सजग प्रयास का ‘मंतव्य’

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पत्रिका ः मंतव्य (प्रथम अंक)
संपादक ः हरेप्रकाश उपाध्याय
मूल्य ः 100 रुपये
पृष्ठ ः 236
प्रकाशन ः मंतव्य, लखनऊ

कवि-उपन्यासकार हरेप्रकाश उपाध्याय ने लखनऊ से ‘मंतव्य’ नामक नयी साहित्यिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया है. देश में लघु पत्रिकाओं का बाजार काफी भीड़ भरा है, खुद लखनऊ से अखिलेश के संपादन में तद्भव जैसी नामी पत्रिका निकलती है ऐसे में निश्चित तौर पर इस साहसी प्रयास के पीछे उन्होंने लंबे समय तक सोच-विचार किया होगा. अपने संपादकीय में वह कहते भी हैं, ‘दुनिया जितनी आधुनिक और विकसित होती जा रही है, मनुष्य के सामाजिक और वैयक्तिक जीवन के संकट भी कम विकसित नहीं हो रहे…एक निष्ठुर व मायावी दुनिया में साहित्य की चुनौती व प्रासंगिकता दोनों बढ़ जाती हंै.’

अनुमानत: हरेप्रकाश उपाध्याय देश के सबसे कम उम्र साहित्य संपादकों में से एक हैं. ऐसी पत्रिका को लेकर उत्सुकता होना स्वाभाविक है. अपने पूरे तेवर और कलेवर में पत्रिका बतौर पाठक-समीक्षक काफी आकर्षक लगी. आवरण पृष्ठ का चित्र और आखिरी पन्ने पर निर्मला पुतुल की कविता दोनों मानीखेज हैं और उन्हें देकर पूरा यकीन हो जाता है कि इन दोनों पन्नों के बीच जो भी पाठ्य सामग्री होगी उसकी गुणवत्ता पर संदेह नहीं किया जा सकता.

पत्रिका क्रमश: कथा खंड, कविता खंड, मर्म मीमांसा, खास किताब, मील का पत्थर, भूली बिसरी, रंग भूमि और जीवन की राहों में आदि श्रेणियों में बंटी हुई है. खास बात यह है कि कथा खंड में कहानियां न देकर तेजिंदर, भगवानदास मोरवाल, भालचंद्र जोशी और केशव के उपन्यास अंश दिए गए हैं. जो अपने आप में एक मुकम्मल कहानी प्रतीत होते हैं.

श्रीकांत दुबे का मैक्सिको यात्रा वृतांत ‘दुनिया के उस तरफ’ और गीताश्री का हिमाचल यात्रा पर लिखा ‘एक अचरज से सीधी मुलाकात’ खास तौर पर पठनीय हैं. कविता खंड में निरंजन श्रोतिय, अरुण देव, पीयूष दईया, मोनिका कुमार, अविनाश मिश्रा आदि की पठनीय कविताएं हैं. वैभव सिंह द्वारा मार्खेज पर लिखे आलेख का जिक्र किए बिना बात पूरी न होगी. कुलमिलाकर मंतव्य लघु पत्रिकाओं के भीड़ भरे समय में एक आश्वस्त करती शुरुआत है. यह एक गंभीर प्रयास है जिसने हिंदी साहित्य के पाठकों की उम्मीदें अचानक बढ़ा दी हैं. अब पत्रिका के स्तर को बरकरार रखने की उनकी जिम्मेदारी और गंभीर हो गई है.