कश्मीर घाटी देश के सेब कारोबार का कुल 77 फीसदी उत्पादन करती है। इससे राज्य को करीब 10,000 करोड़ की आय होती है। एक तरह से यह कश्मीर की आर्थिकी का आधार है। कश्मीर की अर्थ-व्यवस्था का करीब पाँचवाँ हिस्सा सेब कारोबार से आता है। करीब 33 लाख लोग इससे रोज़गार पाते हैं। लेकिन इस बार लगातार बन्द और संचार बाधाओं के अलावा हाल में प्रवासी ट्रक चालकों, व्यापारियों और मज़दूरों की हत्याओं के चलते ने सेब इंडस्ट्री की हालत पतली कर दी है।
इन हालत में सेब को प्रदेश से बाहर देश के मंडियों में भेजने का खर्चा बढ़ गया है। पहले नई दिल्ली के लिए सेब की जिस एक पेटी का भाड़ा 80 रुपये के आसपास बैठता था, वह अब 200 रुपये पहुँच गया है। सेब की एक पेटी 15-20 किलो के वज़न की होती है। एक सेब उत्पादक बशारत रसूल कहते हैं – ‘इस साल ची•ों सचमुच बहुत कठिन हो गयी हैं। सेब की बड़ी फसल खरीदार या ट्रांसपोर्ट साधन के इंतज़ार में कमोवेश सड़ चुकी है।’
अक्टूबर के मध्य तक बुद्धन इलाके में बागों में पेड़ सेबों से अटे पड़े थे; क्योंकि तमाम हालात के चलते इन्हें पेड़ों से निकाला ही नहीं गया। रसूल का कहना है कि इन्हें निकालने, पैक करने और ट्रांसपोर्ट की सुविधाओं के अकाल के चलते सेब को मंडियों तक पहुँचाना लगभग असम्भव-सा था। रसूल के मुताबिक, यहाँ तक कि सेब को कश्मीर के ही भीतर सोपोर की मण्डी तक ले जाना भी दूभर था। संचार सुविधाओं का ठप पड़ जाना अकेला सबसे बड़ा कारण था कि सेब का व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुआ। रसूल हाल ही में सरकार की तरफ से घोषित की गयी बाज़ार हस्तक्षेप योजना से भी असंतुष्ट दिखे। उनका कहना है कि यह काम नहीं कर रही। रसूल कहते हैं – ‘दावे के विपरीत सहकारी समितियाँ तय मूल्य से कहीं कम मूल्य दे रही हैं।’
कश्मीर की झेलम घाटी सडक़ के ज़रिये देश के बाकी हिस्सों से जुड़ी हुई है। जब उत्पादक अपना उत्पाद दिल्ली और देश की मंडियों को ले जाता है, तो इस सडक़ के साथ का कठिन भू-भाग सेब की परिवहन लागत को बढ़ा देता है। सिर्फ लम्बा रास्ता तय करना ही समस्या नहीं है, बल्कि ट्रांसपोर्ट और सुरक्षा से जुड़ी और बहुत चुनौतियाँ हैं, जिनमें बागवान हिफाज़त की ज़रूरत महसूस करते हैं।
अनुच्छेद-370 खत्म होने के बाद घाटी वैसे ही असाधारण परिस्थितियों से गुज़र रही है और इसका सबसे ज़्यादा नुकसान बागवानों को झेलना पड़ा है। इसके चलते करीब 1.87 लाख एकड़ क्षेत्र में फैली बागवानी खराब हो रही है। यह क्षेत्र नवगठित केंद्र शासित प्रदेश की 30 लाख की बड़ी आबादी को रोज़गार भी मुहैया कराता है। इसके अलावा घाटी में अपेक्षाकृत कम बागबानी सुविधाएँ और ट्रांसपोर्ट की कमी भी बड़ी समस्या है। इससे सैकड़ों किलो सेब देश की बड़ी मंडियों में पहुँचाने से पहले ही हर साल सड़ जाता है।
सेब को सुरक्षित रखने के लिए शीत वाहन की कोई व्यवस्था आज तक नहीं हो पायी है। यह सुविधा हो तो सेब सडऩे से बच सकता है। इसके अलावा कोल्ड स्टोरेज की भी ज़बरदस्त कमी है। यदि यह सब हो, तो उत्पादक सेब को इनमें सुरक्षित रख सकते हैं और ज़रूरत के समय मण्डियों में भेज सकते हैं। वर्तमान में तो सेब पेड़ों से निकलते ही मण्डियों में भेजना पड़ता है।
घाटी में इसके अलावा सेब के व्यापार को इसलिए भी मार पड़ी है, क्योंकि यहाँ फसल पूर्व के ठेकेदारों, आढ़तियों और किसानों का बोलबाला है। नाबार्ड के एक सर्वे से ज़ाहिर होता है कि दिल्ली में रहने वाले करीब 3000 कमीशन एजेन्ट फसल पूर्व ठेकेदारों के ज़रिये किसानों को पहले ही पैसा देकर बागानों को कब्•ो में करके सस्ते में उत्पाद खरीद लेते हैं। वहीं, अगर इस साल सेब की फसल बर्बाद होने की बात करें, तो इस बार 40 प्रतिशत से अधिक फसल सेब सडऩे से बर्बाद हो चुकी है, जबकि 10 से 16 फीसदी सेब ही बाहर जा पा रहा है।
सरकार का इस ओर ध्यान न देने से इसका विपरीत प्रभाव जम्मू-कश्मीर की अर्थ-व्यवस्था और वहाँ के जनजीवन के साथ-साथ पूरे देश पर भी पड़ रहा है।