पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने बीसीसीआई को अपने संविधान में संशोधन करने की इजाज़त दे दी। इसके बाद अब बीसीसीआई के सचिव जय शाह का पुन: अगले तीन वर्षों तक अपने पद पर बने रहना सुनिश्चित हो गया है। बात छोटी-सी है, और प्रथमदृष्टया सामान्य लगती है। लेकिन इसके निहितार्थ स्वार्थी सत्ता की गहरी जड़ें हैं। ऐसी कौन-सी विशिष्ट परिस्थितियाँ थीं कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह को इस लाभ के पद पर बनाये रखने के लिए बीसीसीआई को नियमों में बदलाव को लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक जाना पड़ा। देश के लिए अब तक यह समझ पाना अत्यंत दुष्कर है कि गृहमंत्री अमित शाह के बेटे होने के अतिरिक्त जय शाह में ऐसी कौन-सी क़ाबिलियत या दिव्य गुण है, जिसके चलते उन्हें बीसीसीआई के सचिव पद पर प्रतिष्ठित किया गया है। जय शाह ने तो क्रिकेट या सार्वजनिक जीवन में ऐसी कोई उपलब्धि भी हासिल नहीं की है।
स्वतंत्रता दिवस पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश के समक्ष दो बड़ी चुनौतियों- भ्रष्टाचार और परिवारवाद की चर्चा की। लेकिन समस्या यह है कि प्रधानमंत्री और भाजपा वंशवाद एवं भ्रष्टाचार का विरोध तो चाहते हैं, परन्तु अपनी सुविधानुसार। जिस भाजपा में अनुराग ठाकुर, पूनम महाजन, पंकज सिंह, पंकजा मुंडे, पीयूष गोयल, निर्मला सीतारमण, रविशंकर प्रसाद, धर्मेंद्र प्रधान, विजय गोयल जैसे नेता वंशवाद की एक विस्तृत पैदावार हैं; कम-से-कम उसे तो वंशवाद और परिवारवाद की आलोचना करने का नैतिक अधिकार नहीं ही है। भाजपा की रीति-नीति से प्रतीत होता है कि कांग्रेस, सपा, राजद आदि विपक्षी दलों का वंशवाद देश के लिए चुनौती है और भाजपा का परिवारवाद लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान कर रहा है। सत्य तो यही है कि चाहे किसी भी दल द्वारा प्रश्रय दिया गया हो; लेकिन वंशवाद-परिवारवाद भारत के लिए दुर्दम्य रोग बन चुका है। इधर देश की नौकरशाही संस्थागत भ्रष्टाचार के निरंतर नये मानक बना रही है। लेकिन सुशासन का नारा बुलंद करती सरकार इस पर मौन साधे बैठी है। इसका नमूना देखिए, वार्षिक रिपोर्ट-2021 में केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने भ्रष्टाचार के मामले में सरकारी विभागों के रवैये पर नाराज़गी जताते हुए कहा था कि विभिन्न सरकारी विभागों ने भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारियों को दण्डित करने की उसकी सिफ़ारिशों को नहीं माना; जबकि इनमें अनियमितताओं और ख़ामियों के गम्भीर मामले सामने आये थे। यही नहीं, उत्तराखण्ड से लेकर उत्तर प्रदेश तक के लोक सेवा आयोगों में कुव्यवस्था और भ्रष्टाचार सिर चढक़र बोल रहे हैं। नियुक्तियों में धाँधलियों के द्वारा संघर्षशील युवाओं के भविष्य को पैरों तले रौंद रहे इन भ्रष्ट महकमों को ईडी और सीबीआई के जाँच के अंतर्गत कब लाया जाएगा? उत्तर प्रदेश में पशुपालन विभाग में हुए करोड़ों के घोटाले और सरकारी अधिकारियों के स्थानांतरण में हुई गड़बडिय़ों के दोषियों को कब दण्डित किया जाएगा? ऐसे कई यक्ष प्रश्न हैं।
ग़ौर करें, तो 2014 में सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार ने कमोबेश पूर्व की कांग्रेसी सरकारों की उसी कार्यशैली को अपना लिया है, जिसकी वह स्वयं हमेशा आलोचना करती रही है। मसलन अपनी सुविधानुसार नियमों को तिलांजलि दे देना। भाजपा ने सत्ता में आते ही नृपेंद्र मिश्र को सचिव बनाने के लिए नियमों में बदलाव करवाया। वास्तव में यह बहुमत के दुरुपयोग का उदाहरण है।
अब डॉ. शाह फैसल के मामले को ही लीजिए; इस पूर्व आईएएस ने नौकरी छोडक़र जब राजनीति शुरू की, तब अनुच्छेद-370 के विरोध में वह इतने दुराग्रही हो गये कि भारत सरकार विरोधी पक्ष को लेकर तुर्की आदि शत्रु देशों और अंतरराष्ट्रीय न्यायालय हेग में जाने का प्रयास करते हुए दिल्ली हवाई अड्डे पर पकड़े गये। उन्हें पीएसए के तहत गिरफ़्तार किया गया। जून, 2020 में रिहाई के पश्चात् उन्होंने राजनीति से किनारा किया और मोदी सरकार की नीतियों की प्रशंसा करते हुए वापस नौकरशाही में लौटने की इच्छा जतायी। अब केंद्र सरकार ने उन्हें संस्कृति मंत्रालय में उप सचिव नियुक्त किया है। कल्पना कीजिए कि अगर कांग्रेस या किसी अन्य विपक्षी दल की सरकार द्वारा यह किया गया होता, तो पूरी भाजपा राष्ट्रवाद का ध्वज और तुष्टिकरण विरोधी नारे के साथ सरकार पर टूट पड़ी होती। लेकिन दिव्य शक्ति सम्पन्न मोदी सरकार ने यह निर्णय अगर किया है, तो अवश्य ही इसमें कोई गूढ़ रहस्य होगा। फिर इस पर आम अज्ञानी जनता कैसे प्रश्न उठा सकती है?
दूसरा उदाहरण देखें, एक क्रिकेट मैच के दौरान गृहमंत्री के बेटे एवं बीसीसीआई के सचिव जय शाह ने तिरंगे के प्रति कैसा क्षुद्र व्यवहार किया, यह पूरे देश ने देखा। यदि अमित शाह के बेटे के बजाय किसी ग़ैर-भाजपा नेता के बेटे या किसी ग़ैर-हिन्दू ने राष्ट्रीय ध्वज हाथ में लेने से इनकार किया होता, तब भाजपा पूरे देश को राष्ट्रवाद सिखाती। लेकिन इस मुद्दे पर पार्टी के सारे बयानवीर और तथाकथित राष्ट्रवादी एकदम मौन रहे। वर्तमान में सरकार की नीतियाँ विरोधाभासों से भरी हैं। एक तरफ़ डिजिटल पेमेंट को बढ़ावा देने एवं कैशलेस इकोनॉमी के गुण गाये जा रहे हैं। वहीं दूसरी तरफ़ प्रत्येक यूपीआई ट्रांजेक्शन पर शुल्क लागू करने की बातें हो रही हैं। ऐसे ही एक तरफ़ मेक इन इंडिया और स्वदेशी उद्योग विस्तार के दावे हैं और दूसरी तरफ़ चीनी उत्पादों पर निर्भरता बढ़ती जा रही है। पिछले पाँच वर्षों के आँकड़ों से पता चलता है कि भारत का चीन से व्यापार घाटा लगातार बढ़ रहा है। सन् 2017 में यह 51 अरब डॉलर था, जो सन् 2021 में बढक़र 69.4 अरब डॉलर हो गया था। भारत के मोबाइल बाज़ार के 50 फ़ीसदी से अधिक हिस्से पर चीनी कम्पनियों का ही क़ब्ज़ा है। उस पर सीमा विवाद को लेकर भाजपा कुछ नहीं बोलती, सिवाय एकाध बार चीन को देख लेने की घोषणा के। गोवंश संरक्षण के मुद्दे पर भाजपा का रुख़ सदैव आक्रामक रहा है, बल्कि इस मुद्दे ने भाजपा के चुनावी अभियानों को धार दी है। परन्तु लम्पी वायरस के कहर से पूरे उत्तर भारत में तड़प-तड़पकर मर रही गायों की सुध लेने की न सरकार में किसी को फ़ुर्सत है और न ही उन तथाकथित गोरक्षकों को, जिन्होंने सन् 2014 में केंद्र में मोदी सत्ता स्थापित होने के बाद तीन-चार साल तक लोगों को पीटा। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में गायों की बड़ी आबादी मिटाकर वीगन मूवमेंट एवं अमेरिकी सोया मिल्क खपत बढ़ाने के लिए मानव निर्मित लम्पी वायरस एफएमडी वैक्सीनेशन के ज़रिये गायों में प्रसारित किया गया है। लेकिन सरकार आश्चर्यचकित रूप से अनभिज्ञ बनी बैठी है।
बीती 15 अगस्त के अपने अभिभाषण में प्रधानमंत्री ने कहा था कि कभी-कभी हमारी प्रतिभाएँ भाषा के बन्धनों में बँध जाती हैं। यह ग़ुलामी की मानसिकता का परिणाम है। हमें हमारे देश की हर भाषा पर गर्व होना चाहिए। किन्तु विडम्बना देखिए कि हिन्दी समेत सभी भारतीय भाषाओं के सम्मान की रक्षा का नारा देती यही सरकार प्राथमिक शिक्षा तक में अंग्रेजी थोपने में लगी है। और देश को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की प्रतिष्ठा की स्थापना का दिवास्वप्न दिखाया जा रहा है। भाजपा सरकार के कार्यकाल में सरकारी नौकरियों में अंग्रेजी की अनिवार्यता बढ़ती गयी है। दूसरी ओर प्रशासन के भारतीयकरण पर तक़रीरें हों रहीं हैं। केंद्र सरकार और भाजपा देश में फैली समस्याओं से अपरिचित नहीं हैं; लेकिन फिर भी वह इनके प्रति उदासीन बनी हुई है। सम्भवत: कहीं-न-कहीं निरंतर चुनावी विजय ने पार्टी नेताओं को घमण्ड से भरते हुए सत्ता में रहने का एक निश्चिंत भाव पैदा कर दिया है। इसकी सबसे प्रमुख वजह भाजपा को मिलने वाला अंधसमर्थन है।
दरअसल पार्टी के पास हिन्दुत्व का ब्रह्मास्त्र है, जिसने अब तक उसे पिछले आठ वर्षों से चुनावी संघर्ष में लगातार बढ़त दिला रखी है। इसी के चलते पार्टी यह मुग़ालता पाल बैठी है कि उसे प्राप्त यह बहुमत स्थायी रूप ले चुका है। किन्तु यदि ऐसे ही पार्टी का सैद्धांतिक भटकाव जारी रहा, तो जल्द उसका पतन शुरू हो सकता है। क्योंकि लोकतंत्र में बहुमत या जनसमर्थन कभी भी स्थायी नहीं होता। भाजपा को यह समझना होगा कि अब तक जिन राजनीतिक कुप्रथाओं की वह आलोचना करती रही है, उससे बढक़र नकारात्मक परम्पराएँ स्थापित करने के उसके ही कृत्य भविष्य में पार्टी को जनता के कटघरे में खड़ा करेंगे। तब भाजपा की भी वैसी ही स्थिति होगी, जैसी आज कांग्रेस की है कि वह अपनी ऐतिहासिक ग़लतियों के लिए मुँह छुपाये फिर रही है और जनाधार तलाश रही है। बहुमत के दुरुपयोग के कारण महत्त्वपूर्ण पक्ष का सिकुडऩा और संघर्षहीन विपक्ष भी हैं। यहाँ सबसे बड़ी ज़िम्मेदारी विपक्ष की थी, जो आम जनता को सरकार के भटकाव से परिचित कर उसे अपने विरोध से जोड़ता, ताकि सत्ता को चेताया जा सके। लेकिन विपक्ष स्वयं ही दिशाहीन एवं किंकर्तव्यविमूढ़ है। उसका नेतृत्व ऐसे अयोग्य वंशवाद के उत्पाद नेताओं के पास है, जिनको जन-सरोकारों से जुड़े मामलों को न जानने की फ़र्सत है और न ही उनमें कोई रुचि। उनका स्वार्थ अपना अस्तित्व बचाने में और उनकी ऊर्जा येन केन प्रकारेण सत्ता पाने की जुगत में ख़र्च हो रही है। अत: सरकार और सत्ता का प्रभाव सर्वत्र फैलना स्वाभाविक ही है।
रही बात नरेन्द्र मोदी की, तो श्रीममद्गवद्गीता में अर्जुन द्वारा भगवान कृष्ण से किया गया प्रश्न याद आता हैं :-
‘अयति: श्रद्धयोपेतो योगात्चलितमानस:।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति।।’
अर्थात् हे कृष्ण! उस असफल योगी की गति क्या है, जो प्रारम्भ में श्रद्धापूर्वक आत्म-साक्षात्कार की विधि ग्रहण करता है; किन्तु बाद में भौतिकता के कारण उससे विचलित हो जाता है और योगसिद्धि को प्राप्त नहीं कर पाता? यह प्रश्न मोदी के कार्य-व्यवहार के लिए सटीक है। उनकी राजनीति अब आत्मकेंद्रित हो चुकी है। विशेषकर प्रधानमंत्री के रूप में उनकी दूसरी पारी पर ग़ौर करें, तो वह आत्ममुग्ध एवं अति-स्वकेंद्रित नज़र आते हैं। उनकी ऊर्जा अपने आभामण्डल के विस्तार के प्रयास में अधिक लगी हुई है। सम्भवत: वह ख़ुद को इतिहास-पुरुष साबित करने की जद्दोजहद में लगे हैं। कहीं-न-कहीं उन्हें स्वयं के अपराजेय होने का भान हो गया है। लेकिन सर्वोच्चता की स्थिति सदैव नहीं रहती। यूनानी राजनीतिज्ञ पोलीबियस इस अवधारणा के समर्थक हैं कि इतिहास के क्रम में विकास तथा विनाश का नियम शाश्वत्, सर्वव्यापी एवं अटल है। लोकतंत्र में किसी सत्ता को बहुमत और जनसमर्थन की प्राप्ति का अर्थ स्वेच्छाचारिता एवं अधिनायकवाद की स्वीकृति क़तई नहीं होता। यदि किसी भी लोकप्रिय सरकार को यह भ्रम होता है, तो इसका अर्थ है कि उसने लोकतांत्रिक मूल्यों एवं जनशक्ति की अवधारणा को ठीक से आत्मसात नहीं किया है। इसी देश में इंदिरा गाँधी की सरकार ऐसी ही ग़लतफ़हमी के शिकार होने का दण्ड भुगत चुकी है। इतिहास वर्तमान के लिए बहुत बड़ी सीख होता है। लेकिन यह उसी के लिए सार्थक है, जो इससे ग्रहण करने की क्षमता रखता हो। अन्यथा इतिहास द्वारा ख़ुद को दोहराने की उक्ति सर्वविदित ही है।
(लेखक राजनीति एवं इतिहास के जानकार हैं। ये उनके अपने विचार हैं।)