विनम्र और तामझाम से दूर रहने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत गाहे-बगाहे ही उग्र तेवर अपनाते हैं। उनके हाव भाव में अहंकार अथवा कठोरता की झलक तो शायद ही किसी को नज़र आयी हो? लेकिन 24 जुलाई को यह नौबत तब आयी, जब विधानसभा का सत्र बुलाने को लेकर राज्यपाल से टकराव के हालात पैदा हो गये। राज्यपाल कलराज मिश्र द्वारा सत्र बुलाने में अनुमति नहीं देने पर गहलोत समर्थक विधायक सवा पाँच घंटे तक राजभवन के लॉन में अघोषित धरने पर बैठे रहे। बेशक इस दौरान गहलोत का धरना मर्यादित और शालीन था। असहमति को सँभालने का उनका तरीका भी आदर्शवादी था कि हमें गाँधीवादी तरीके से पेश आना है। राज्यपाल संविधान के मुखिया हैं। हम उनसे टकराव नहीं चाहते। लेकिन सयाने िकस्म के महत्त्वाकांक्षी राजनेता भी हल्के-फुल्के नारे तो लगा ही बैठे। क्या इस स्थिति ने राज्यपाल को आहत किया?
सूत्रों का कहना है कि जब सत्ता के स्थापित आदर्श सिद्धांतों की रक्षा करने की बजाय राज्यपाल सत्र बुलाने की इजाज़त नहीं दे रहे थे, तो गहलोत अपने आवेश पर काबू नहीं रख पाये और मीडिया में इस बयान के साथ राज्यपाल पर निशाना साध बैठे कि उम्मीद है कि राज्यपाल अंतरात्मा से फैसला करेंगे। अन्यथा जनता राजभवन का घेराव करेगी, तो हमारी ज़िम्मेदारी नहीं होगी। गहलोत का कहना था कि संवैधानिक बाध्यता है कि राज्यपाल कैबिनेट की सलाह से चलते हैं। दूसरे शब्दों में समझें तो राज्यपाल बाध्य हैं। लेकिन सरकार जब कैबिनेट सत्र बुलाने का निर्णय कर लेती है, तो इसकी सूचना राज्यपाल को दी जाती है। संसदीय परम्परा को समझें तो राज्यपाल इस पर सत्र बुलाने को लेकर वारंट जारी करते हैं। इसके बाद ही सम्बन्धित तारीख को सत्र शुरू हो जाता है। बहरहाल सख्ती की बर्फ पिघली तो राज्यपाल के तर्क थे कि अल्प सूचना पर सत्र बुलाने का न तो कोई औचित्य बताया गया और न ही एजेंडा भेजा गया। राज्यपाल का तर्क था कि सरकार के पास बहुमत है, तो विश्वास मत प्राप्त करने के लिए सत्र आहूत करने का क्या औचित्य है? बहरहाल सरकार अब नया प्रस्ताव तैयार करके राज्यपाल के पास भेजेगी। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि भद्र राजनीतिक जमावड़े के सामने भाषण देने की तुलना में संवाद की राजनीति निश्चित रूप से काफी गम्भीर और जटिल काम है। लेकिन कलहप्रिय पायलट से जूझते हुए गहलोत एक लाचार राजनेता की अपेक्षा और कद्दावर नेता के रूप में उभरे। हालाँकि सियासत को लेकर आस्तीनें चढ़ा लेना कोई नयी बात नहीं है। नतीजतन प्रतिपक्ष नेता गुलाब चन्द कटारिया गुस्से से फट पडऩे से नहीं चूके कि राजभवन की सुरक्षा के लिए अब केंद्रीय पुलिस बल को लगाया जाना चाहिए। लेकिन कटारिया यह क्यों भूल गये कि 1993 में पूर्व मुख्यमंत्री भैरोसिंह शेखावत भी ऐसे ही राजभवन में धरने पर बैठे थे; तब क्या केंद्रीय पुलिस बल लगाने की बात उठी थी? उधर मौज़ूदा सदन में दलगत गणित समझें तो 102 विधायकों के समर्थन का दावा कर चुके गहलोत बहुमत साबित कर लेंगे। क्योंकि सदन में दलगत गणित ऐसा ही बन रहा है। सूत्रों का कहना है कि पूरे खेल के पीछे भाजपा की उँगलियाँ सरकार गिराओ प्रत्यंचा पर हैं। ऐसे में भाजपा क्यों चाहेगी कि सरकार सत्र बुलाकर पायलट गुट पर कार्रवाई करे। सूत्र भाजपा की मंशा की पुष्टि करते हैं, जो चाहती है कि पायलट के 19 बागी विधायकों की सदस्यता बची रहे; ताकि मौका मिलने पर सरकार को अस्थिर किया जा सके। दूसरी तरफ सियासत की तस्वीर कुछ और भी बयाँ करती है। मसलन राज्य सरकार द्वारा सत्र बुलाने का दूसरा प्रस्ताव भेजने पर नियमानुसार राज्यपाल मना तो नहीं कर सकते, किन्तु तुरन्त सत्र बुलाने की अनुमति दे देंगे; इसमें संदेह लगता है। सूत्र संदेह की वजह बताते हैं कि सरकार की मंशा सत्र बुलाकर विधेयक लाने के लिए व्हिप जारी करने की हो सकती है। नतीजतन सदस्यता गँवाने के मामले में बागी विधायक सीधे निशाने पर आ जाएँगे। सूत्र इस मामले में राज्यपाल केा दिये गये पत्र में फ्लोर टेस्ट का उल्लेख नहीं होने का हवाला देते हुए संशय जताते हैं। लेकिन जब हाई कोर्ट ने पायलट खेमे को राहत दे दी कि उनके विधायकों पर अयोग्यता की कार्रवाई नहीं होगी, तो फिर संदेह की हवाबाज़ी क्यों?
पीछे लौटें तो पाएँगे कि कांग्रेस में सियासी घमासान के पत्ते तो राज्यसभा चुनावों के दौरान ही फडफ़ड़ाने लग गये थे; जब केवल एक सीट ही जीतने की स्थिति में रहने वाली भाजपा ने दो प्रत्याशी खड़े कर दिये। इस घटना ने तीखी बहस को जन्म दिया, तो राहुल गाँधी के अभिन्न सखा भँवर जितेन्द्र सिंह ने उन्हें बताया कि इस कारस्तानी के पीछे सचिन पायलट अदृश्य रूप से खड़े हुए हैं; ताकि कांग्रेस प्रत्याशी को पराजित होना पड़े और मुख्यमंत्री गहलोत की किरकिरी की नौबत आ जाए। राहुल गाँधी ने कांग्रेस प्रत्याशी वेणुगोपाल को बुलाकर इस बात की तस्दीक करनी चाही, तो बात 100 फीसदी सच निकली। इस मुद्दे को लेकर तीखी बहस छिड़ी, तो पायलट के तेवरों ने आग में घी का काम किया। मुख्यमंत्री गहलोत ने इस सियासी ताक-झाँक का रहस्य खोलने के लिए एसओजी को ज़िम्मा सौंपा, तो बड़ी साज़िश बेपर्दा होती चली गयी। एसओजी ने राजस्थान में विधायकों की खरीद-फरोख्त करके कांग्रेस सरकार गिराने की साज़िश का खुलासा कर दिया। गुरुवार को तीन ऑडियो वायरल हुए। इनमें 30 विधायकों की संख्या पूरी होने पर सरकार के घुटने पर आने की बात की जा रही थी। साज़िश के इस आइने में सचिन पायलट ही खलनायक नज़र आ रहे थे। ऑडियो में संवाद की एक धुरी कथित रूप से केंद्रीय जलशक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत भी थे। नतीजतन एसओजी ने हॉर्स ट्रेडिंग मामले में सक्रियता बरतते हुए केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत को भी नोटिस भेज दिया। लेकिन शेखावत ने यह कहते हुए ऑडियो की विश्वसनीयता पर ही सवाल खड़े कर दिये कि पहले इसकी सच्चाई की परख तो करो। जबकि गहलोत ने यहाँ तक दावा किया कि आडियो फर्ज़ी निकला तो वह राजनीति छोड़ देंगे। उधर पायलट जब बगावती तेवरों से पीछे नहीं हटे, तो आलाकमान ने उन्हें एक के बाद एक चार बड़े झटके दिये। उप मुख्यमंत्री का पद छीनते हुए उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से भी बर्खास्त कर दिया गया। पायलट के दो बड़े समर्थक रमेश मीणा और विश्वेन्द्र सिंह से मंत्री पद छीन लिया गया। इसके साथ ही जाट नेता गोविन्द सिंह डोटासरा को नया प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। सचिन की बर्खास्तगी को राहुल गाँधी के बयान ने और ज़्यादा पुख्ता कर दिया कि जिसे जाना है, वो जाएगा। इससे घबराने की ज़रूरत नहीं है। उलटे ये लोग युवा पीढ़ी के लिए रास्ते खाली कर रहे हैं।
उधर बर्खास्तगी से बोखलाये पायलट ने गहलोत के खिलाफ खुलकर सियासी तलवारबाज़ी की शुरुआत कर दी कि गहलोत जनता से किये वादे पूरे करने की बजाय पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे की मदद कर रहे हैं। हालाँकि उन्होंने इन अटकलों पर विराम लगा दिया कि मैं कट्टर कंाग्रेसी हूँ; भाजपा में नहीं जाऊँगा। मैंने यह कदम आत्मसम्मान और सत्य की लड़ाई के लिए उठाया है। उधर गहलोत ने पलटवार करते हुए कहा कि पायलट सरकार के खिलाफ साज़िश में शामिल थे। पायलट की भाजपा नेताओं से बातचीत चल रही थी, मेरे पास सुबूत है। प्रति विधायक 20 से 35 करोड़ तक की सौदेबाज़ी हो रही थी। गहलोत ने पायलट पर तंज कसते हुए कहा कि सोने की छुरी खाने के लिए नहीं होती। अब भी समझ जाओ… 40 साल के हो गये हो? इस बीच पायलट समर्थक 19 विधायकों की गैर-मौज़ूदगी ने नये संदेह को जन्म दिया। नतीजतन विधानसभा अध्यक्ष सी.पी. जोशी ने मुख्य सचेतक महेश जोशी की शिकायत पर इन विधायकों को जवाबतलबी के नोटिस थमा दिये कि जवाब दें- पार्टी में हैं; या नहीं?
राजस्थान में कांग्रेस की सबसे बड़ी सियासी कलह के बीच पायलट समेत 19 विधायकों को भेजा गया अयोग्यता नोटिस अदालती कार्रवाई में फँस गया। पायलट के वकील हरीश साल्वे ने नोटिस को असंवैधानिक बताते हुए उसे बगावत नहीं, बल्कि फ्रीडम ऑफ स्पीच की संज्ञा दी; जबकि विधानसभा अध्यक्ष जोशी के वकील मनु सिंघवी ने दलील देते हुए इसे अध्यक्ष का अधिकार बताया। उनका कहना था कि अदालत को इसमें दखलअंदाज़ी नहीं होनी चाहिए। इस सियासी घमासान के दौरान भाजपा विधायक कैलाश मेघवाल का बयान काफी अटपटा रहा। उन्होंने मुख्यमंत्री गहलोत का समर्थन करते हुए कहा कि प्रदेश में गहलोत सरकार गिराने की साज़िश हो रही है। हॉर्स ट्रेडिंग हो रही है, आरोप-प्रत्यारोप लग रहे हैं। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है। मेघवाल के बयानों में कहाँ तक दम था? सूत्र इस बात की तस्दीक करते हैं कि राजस्थान में चल रही सियासत पर भाजपा नज़र गड़ाये हुए है। ‘ऑपरेशन कमल’ किसी भी समय सक्रिय किया जा सकता है। सूत्रों का कहना था कि शेखावत को दिल्ली बुलाकर राज्य की ताजा स्थिति पर नज़र रखने को कहा गया है। उन्हें कहा गया है कि स्थिति अनुकूल होते ही रणनीति सक्रिय कर दें। उधर भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया इस घमासान में भाजपा की किसी भी भूमिका से साफ इन्कार करते हैं। उनका कहना है कि इस ड्रामे में नायक, खलनायक दोनों कांग्रेस है; फिर भाजपा पर तोहमत क्यों? विश्लेषकों का कहना है कि अगर इस ड्रामे में भाजपा का कोई दखल नहीं, तो इस सियासी घमासान के दौरान गहलोत के निकटस्थों पर छापेमारी क्यों? भाजपा अगर राजस्थान में सेंध की कोशिश में नहीं है, तो हरियाणा की खट्टर सरकार पायलट गुट को संरक्षण क्यों दे रही है? हालाँकि अभी इस लुकाछिपी के नतीजे सिफर ही रहे। लेकिन जब गहलोत कहते हैं, तो संदेह का कोहरा गहरा जाता है कि पायलट 6 माह से भाजपा में जाने की तैयारी कर रहे थे और 11 जून को पार्टी तोडऩे वाले थे? उधर पायलट पर सोमवार 20 जुलाई को खंजरी हमला करते हुए गहलोत ने उन्हें निकम्मा, नाकारा और धोखेबाज़ बताया। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री बनने की उनकी लालसा किस कदर खदबदा रही थी? उनकी भड़ास इसकी पुष्टि करती है कि मैं यहाँ बैंगन बेचने नहीं, मुख्यमंत्री बनने आया हूँ। इस बीच कांग्रेस विधायक गिर्राज मलिंगा ने पायलट पर आरोपों की स्याही गाढ़ी करते हुए यहाँ तक कहा कि मुझे भी 35 करोड़ का ऑफर मिला था। उधर पायलट ने इसे बेबुनियाद बताते हुए कहा कि मैं हैरान ही नहीं, बल्कि दु:खी हूँ।
राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व उप मुख्यमंत्री व पूर्व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट के बीच अदावत नयी नहीं थी। लेकिन सत्ता संगठन पर कब्ज़ा ज़माने के लिए विधानसभा चुनाव से पहले शुरू हुई प्रतिस्पर्धा अब झगड़े में बदलकर उबाल पर है। आलाकमान को भी इल्म था, इसलिए समन्वय समिति बनायी; लेकिन यह काम नहीं आयी। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार के बाद पायलट को प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया; जबकि अशोक गहलोत केंद्र की सियासत में चले गये। गहलोत ने कई राज्यों में प्रभारी की भूमिका निभायी; लेकिन गाहे-बगाहे राजस्थान में सक्रिय रहने के बयान देते रहे। गहलोत के प्रभार वाले कुछ राज्यों में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया। वह कांग्रेस में संगठन महासचिव भी बन गये। वर्ष 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने मुख्यमंत्री का चेहरा किसी को नहीं बनाया। ऐसे में चुनाव जीतने के बाद मुख्यमंत्री बनने के लिए गहलोत और पायलट में विवाद बढ़ गया।
राहुल गाँधी के दखल के बाद सचिन पायलट उप मुख्यमंत्री बनने के लिए राज़ी हुए; लेकिन राज्य में पार्टी की सरकार बनने के बाद भी सब कुछ ठीक-ठाक नहीं रहा मध्य प्रदेश सहित राजस्थान में विवाद बढ़ा, तो कांग्रेस आलाकमान ने पिछली जनवरी में प्रभारी महा सचिवों की अध्यक्षता में समन्वय समिति बना दी। इसकी राजस्थान में केवल एक बैठक हुई; लेकिन यह समिति विवादों पर लगाम नहीं कस पायी। सूत्रों ने बताया कि पायलट की अध्यक्ष बने छ: साल से अधिक समय हो गया। अगले कुछ माह में पंचायत व नगर निकायों के चुनाव भी होने हैं। इनमें टिकट वितरण के लिए गहलोत खेमा चुनाव से पहले हर हाल में प्रदेश अध्यक्ष बदलवाने की कोशिश में लगा था। पिछले दिनों संगठन महासचिव के.सी. वेणुगोपाल ने कई नेताओं से इसे लेकर चर्चा भी की। जबकि पायलट इन चुनावों तक अध्यक्ष बने रहना चाहते थे। इस बीच राज्यसभा चुनाव के दौरान विधायकों की खरीद-फरोख्त का मामला सामने आ गया। एसओजी में रिपोर्ट दर्ज होने के बाद मुख्यमंत्री उप मुख्यमंत्री को बयान के लिए नोटिस देने से मामला बिगड़ गया। पायलट बगावत पर उतर आये।
उधर सचिन पायलट का एक न्यूज चैनल को दिया गया बयान भी चौंकाने वाला रहा कि मैं कांग्रेस में रहकर ही अपनी लड़ाई लड़ूँगा। उनका कहना था कि मेरी लड़ाई अशोक गहलोत के खिलाफ है। इसलिए कांग्रेस में रहकर ही लड़ाई लड़ूँगा। लेकिन भाजपा में नहीं जाऊँगा। पार्टी विरोधी गतिविधियों के आरोप में पायलट ने कहा कि जिन विधायकों ने बयानों के ज़रिये मेरी छवि खराब की है, वे सभी कानूनी कार्रवाई के लिए तैयार रहें।
विश्लेषकों का कहना है कि क्या पायलट का यह गुरूर हताशा से उपजा है? भविष्य को लेकर किसी भरोसेमंद दावे से वंचित पायलट शनिवार 11 जुलाई के घटनाक्रम पर क्या कहना चाहेंगे? उस दिन दोपहर 1:30 बजे उन्होंने ज्योतिरादित्य सिंधिया से क्यों मुलाकात की? इसके बाद भाजपा प्रवक्ता ज़फर इस्लाम से उनकी मुलाकात का क्या मकसद था? जबकि सिंधिया को भाजपा ले जाने का काम इस्लाम ने ही अंजाम दिया था। शाम 5:30 बजे सिंधिया द्वारा दिया गया बयान क्या मायने रखता है कि अपने पुराने साथी सचिन पायलट की स्थिति देखकर बहुत दु:खी हूँ। मुख्यमंत्री गहलोत ने उन्हें दरकिनार किया। उसी दिन रात 9:00 बजे पायलट के सबसे चौंकाने वाले बयान का क्या अर्थ लगाया जाए कि मेरे साथ 30 विधायक हैं और गहलोत सरकार अल्पमत में है। सूत्रों की मानें तो सचिन पायलट की मंशा से तो गहलोत सिंधिया की बगावत के दौरान ही वािकफ हो गये थे। सूत्रों ने पायलट की कमज़ोर नस का भी हवाला दे दिया था कि भाजपा को गहलोत सरकार को हिलाने के लिए 40 विधायकों की ज़रूरत होगी। पायलट इतने विधायक नहीं जुटा पाएँगे। फिर भाजपा क्यों कर पायलट को मुख्यमंत्री बनाने का तोहफा देती? जबकि राजस्थान में भाजपा का मतलब ही है- वसुंधरा राजे। विश्लेषकों का कहना है कि राजस्थान का संघर्ष छोटी-बड़ी मछली का नहीं, अहंकार और अज्ञानता का है। सचिन पायलट को लगा कि मैं मुख्यमंत्री क्यों नहीं? उप मुख्यमंत्री का पद उन्हें अपमान का घूँट लग रहा था। वरिष्ठ पत्रकार गुलाब कोठारी कहते हैं कि सारे राजकुमार कांग्रेस की नाव में छेद कर रहे हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपनी कीमत वसूल ली। सचिन कांग्रेस को धूल चटाने उठ खड़े हुए हैं। विश्लेषकों की मानें, तो गहलोत कांग्रेस के सबसे कद्दावर, अनुभवी और राजनीति के माहिर खिलाड़ी हैं। जब उनका दावा है कि उनके पास 105 विधायकों का समर्थन है, तो यह अंक गणित साफ कहता है कि सचिन पायलट के दल-बल के साथ पार्टी से चले जाने के बाद भी सरकार सुरक्षित है। सचिन पायलट अंतर्कलह की आग लगाकर खुद दूर बैठे हैं। उनके समर्थकों की संख्या बल को समझें, तो सचिन ने बड़ी जल्दबाज़ी में अपना गुणा-भाग किया, अथवा वह गहलोत के बिछाये गये ट्रेप में फँस गये। अब जो भी हो, सचिन वो दीवारें लाँघ चुके हैं, जिसे फाँदकर वापस नहीं आया जाता। सियासत के इस कुरुक्षेत्र में सचिन भाजपा के लिए तभी काम के थे, जब वह अपने दम पर 30 का आँकड़ा पार कर लेते।
कोर्ट अगर विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ फैसला देता है, तो कांग्रेस सदन में बहुमत साबित करने का जोखिम उठा सकती है। कांग्रेस के शीर्ष नेता चाहते हैं कि एमपी आदि राज्यों की तरह कोर्ट से बहुमत साबित करने के निर्देश आये, इससे पहले मुख्यमंत्री बहुमत साबित कर ले। बहुमत साबित होने पर पार्टी का मनोबल बढ़ेगा और पायलट खेमे को सबक मिलेगा। सूत्रों की मानें, तो राजस्थान में कांग्रेस के नेता अब सरकार बचाने और पार्टी को मज़बूत करने मे जुटे हैं। अदालत अगर विधानसभा अध्यक्ष के खिलाफ फैसला देता है, तो कांग्रेस सदन में बहुमत साबित करने का जोखिम उठा सकती है। कांग्रेस के शीर्ष नेता चाहते हैं कि मध्य प्रदेश आदि राज्यों की तरह कोर्ट से बहुमत साबित करने के निर्देश आयेें, इससे पहले मुख्यमंत्री बहुमत साबित कर लें। बहुमत साबित होने पर पार्टी का मनोबल बढ़ेगा और पायलट खेमे को सबक मिलेगा।
पहले भी भडक़े थे विधायक
अभी जिस तरह कांग्रेस के विधायक अपनी ही पार्टी के नेतृत्व के प्रति असंतोष व्यक्त कर रहे हैं, ऐसे ही हालात प्रदेश में करीब चार दशक पहले भी बने थे। तब प्रदेश कांग्रेस सरकार को नेतृत्व मुख्यमंत्री शिव चरण माथुर कर रहे थे। उस दौरान प्रदेशाध्यक्ष अशोक गहलोत थे, जो अभी कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री हैं। दरअसल कांग्रेस आलाकमान ने हरिदेव जोशी से नाराज़ हो कर उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाकर माथुर को प्रदेश की कमान सौंपी थी। इस दौरान पूर्व मुख्यमंत्री हीरालाल देवपुरा भी सशक्त नेता थे। सांसद नवल किशोर शर्मा भी प्रदेश कांग्रेस की राजनीति में दिग्गज थे। माथुर के नेतृत्व के प्रति विधायकों का असंतोष बजट सत्र के दौरान खुलकर उभार पर आ गया था। स्थिति इतनी जटिल हो गयी कि कांग्रेस विधायकों के सदन की कार्यवाही का बहिष्कार तक करने की नौबत आ गयी। असंतुष्ट विधायकों के शक्ति प्रदर्शन के चलते प्रदेश के बजट के पारित होने पर ही संकट के बादल नज़र आने लगे थे। सीताराम झालानी की ओर से सम्पादित पुस्तक राजस्थान नूतन-पुरातन में उल्लेख है कि 17 मार्च, 1989 को असंतुष्ट विधायकों ने विधानसभा की कार्यवाही का का बहिष्कार भी किया। प्रदेश कांग्रेस में चल रहे इस अन्तर्विरोध को खत्म होता नहीं देख आलाकमान ने दो पूर्व मुख्यमंत्रियों जगन्नाथ पहाडिय़ा और हरिदेव जोशी को राज्यपाल बनाकर प्रदेश की राजनीति से दूर भेज दिया। इसी क्रम में 7 जून, 1989 को अशोक गहलोत के स्थान पर हीरालाल देवपुरा को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया और इसके अगले ही दिन यानी 8 जून, 1989 को अशोक गहलोत को शिवचरण माथुर मंत्रिमंडल में कमला बेनीवाल, गुलाब सिंह शक्तावत व रामसिंह विश्नोई के साथ कबिनेट मंत्री बनाया गया। कुछ अन्य को भी राज्यमंत्री व उप मंत्री बनाया गया। गहलोत को विभागों के बँटवारे में गृह मंत्री बनाया गया। उस समय गहलोत जोधपुर से सांसद थे। इसके बाद बोफोर्स प्रकरण के साये में हुए लोकसभा के आम चुनावों में कांग्रेस पार्टी का प्रदेश में पूरी तरह सफाया हो गया और सभी 25 सीटों पर कांग्रेस हार गयी। इस लहर मेें गहलोत भी जोधपुर से सांसद का चुनाव हार गये। इस ज़बरदस्त हार के बाद शिवचरण माथुर मंत्रिमंडल ने 29 नवंबर, 1989 को इस्तीफा दे दिया था।
नये अध्यक्ष की राह मुश्किल
सियासी उठापटक के बीच नये अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा की ताजपोशी काँटों भरे ताज से कम नहीं है। पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाये जाने के बाद बड़ी संख्या में कार्यकर्ता नाराज़ हैं। ऐसे में नये अध्यक्ष के लिए रूठों को मनाना और संगठन को नये सिरे से खड़ा करना चुनौती है। खुद डोटासरा कह चुके हैं कि जल्द ही नयी कार्यकारिणी का गठन होगा तथा ज़िला ब्लॉक स्तर पर भी कार्यकारिणी गठित की जाएगी। अब नयी परिस्थिति को देखते हुए निर्णय लिया जाएगा। कार्यकारिणी भंग होने से नये लोगों की तलाश करना आसान नहीं होगा। क्योंकि अब तक पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट गुट का दबदबा था। यही स्थिति ज़िला और ब्लॉक कमेटी की कार्यकारिणी में होगी। पंचायत और निकाय चुनाव में संगठन को मज़बूती देने के साथ-साथ टिकट के दावेदारों को साधना भी बहुत ज़रूरी होगा। आम तौर पर टिकट वितरण के बाद बगावत होती है। संगठन में जान फूँकने के लिए युवाओं को जोडऩा भी बड़ी चुनौती होगी। पायलट और यूथ कांग्रेस अध्यक्ष मुकेश धाकड़ को हटाने पर युवाओं में नाराज़गी है, कई पदाधिकारियों ने इस्तीफे भी दिये।
याद आये व्यास
वर्तमान सियासी संकट ने करीब 66 साल पुरानी यादें ताज़ा कर दीं। उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बागी तेवरों से जिस तरह मुख्यमंत्री अशोक गहलोत सियासी तूफान में फँसे नज़र आ रहे हैं, ठीक ऐसी ही स्थिति 1954 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जय नारायण व्यास ने भी झेली थी। जोधपुर के व्यास को भी उस समय के युवा नेता मोहनलाल सुखाडिय़ा ने चुनौती दी थी; जैसे आज गहलोत बनाम पायलट के रूप में यह सियासी संघर्ष सामने है। सुखाडिय़ा के नेतृत्व में 1954 में कांग्रेस विधायकों ने व्यास के खिलाफ बगावत की थी। सुखाडिय़ा उस समय 38 साल के थे। उन्हें कभी व्यास के नज़दीकी रहे मेवाड़ के माणिक्यलाल वर्मा और मारवाड़ के मथुरादास माथुर का सहयोग मिला। एसएमएस टाउन हॉल (पुरानी विधानसभा) में 13 नवंबर,1954 को हुई विधायक दल की बैठक में मत विभाजन में सुखाडिय़ा के पक्ष में 59 और व्यास के समर्थन में 51 वोट ही पड़े। व्यास ने तुरन्त इस्तीफा दे दिया और अपने सहयोगी द्वारकादास पुरोहित के साथ मुख्यमंत्री निवास पहुँचे। वहाँ से ताँगे में अपना सामान भरकर पोलोविक्ट्री के पास अपने मित्र की एक होटल में आ गये। पुरोहित के पौत्र अशोक पुरोहित बताते हैं कि व्यास कवि भी थे। इस्तीफे के बाद जोधपुर के एक नेता उनसे मिलने पहुँचे, तो आँखों में आँसू आ गये। उस समय व्यास ने कविता सुनायी… मैंने ही अपनी चिता जलाई / देख देख लपटें ज्वाला की / मैं हँसता, तू क्यों रोता भाई…। वरिष्ठ कांग्रेस नेता कैलाश टाटिया बताते हैं कि व्यास के नेतृत्व में लड़े गये 1952 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 160 में से 82 सीटें जीतकर बहुमत तो हासिल कर लिया, लेकिन व्यास दोनों ही सीटों पर चुनाव हार गये। ऐसे में टीकाराम पालीवाल को मुख्यमंत्री बनाया गया। इसी दौरान किशनगढ़ से चाँदमाल मेहता ने सीट खाली कर दी। व्यास उप चुनाव जीते। इसके तुरन्त बाद पालीवाल को इस्तीफा दिलवाकर व्यास को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी गयी। व्यास ने पालीवाल को फिर उप मुख्यमंत्री बना दिया; लेकिन माथुर को कैबिनेट में जगह नहीं दी।
लोकतंत्र पर से उठेगा लोगों का भरोसा
जिस तरह से भाजपा एक-एक करके कई राज्यों की विपक्षी दल की सरकारों को तोडक़र सत्ता हथिया रही है, उससे लोगों का लोकतंत्र पर से भरोसा उठने लगेगा और लोग कानून, संसद, मंत्रियों तथा अपने प्रतिनिधियों पर भरोसा खोने लगेंगे। अगर भारत की लोकतांत्रिक व धर्म-निरपेक्ष प्रवृत्ति को बचाना है, तो विधायकों-सांसदों की खरीद-फरोख्त और जोड़-तोड़ की राजनीति पर लगाम कसनी होगी। अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब अधिक-से-अधिक आपराधिक प्रवृत्ति के लोग सत्ता में आ जाएँगे और सरेआम आपराधिक घटनाओं का ग्राफ बढ़ता जाएगा। इसकी बानगी देखने को मिलने लगी है। मध्य प्रदेश, बिहार और उत्तर प्रदेश आज आपराधिक घटनाओं के गढ़ बनते जा रहे हैं। आज कोई भी किसी निरपराध पर होते अत्याचारों के खिलाफ आवाज़ उठाने की अगर हिम्मत भी करता है, तो उसके साथ भी वही सलूक होता है, जो एक अपराधी के साथ होता है, और अपराधी खुले घूमते हैं; उनका मान-सम्मान होता है। कई बार तो यह मान-सम्मान उन्हें नेताओं-मंत्रियों से ही मिलता है। उत्तर प्रदेश में हाल ही में एक पुलिस अधिकारी के हत्यारोपी को सत्तासीन पार्टी में बड़ा पद देना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। संविधान की भाषा में इसे निरंकुश शासन कहते हैं। कहने का मतलब केवल इतना है कि जब पैसे और ताकत के दम पर सत्ता हथियायी जाएगी, तो सत्ताधारियों द्वारा उसका दुरुपयोग निश्चित ही किया जाएगा। क्योंकि ऐसी सत्ताएँ पैसे और ताक़त के अलावा कुछ तथाकथित ख़तरनाक अपराधियों के दम पर ही हासिल की जाती हैं और सत्ता मिलने के बाद लोगों का हनन, धन का दोहन और निरंकुशता का वर्चस्व रहता है, उन्हीं चन्द अपराधियों के ऐश-ओ-आराम के लिए जो या तो सत्ता की कुर्सी पर आ जाते हैं या उनके चारो तरफ अपराधियों का मजमा होता है।