करें, जिसमें केजरीवाल ने मुख्यमंत्री के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान आरोप लगाया था कि उपराज्यपाल ‘अपने राजनीतिक आकाओं के जनादेश का पालन कर रहे थे।’
केजरीवाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ कथित निकटता को लेकर जंग का उपहास उड़ाने का कोई मौका नहीं छोड़ा।
यदि केजरीवाल ने तब कार्यवाहक मुख्य सचिव की नियुक्ति को असंवैधानिक बताते हुए सवाल उठाया था या किसी अन्य की नियुक्ति के लिए प्रधान सचिव के कार्यालय पर ताला लगाने की हद तक चले गये थे, तो जवाब में जंग ने उनके इस आदेश को अमान्य घोषित कर दिया था। केजरीवाल और उनके डिप्टी रहे मनीष सिसोदिया ने तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी से शिकायत की और उपराज्यपाल पर पद को अपनी जागीर की तरह चलाने का आरोप लगाया था। जंग के इस्तीफा देने और अनिल बैजल के सत्ता संभालने के बाद भी कुछ $खास नहीं बदला। रस्साकशी जारी रही, चाहे वह 26 जनवरी की हिंसा सहित किसानों के विरोध या मंत्रियों को दरकिनार कर बैजल द्वारा किये गये फैसलों के बाद के मामलों के लिए विशेष अभियोजकों के चयन का मामला हो।
बैजल के उत्तराधिकारी विनय कुमार सक्सेना के बाद भी कुछ भी नहीं बदला। केजरीवाल ने कहा- ‘हमारा होमवर्क जाँचने के लिए उप राज्यपाल हमारे प्रधानाध्यापक नहीं हैं। उन्हें हमारे प्रस्तावों के लिए हाँ या न कहना होगा।’ उनका कहना था कि एक निर्वाचित सरकार कभी काम नहीं कर सकती है, यदि उसके पास निर्णय लेने की शक्ति नहीं है। आम आदमी पार्टी ने सक्सेना पर अवैध और अवांछित बाधाओं और हस्तक्षेपों का आरोप लगाया।
राज्यपालों के खिलाफ इस लड़ाई में आम आदमी पार्टी अकेली नहीं है। अन्य राज्यों के मुख्यमंत्री भी हैं, जो अपने-अपने राज्यों में राज्यपालों के साथ मौखिक द्वंद्व में लगे हुए हैं। दक्षिण में केरल, तमिलनाडु और तेलंगाना राज्य भी तूफान की चपेट में हैं। विचाराधीन सम्बन्धित मुख्यमंत्रियों में पिनराई विजयन, एम.के. स्टालिन और के. चंद्रशेखर राव हैं, जिनकी क्रमश: राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान, आर.एन. रवि और तमिलिसाई सुंदरराजन के साथ तकरार हुई है।
केरल से शुरुआत करते हैं। राज्यपाल खान पर प्रमुख कानून में देरी करने का आरोप है। माकपा द्वारा शासित राज्य सरकार नौ कुलपतियों के इस्तीफे की माँग करने वाले राज्यपाल के आदेश के विरोध में है। यहाँ तक कि लड़ाई न्यायालय तक पहुँच गयी। मुख्यमंत्री ने नाम न लेने का सहारा लिया और कहा कि राज्यपाल आरएसएस का औजार हैं।
मामला आगे बढ़ा, तो राज्यपाल खान ने मुख्यमंत्री पर दोहरे मानदंडों का आरोप लगाया। उन्होंने राज्य के वित्त मंत्री की उस टिप्पणी के लिए बर्खास्तगी की भी माँग की, जिसमें उन्होंने कहा था कि जो लोग उत्तर भारत के विश्वविद्यालयों से परिचित थे; वे दक्षिण के लोगों के तरीकों को नहीं समझते।
तमिलनाडु में राज्यपाल आर.एन. रवि ने तब सदन से वॉक आउट कर दिया, जब मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के एक प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया। राज्यपाल ने भाषण के कुछ हिस्सों को विशेष रूप से ‘शासन के द्रविड़ मॉडल’ शब्दों को छोड़ दिया था, जिससे सत्ता पक्ष का गुस्सा उभर आया। मुख्यमंत्री ने राज्यपाल को बाधित किया और बाद में एक प्रस्ताव पेश किया।
कई विधेयकों को मंजूरी देने से राज्यपाल के इनकार करने समेत कई मुद्दों पर डीएमके और उसके सहयोगियों का राज्यपाल से टकराव हो चुका है। राज्यपाल पर भाजपा की हिंदुत्व विचारधारा का प्रचार करने का आरोप लगाते हुए, पार्टी ने उन पर राज्य की राजनीति में हस्तक्षेप करने और ‘साम्प्रदायिक घृणा भड़काने’ का आरोप लगाया है।
तेलंगाना की राज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन ने राज्य सरकार पर उनकी आधिकारिक यात्राओं के दौरान आवश्यक प्रोटोकॉल से इनकार करने की शिकायत की है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया है कि राज्य सरकार के इशारे पर उनके फोन टेप किये जा रहे हैं।
यदि सत्तारूढ़ द्रमुक और उसके सहयोगियों ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के दरवाजे पर दस्तक दी है और रवि को बर्खास्त करने की माँग की है, तो केरल सरकार ने आरिफ मोहम्मद खान को राज्य के विश्वविद्यालयों के चांसलर के रूप में बदलने के लिए अध्यादेश का मार्ग प्रस्तावित किया है।
पूर्व की ओर देखें, तो ममता बनर्जी हैं, जो कभी न हार मानने वाली राजनेता हैं। वह उनमें से एक हैं, जो अनायास सड़कों पर उतर जाती हैं और पलटवार करने के लिए हमेशा तैयार रहती हैं। जब तक जगदीप धनखड़ पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे। मजाक में कहें, तो बनर्जी के राज्यपाल के साथ सम्बन्ध ‘मधुर’ थे। वह उन्हें ‘केंद्र की कठपुतली’ कहने की हद तक गयीं। धनखड़ भी कहाँ पीछे रहने वाले थे, जिन्होंने राज्य सरकार पर $कानून व्यवस्था, हिंसा और राज्यपाल के कार्यालय को अर्थहीन करने का आरोप लगाया।
और पुडुचेरी के मुख्यमंत्री वी. नारायणसामी और उपराज्यपाल किरण बेदी के बीच के विवाद को कौन भूल सकता है? बेदी पर राज्यपाल के कार्यालय भेजी जा रही सभी फाइलों को वापस करने का आरोप लगाते हुए नारायणसामी ने कहा कि बेदी पुडुचेरी के विकास को बाधित कर रही हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र से धन सुरक्षित करने के राज्य सरकार के कदम के खिलाफ बेदी के नकारात्मक रु$ख से राज्य के खजाने को राजस्व नुकसान हुआ है। बेदी पर ‘समानांतर सरकार चलाने और एक मुख्यमंत्री की तरह काम करने” का भी आरोप लगाया गया था। नारायणसामी ने यहीं नहीं रुकते हुए केंद्र पर राज्य में एक ‘राक्षस’ तैनात करने का आरोप लगाया, जो योजनाओं के कार्यान्वयन में बाधा डाल रहा था।
मौजूदा पदधारकों के विपरीत, चाहे वह रवि हों, खान हों या सुंदरराजन, बेदी को उनके पद से हटा दिया गया था। इस बीच धनखड़ को राज्यपाल पद से भारत के उप राष्ट्रपति के पद पर पदोन्नत किया गया।
यह वर्तमान व्यवस्था के बारे में क्या संकेत करता है? क्या यह राज्यपालों को चिंगारी भड़काने और गैर-भाजपा सरकारों के लिए राज्य चलाने को मुश्किल बनाने के लिए प्रोत्साहित कर रहा है? क्या ये बाधाएं सम्बन्धित राज्य के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही हैं और इस प्रकार लोगों की कठिनाई का कारण बन रही हैं? क्या राजनीति जो स्वीकार्य स्तर से नीचे चल रही है या सर्वोच्च न्यायालय को उद्धृत करें, तो निम्नस्तर पर जाने की होड़ है? क्या संवाद अपमानजनक है? या घटिया? क्या नाम लेकर बोलना नया तरीका है? क्या राज्यपाल एजेंडा संचालित हैं? क्या वे दिल्ली के आकाओं के अनुकूल हैं? या दिग्गज लालकृष्ण आडवाणी के वाक्य को कहें, तो जब झुकने के लिए कहा जाए, तो घिसटने की इच्छा रखना?
जबकि इस पर बहस जारी है, केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली सरकार को सभी बीमारियों की जड़ बताना भी अनुचित होगा। राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के बीच तकरार या यह कहें कि एक राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए पदधारियों की तैनाती होती है? जबकि राजनीति चल रही है और भाजपा यह सुनिश्चित करने के लिए दूसरों की तुलना में अधिक आक्रामक है कि उसके विरोधी लाइन पर चलें, यह मान लेना अनुचित होगा कि वास्तव में प्रत्येक राज्यपाल को राज्य सरकारों को काम न करने देने का फरमान होता है।
जैसा कि भाजपा की शैली में ऐसे अनकहे संदेश होते हैं, जिनसे उनके नामित, राज्यपाल या कोई अन्य अपनी बुद्धि और समझ के अनुसार कूटवचन (डिकोड) या व्याख्या करने की उम्मीद रहती है।
यह कहना कि राज्यपालों और गैर-भाजपा मुख्यमंत्रियों के बीच विवाद एक रणनीति का हिस्सा है; अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है। लेकिन इसे एक संयोग के रूप में पेश करना भाजपा की राजनीति को कम करके आंकने जैसा होगा। भगवा पार्टी हर गैर-भाजपा सरकार को निष्पक्ष और गलत तरीकों से हटाना चाहेगी। इसलिए राज्यपालों का उसकी लाइन पर चलना कोई आश्चर्य की बात नहीं होना चाहिए। अगर कुछ उसकी मंशा के अनुरूप चले हैं, तो यह दिल्ली में सत्तारूढ़ व्यवस्था को खूब भाता है।
यह कहने के बाद यह साबित करने के लिए पर्याप्त सुबूत हैं कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकारों ने भी दिल्ली में सत्ता के फरमान का पालन करने के लिए अपने नामितों का इस्तेमाल किया। गैर-विनम्र को पसंदीदा के साथ बदलने या उन लोगों को दरवाजा दिखाने के कई उदाहरण हैं, जो सत्ता में पार्टी के साथ तालमेल नहीं रखते थे।
सौम्य व्यवहार वाले डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में चार राज्यपालों को बर्खास्त कर दिया गया था, जब उन्होंने 2004 में प्रधानमंत्री का पद संभाला था। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार द्वारा नियुक्त उत्तर प्रदेश, हरियाणा, गुजरात और गोवा के राज्यपालों को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया था। उन्हें वफादारों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था, जिन्हें चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था। इनमें अन्य के अलावा बूटा सिंह शामिल थे, जिन्हें बिहार भेजा गया था। आर.एल. भाटिया को केरल और बलराम जाखड़ को मध्य प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया था।
गिनती करें, तो कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) ने एक दर्जन से अधिक राज्यों में राज्यपालों की अदला-बदली की और वफादारों को पुरस्कृत करते हुए उनका उनका पुनर्वास किया।
एल.के. आडवाणी के नेतृत्व में लोकसभा में एक चर्चा शुरू की गयी थी, जब भाजपा ने इन राज्यपालों को इस आधार पर हटाने के लिए तत्कालीन सरकार को फटकार लगायी थी कि ‘उन्होंने सत्ता और अपने सक्रिय राजनीतिक जीवन के दौरान पार्टी की राजनीतिक विचारधारा की तुलना में अलग राजनीतिक विचारधारा की वकालत की थी।’ उन्हें शायद पता ही नहीं होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज में भाजपा सन् 2014 में वही करेगी, जिसके लिए आडवाणी ने सन् 2004 में कांग्रेस को फटकार लगायी थी। तब उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के राज्यपालों ने त्याग-पत्र दिया था, जबकि महाराष्ट्र के राज्यपाल ने कहा था कि वह केवल लिखित आदेश का जवाब देंगे।
सन् 2004 के बिलकुल विपरीत, जब आडवाणी ने राज्यपालों को हटाने की निंदा की थी; 10 साल बाद उनके समकक्ष केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि सरकार चाहती थी कि कांग्रेस के नियुक्त लोग चले जाएँ और उनके शब्दों को दोहराएँ, तो कहा था- ‘अगर मैं उनकी जगह होता, तो मैं पद छोड़ देता।’ जब राज्यपालों को चुनने की बात आती है, तो वफादारी एकमात्र योग्यता होती है। हालाँकि यह बुनियादी है। दूसरा है सत्तारूढ़ व्यवस्था के हित के लिए स्थिति में हेरफेर करने की क्षमता।
एक के बिना दूसरा अधूरा-सा है। इसलिए पैकेज डील है- ‘हमारे साथ बने रहने के बाद हमारी बोली बोलें और हालात को हमारे मुताबिक चलाने में हमारी मदद करें।’ जब सरकारों को गिराने की बात आती है, तो राज्यपाल काम आते हैं। जैसा कि वे करते हैं, जब सरकारों में उठापटक करने की बात आती है।
सन् 2015 को याद करें, भाजपा ने विधानसभा सत्र को आगे बढ़ाने के लिए अरुणाचल प्रदेश में राज्यपाल जे.पी. राजखोवा का उपयोग करने और विधिवत निर्वाचित कांग्रेस सरकार को बर्खास्त करने और एक असन्तुष्ट के नेतृत्व वाली सरकार स्थापित करने की कोशिश की थी। आलोचकों को उद्धृत करें, तो यह भाजपा द्वारा समर्थित ‘कठपुतली शासन’ स्थापित करने का एक प्रयास था। याद करें कि राजखोवा ने भाजपा और अन्य के बाहरी समर्थन से विद्रोहियों की सरकार स्थापित करने के लिए कांग्रेस में विद्रोह का इस्तेमाल किया था।
विधानसभा अध्यक्ष पर महाभियोग चलाने की माँग के बाद राजखोवा ने मनमाने ढंग से विधानसभा सत्र एक महीने के लिए आगे बढ़ा दिया। विधायक जब विधानसभा पहुँचे, तो वहाँ ताला लगा मिला। एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए विधानसभा ईटानगर के एक होटल में बुलायी गयी थी। न्यायालय ने हस्तक्षेप किया। राज्यपाल को दोषी ठहराया गया और निर्णय पलट दिया गया।
ठीक ऐसा उत्तराखण्ड में हुआ था, जहाँ राज्यपाल ने संविधान के बजाय एक राजनीतिक फरमान का पालन किया, जिसके परिणामस्वरूप न्यायालय ने कदम बढ़ाया। मणिपुर और गोवा की क्रमश: दो महिला राज्यपालों नजमा हेपतुल्ला और मृदुला सिन्हा ने भी भाजपा के एजेंडे को आगे बढ़ाया।
वे केंद्र के एजेंट के रूप में काम करने के लिए आलोचना का केंद्र बने। उन्होंने विधानसभा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी कांग्रेस को पूरी तरह से दरकिनार करते हुए भाजपा सरकार स्थापित करने का मार्ग प्रशस्त किया। हेपतुल्ला और सिन्हा, दोनों ने ही सबसे बड़ी पार्टी को आमंत्रित करने के व्यापक रूप से स्वीकृत फॉर्मूले की जानबूझकर अनदेखी की। इसकी बजाय उन्होंने चुनाव के बाद के गठबंधनों को प्राथमिकता दी, जिससे स्पष्ट रूप से भाजपा को लाभ हुआ।
संयोग से मणिपुर 10 बार राष्ट्रपति शासन के अधीन रहा है; एक राज्य के रूप में देश में सबसे ज्यादा। सन् 1967 की शुरुआत से राज्य ने दलबदल और अस्थिरता देखी है। बिहार में भी राजद के सबसे बड़ी पार्टी होने के बावजूद राज्यपाल ने जद(यू)-भाजपा सरकार स्थापित करने के लिए सबसे बड़ी पार्टी के फार्मूले को नजरअंदाज कर दिया था।
इसी तरह मेघालय में एक साल बाद कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी; लेकिन राज्यपाल ने कोनराड संगमा की एनपीपी को अपना बहुमत साबित करने के लिए आमंत्रित किया। संगमा की पार्टी ने भाजपा और अन्य के साथ गठबंधन किया और उत्तर-पूर्वी राज्य में सरकार बनायी। हालाँकि कर्नाटक में राज्यपाल ने इस आधार पर भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया कि वह सबसे बड़ी पार्टी थी। तब कांग्रेस ने माँग की थी कि या तो मणिपुर, गोवा और मेघालय जैसे पिछले मामलों की तरह ही मानदंड अपनाये जाएँ, या इस तरह बनी सरकारों को खारिज कर दिया जाए। लेकिन सभी बुराइयों को भाजपा पर थोपना एकतरफा होगा। यह साबित करने के लिए पर्याप्त उदाहरण हैं कि पूर्व-भाजपा शासन के दौरान कई राज्यपालों की भूमिका संदिग्ध रही है; यदि यह इस तरह की स्थिति के लिए सही शब्द है। सन् 2005 में राज्यपाल ने 80 सदस्यीय विधानसभा में एनडीए के 41 विधायकों के दावे की अनदेखी करते हुए झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के प्रमुख शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलायी।
कोर्ट के फ्लोर टेस्ट का आदेश देने और सोरेन के बहुमत साबित करने में नाकाम रहने के बाद ही भाजपा के अर्जुन मुंडा ने मुख्यमंत्री के रूप में उनका स्थान लिया। उसी वर्ष बिहार के राज्यपाल बूटा सिंह ने जद(यू) और भाजपा के अधिकतम संख्या में विधायकों के समर्थन के दावे को खारिज करते हुए विधानसभा को भंग करने की सिफारिश की थी।
एक या दो दशक पहले की बात करें, तो कहानी बहुत अलग नहीं है। सन् 1996 में जब गुजरात में भाजपा के विधायकों ने मुख्यमंत्री सुरेश मेहता के खिलाफ बगावत कर दी, तो तत्कालीन राज्यपाल ने आदेश दिया कि वह सदन के पटल पर बहुमत साबित करें। उन्होंने किया; लेकिन राज्यपाल आगे बढ़े और राज्य में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की।
आठ साल पहले कर्नाटक के राज्यपाल ने जनता दल के मुख्यमंत्री एस.आर. बोम्मई को विधानसभा में अपना बहुमत साबित करने का अवसर नहीं दिया। अस्सी के दशक में जहाँ आंध्र प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल ने राज्य के वित्त मंत्री के मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव के खिलाफ विरोध का समर्थन किया। वहीं हरियाणा की तत्कालीन राज्यपाल ने लोकदल और भाजपा गठबंधन सरकार को बर्खास्त कर दिया और कांग्रेस को राज्य में सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया।
पद के दुरुपयोग की बात करते हुए यह स्वीकार करना होगा कि राज्यपाल के पद का राजनीतिकरण भाजपा की देन नहीं है। मोदी सरकार भले ही इस मुद्दे पर आरोपों में घिरी हो; लेकिन क्या केंद्र की किसी पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को इसी तरह की मूर्खता के लिए दोषमुक्त किया जा सकता है? इसलिए जब प्रधानमंत्री मोदी ने राज्यसभा में कहा कि केंद्र की कांग्रेस सरकारों ने संविधान के अनुच्छेद-356 का दुरुपयोग करके 90 राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया है, तो वह गलत नहीं थे।
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी पर एक तीखे हमले में मोदी ने कहा कि उन्होंने राज्य सरकारों को मन मुताबिक बर्खास्त कर दिया था और क्षेत्रीय नेताओं को कमजोर कर दिया था। मोदी ने कहा- ‘वे (कांग्रेसी) कहते हैं कि हम राज्यों को परेशान करते हैं; लेकिन उन्होंने 90 बार निर्वाचित राज्य सरकारों को गिरा दिया। एक कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने निर्वाचित राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए अनुच्छेद-356 का 50 बार इस्तेमाल किया। वह इंदिरा गाँधी थीं।’ मोदी ने कहा कि उन्होंने राज्य सरकारों को बर्खास्त करके अर्धशतक बनाया था।
अपने तीखे हमले को जारी रखते हुए मोदी ने याद किया कि कैसे केरल में वाम मोर्चा सरकार, आंध्र प्रदेश में एनटीआर, महाराष्ट्र में शरद पवार और एम.जी. रामचंद्रन की सरकारों को तमिलनाडु में इंदिरा गाँधी के शासन ने बर्खास्त कर दिया गया था। मोदी ने कहा- ‘मैं आज इस भरे सदन में उन्हें बेनकाब करना चाहता हूँ।’ मोदी गाँधी पर ही नहीं रुके, बल्कि उनके पिता जवाहरलाल नेहरू को भी विवाद में घसीट लिया।
नेहरू ने केरल में अब तक की पहली निर्वाचित कम्युनिस्ट सरकार को अपदस्थ कर दिया था। सन् 1959 तक उन्होंने छ: बार अनुच्छेद का प्रयोग किया, जबकि साठ के दशक में इसे 11 बार इस्तेमाल किया गया था। इंदिरा गाँधी के सत्ता में आने के बाद सन् 1967 से सन् 1969 के बीच कई बार अनुच्छेद-356 का इस्तेमाल किया; उन्होंने सन् 1970 से सन् 1974 के बीच 19 बार राष्ट्रपति शासन लगाया। एक बार सत्ता में आने के बाद जनता पार्टी ने भी इस उपकरण का खुलकर इस्तेमाल किया और सत्ता में आते ही नौ राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया।
सन् 1980 के बाद इंदिरा गाँधी के शासन में उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, ओडिशा और बिहार सहित नौ राज्य विधानसभाओं को भंग कर दिया गया था। कथित तौर पर इन विधानसभाओं के जीवन को कम करने का निर्णय उनके मंत्रिमंडल द्वारा लिया गया था। सत्ता में आने के बाद 1992-93 में प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने भाजपा की तीन सरकारों को बर्खास्त कर दिया। बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह की सरकार को भी बर्खास्त कर दिया गया था।
संसद में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा- ‘कांग्रेस देश को गुमराह कर रही है; लेकिन इस देश के लोग उनकी वास्तविकता जानते हैं। पार्टी को अपनी राजनीति की ज्यादा चिंता है।’
इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि इसमें सभी शासन एक साथ हैं। राजनीतिक लाभ के लिए संवैधानिक कार्यालयों का दुरुपयोग किया गया है और सभी शासनों के तहत संस्थागत पवित्रता का क्षरण हुआ है। लिहाजा किसी का भी एक दूसरे पर आरोप लगाना खुद को उजला दिखाने की कोशिश भर है। लेकिन केवल राज्यपाल ही क्यों? राष्ट्रपति के कार्यालय के बारे में क्या, जिसमें पसंदीदा और लचीले लोग अक्सर चुने जाते हैं? जनता की याददाश्त कम हो सकती है; लेकिन इतिहास गवाह है वी.वी.गिरि का राष्ट्रपति के रूप में चुनाव में राजनीति पूरे उफान पर थी।
मई, 1969 में राष्ट्रपति जाकिर हुसैन की मृत्यु के बाद राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होना था। कांग्रेस ने नीलम संजीव रेड्डी को मैदान में उतारा था; लेकिन देश के उप राष्ट्रपति वी.वी. गिरि ने निर्दलीय उम्मीदवारी की घोषणा करते हुए दावा ठोक दिया। कई लोगों ने उनके इस कदम की व्याख्या इंदिरा गाँधी द्वारा समर्थित कदम के रूप में की।
इसका प्रमाण इस तथ्य से मिलता है कि गाँधी ने रेड्डी के नामांकन पत्र पर हस्ताक्षर करने के बावजूद व्हिप जारी करने से इनकार कर दिया था। बल्कि उन्होंने रेड्डी के लिए प्रचार से दूर रहते हुए भी कांग्रेस सदस्यों से विवेक का इस्तेमाल करने को कहा था। एक बार जब गिरि चुनाव जीत गये, तो उन्होंने उन लोगों पर पलटवार किया, जिन्होंने उनकी 75 से अधिक उम्र के आधार पर उनका विरोध किया था। गिरि ने कथित तौर पर कहा था- ‘जो लोग कहते हैं कि मैं बहुत बूढ़ा हूँ, उन्हें इसका फायदा उठाने दो।’
इसके अलावा गिरि की जीत ने इंदिरा गाँधी को कांग्रेस पार्टी के निर्विवाद नेता के रूप में उभरने में मदद की। वह अपने समाजवादी और राजनीतिक एजेंडे को लागू करने के लिए पूरी ताकत से जुट गयीं। इस बीच गिरि ने इंदिरा गाँधी की बात मानी। उन्हें व्यापक रूप से ‘प्रधानमंत्री के राष्ट्रपति’ के रूप में जाना जाता था।
इस संदर्भ में भारत के सातवें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह और उनकी इंदिरा गाँधी की अधीनता को कोई नहीं भूल सकता। कई लोग उनके कुख्यात उद्धरण को याद करते हैं कि ‘अगर इंदिरा गाँधी उनसे कहें, तो वह फर्श पर झाड़ू लगाने के लिए भी तैयार हैं।’ इसलिए जब विपक्ष मौजूदा व्यवस्था पर संस्थानों को नष्ट करने का आरोप लगाता है, तो उसे सोचकर अपने भीतर भी झाँकना चाहिए।
हालाँकि यह किसी भी तरह से मोदी सरकार के कृत्यों और चूक को सही नहीं ठहराता और न ही इसके सहारे संविधान निर्माताओं के श्रमसाध्य से जोड़ी गयी ईंटों को नष्ट करने की इजाजत देता है। शासन के संरक्षक उस संविधान की रक्षा के लिए कर्तव्यबद्ध हैं, जिसकी वे शपथ लेते हैं। एक राजनीतिक उद्देश्य के लिए इसकी गलत व्याख्या करना उनके द्वारा धारण किये गये कार्यालय, विशेष रूप से संवैधानिक पदों के लिए एक अपकार होगा।
शासन के संरक्षक उस संविधान की रक्षा के लिए कर्तव्यबद्ध हैं, जिसकी वे शपथ लेते हैं। एक राजनीतिक उद्देश्य के लिए इसकी गलत व्याख्या करना उनके द्वारा धारण किये गये कार्यालय, विशेष रूप से संवैधानिक पदों के लिए एक अपकार होगा। समान रूप से मौजूदा मोदी सरकार को चिह्नित करना और अतीत में दूसरों ने जो किया है, उसे करने के लिए उसे सूली पर चढ़ाना अन्यायपूर्ण होगा। कोई भी मोदी को इस मामले में एक खलनायक के रूप में चित्रित कर सकता है; लेकिन वह अकेले इसमें नहीं हैं। उनके चाकू तेज हो सकते हैं; लेकिन उनके पूर्ववर्ती भी संत नहीं थे। उनके भी हाथ खून से सने हुए हैं